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साहित्य

टेरर पालिटिक्स पर वार करती किताब ’आपरेशन अक्षरधाम’

देश में कमजोर तबकों दलित, आदिवासी, पिछड़ी जातियों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं को दोयम दर्जे की स्थिति में बनाए रखने की तमाम साजिशें रचने तथा उसे अंजाम देने की एक परिपाटी विकसित हुई है। इसमें अल्पसंख्यकों विशेषकर मुस्लिम आबादी को निशाना बनना सबसे ऊपर है। सांप्रदायिक हिंसा से लेकर आतंकवाद के नाम पर बेगुनाह मुस्लिमों को ही प्रताडि़त किया जाता है। इसमें राज्य व्यवस्था की मौन सहमति व उसकी संलिप्तता का एक प्रचलन निरंतर कायम है। राज्य प्रायोजित हिंसा के खिलाफ आंदोलनरत पत्रकार और डाक्यूमेंन्ट्री फिल्म निर्माता राजीव यादव और शाहनवाज आलम राज्य व्यवस्था द्वारा रचित उन्हीं साजिशों का ’ऑपरेशन अक्षरधाम’ किताब से पर्दाफाश करते हैं। यह किताब उन साजिशों का तह-दर-तह खुलासा करती है जिस घटना में छह बेगुनाह मुस्लिमों को फंसाया गया। यह पुस्तक अक्षरधाम मामले की गलत तरीके से की गई जांच की पड़ताल करती है साथ ही यह पाठकों को अदालत में खड़ी करती है ताकि वे खुद ही गलत तरीके से निर्दोष लोगों को फंसाने की चलती-फिरती तस्वीर देख सकें।

<p>देश में कमजोर तबकों दलित, आदिवासी, पिछड़ी जातियों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं को दोयम दर्जे की स्थिति में बनाए रखने की तमाम साजिशें रचने तथा उसे अंजाम देने की एक परिपाटी विकसित हुई है। इसमें अल्पसंख्यकों विशेषकर मुस्लिम आबादी को निशाना बनना सबसे ऊपर है। सांप्रदायिक हिंसा से लेकर आतंकवाद के नाम पर बेगुनाह मुस्लिमों को ही प्रताडि़त किया जाता है। इसमें राज्य व्यवस्था की मौन सहमति व उसकी संलिप्तता का एक प्रचलन निरंतर कायम है। राज्य प्रायोजित हिंसा के खिलाफ आंदोलनरत पत्रकार और डाक्यूमेंन्ट्री फिल्म निर्माता राजीव यादव और शाहनवाज आलम राज्य व्यवस्था द्वारा रचित उन्हीं साजिशों का ’ऑपरेशन अक्षरधाम’ किताब से पर्दाफाश करते हैं। यह किताब उन साजिशों का तह-दर-तह खुलासा करती है जिस घटना में छह बेगुनाह मुस्लिमों को फंसाया गया। यह पुस्तक अक्षरधाम मामले की गलत तरीके से की गई जांच की पड़ताल करती है साथ ही यह पाठकों को अदालत में खड़ी करती है ताकि वे खुद ही गलत तरीके से निर्दोष लोगों को फंसाने की चलती-फिरती तस्वीर देख सकें।</p>

देश में कमजोर तबकों दलित, आदिवासी, पिछड़ी जातियों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं को दोयम दर्जे की स्थिति में बनाए रखने की तमाम साजिशें रचने तथा उसे अंजाम देने की एक परिपाटी विकसित हुई है। इसमें अल्पसंख्यकों विशेषकर मुस्लिम आबादी को निशाना बनना सबसे ऊपर है। सांप्रदायिक हिंसा से लेकर आतंकवाद के नाम पर बेगुनाह मुस्लिमों को ही प्रताडि़त किया जाता है। इसमें राज्य व्यवस्था की मौन सहमति व उसकी संलिप्तता का एक प्रचलन निरंतर कायम है। राज्य प्रायोजित हिंसा के खिलाफ आंदोलनरत पत्रकार और डाक्यूमेंन्ट्री फिल्म निर्माता राजीव यादव और शाहनवाज आलम राज्य व्यवस्था द्वारा रचित उन्हीं साजिशों का ’ऑपरेशन अक्षरधाम’ किताब से पर्दाफाश करते हैं। यह किताब उन साजिशों का तह-दर-तह खुलासा करती है जिस घटना में छह बेगुनाह मुस्लिमों को फंसाया गया। यह पुस्तक अक्षरधाम मामले की गलत तरीके से की गई जांच की पड़ताल करती है साथ ही यह पाठकों को अदालत में खड़ी करती है ताकि वे खुद ही गलत तरीके से निर्दोष लोगों को फंसाने की चलती-फिरती तस्वीर देख सकें।

इस किताब पर अपनी टिप्पणी में वरिष्ठ पत्रकार अनिल चमडि़या कहते हैं कि पूरी दुनिया में ही हिंसा की बड़ी घटनाओं में अधिकतर ऐसी हैं जिन पर राज्य व्यवस्था द्वारा रचित होने का शक गहराया है। लेकिन रहस्य खुलने लगे हैं। राज्य व्यवस्था को नियंत्रित करने वाले समूह अपनी स्वाभाविक नियति को कृत्रिम घटनाओं से टालने की कोशिश करते हैं। वे अक्सर ऐसी घटनाओं के जरिये समाज में धर्मपरायण पृष्ठभूमि वाले लोगों के बीच अपनी तात्कालिक जरूरत को पूरा करने वाला एक संदेश भेजते हैं। लेकिन यह इंसानी फितरत है कि मूल्यों व संस्कृति को सुदृढ़ करने के मकसद से जीने वाले सामान्य जन एवं बौद्धिक हिस्सा उस तरह की तमाम घटनाओं का अंन्वेषण करता है और रचे गए झूठों को नकारने के लिए इतिहास की जरूरतों को पूरा करता है। जिस दिन 16वीं लोकसभा के लिए चुनाव के नतीजे सामने आ रहे थे और नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी को विजयी घोषित किया गया, ठीक उसी दिन सुप्रीम कोर्ट ने अक्षरधाम मंदिर पर हमले मामले में निचली अदालत व उच्च न्यायालय द्वारा दोषी ठहराए गए सभी छह आरोपियों को बरी करने का आदेश दिया। इन छह लोगों को 24 सितंबर 2002 को किए गए अपराध की साजिश का हिस्सा बताया गया था, जिसमें मंदिर परिसर के भीतर दो फिदाईन मारे गए थे। गलत तरीके से दोषी ठहराये गए इन लोंगों में से तीन को मृत्युदंड भी सुनाया जा चुका था।

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भारतीय राजतंत्र की एजेंसियों द्वारा मुसलमानों के उत्पीड़न को दो आयाम हैं। पहला यह कि मुसलमानों के खिलाफ संगीन से संगीन अपराध करने वाले व्यक्ति बिना किसी सजा के खुले घुमते हैं। बमुश्किल ही कोई मामला होगा जिनमें दोषियों को सजा हुई हो। यही वजह है कि जबलपुर से लेकर भिवंडी, अलीगढ़, जमशेदपुर, भागलपुर, मलियाना, हाशिमपुरा, बाबरी मस्जिद और मुंबई जनसंहार तक की लंबी फेहरिस्त इस तथ्य को उजागर करती है कि भारतीय राज्य सत्ता ऐसे अपराधों को अंजाम देने वालों को सजा देने में नाकाम रहने के कारण खुद कठघरे में है।

तथाकथित आतंकवादी मामलों में बरी किए जाने की दर में इजाफा इस बात को पुख्ता करता है कि दरअसल, सारी कवायदों का उद्देश्य ही मुस्लिम समुदाय को निरंतर भय, असुरक्षा और निगरानी में घेरे रखना है। संदिग्ध आधारों पर किसी को दोषी ठहराये जाने की यह कवायद इसलिए जारी रहती है क्योंकि ऐसा करने वालों को कानूनी संरक्षण हासिल है। हमारे लोकतंत्र में अधिकारियों को दंडित किए जाने से छूट मिली हुई है। भले ही भारतीय न्यायपालिका, खासकर उच्च अदालतों ने गलत तरीके से दोषी ठहराये गए लोगों को बरी किया है लेकिन सच्चाई यह है कि ऐसे लोगों को अपनी आजादी वास्तव में कई बरस बाद मिल पाती है। कभी कभार तो एकाध दशक बाद यह आजादी हासिल हो पाती है। यानी वे ऐसे अपराध के लिए कैद रहते हैं जो उन्होंने कभी किया ही नहीं। और वे तब तक कैद में रहते हैं जब तक कि अदालतें उन्हें बरी करने का फैसला न लें या फिर जैसा कि होता है, वे उस अपराध के लिए लगातार सजा भोगते रहते हैं जो उन्होंने कभी किया ही नहीं।

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हमारी जिम्मेदारी बनती है कि हम पलट कर अक्षरधाम मामले को दोबारा देखें। यह समझें कि कैसे इस मामले में जांच की गई या की ही नहीं गई। अक्षरधाम मंदिर पर हमला 24 सितंबर 2002 को हुआ था जब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे और केंद्र में भाजपा नेतृत्व वाली एनडीए की सरकार थी। मामला सबसे पहले अपराध शाखा को सौंपा गया लेकिन जल्दी ही इसे गुजरात एटीएस के सुपुर्द कर दिया गया क्योंकि इसे आतंकी मामला करार दे दिया गया था। एटीएस साल भर मामले को सुलझा नहीं पाई। जिसके बाद इसे वापस अपराध शाखा को भेजा गया। इस बार मामला हाथ में आने के 24 घंटे से कम समय में ही शाखा ने चमत्कारिक तरीके से दावा कर डाला कि यह साजिश 2002 में गुजरात में हुए मुसलमानों के संहार का बदला लेने के लिए सउदी अरब में रची गई थी। इस मामले में जांच अधिकारी जीएल सिंघल ने, जो कई फर्जी मुठभेड़ों के मामलों में जमानत पर रिहा होने के बाद हाल ही में पदस्थापित किए गए हैं, ने 25 सितंबर 2002 को अक्षरधाम हमला मामले की एफआईआर दर्ज कराई थी जिसमें मारे गए दोनों फिदाईन की पहचान और राष्ट्रीयता दर्ज नहीं थी।

हालांकि अक्टूबर 2002 में समीर खान पठान, जो कि एक मामूली चेन छिनैत से ज्यादा कुछ नहीं था, मुठभेड़ मामले में दर्ज एफआईआर में पुलिस ने लिखा था कि समीर खान पठान नरेंद्र मोदी जैसे प्रमुख नेताओं और अक्षरधाम जैसे हिन्दू मंदिरों को निशान बनाने की एक पाकिस्तानी साजिश का हिस्सा था। चूंकि बाद में सिंघल समेत कई पुलिस अधिकारियों पर पठान और अन्य को मुठभेड़ों में की गई हत्याओं के सिलसिले में मुकदमा कायम हुआ। इसलिए एफआईआर लिखने के आधार की सत्यता पर संदेह खड़ा होता है। जैसा दिख रहा था मामला उससे कुछ और गंभीर था। यहां तक कि अक्षरधाम मामले में यह बात भी कही जा सकती है जिसकी जांच सिंघल समेत दो और पुलिसकर्मियों डीजी वंजारा और नरेंद्र अमीन के जिम्मे थी। जिन्हें बाद में फर्जी मुठभेड़ मामले में दोषी ठहराया गया।

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यह पुस्तक अक्षरधाम मामले का अनुसंधानपरक और मुक्कमल पर्दाफाश है। इस पुस्तक में हर एक पन्ना विवरणों से भरा हुआ है जो बिल्कुल साफ करता है कि कैसे अक्षरधाम मामले की जांच फर्जी तरीके से की गई। जांच से पहले कैसे निष्कर्ष निकाल लिए गए और खुद को आश्वस्त कर लिया गया कि मुकदमा चाहे कितना भी बेमेल या असंतुलित हो, लेकिन सभी छह आरोपी कई साल तक जेल में ही सड़ते रहेंगे। मसलन, जिस चिट्ठी के मामले का जिक्र है जिसे एक आतंकवावादी की जेब से बरामद दिखाया गया था, वह चमात्कारिक ढंग से बिल्कुल दुरुस्त थी जबकि उसका शरीर खून से लथपथ, क्षतिग्रस्त था। लेकिन चिट्ठी पर कोई दाग.धब्बा या शिकन नहीं था। इतना ही नहीं तत्कालीन गृह मंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने दावा किया था कि घटना के चश्मदीद मंदिर के एक पुजारी ने उन्हें निजी तौर पर बताया था कि फिदाईन सादे कपड़े में थे जबकि पुलिस ने अदालत में सबूत दिया कि वे वर्दीनुमा कपड़े में थे। जब एक आरोपित यासीन बट्ट जम्मू कश्मीर पुलिस की हिरासत में था, तो गुजरात पुलिस ने यह दावा क्यों किया कि वह उसका सुराग नहीं लगा पाई? मामले की चार्जशीट में सारी गड़बडि़यां शामिल हैं।

यह पुस्तक दिखाती है कि कैसे सैकड़ों मुसलमानों को उठाकर ऐसे ही अलग.अलग किस्म के आतंकी मामलों में फंसाया गया। पुस्तक इसका भी पर्दाफाश करती है कि कैसे निचली आदलत और गुजरात हाईकोर्ट ने तमाम असंबद्धताओं और असंभावनाओं को दरकिनार करते हुए छह लोगों को दोषी ठहराया और इनमें से तीन को मौत की सजा सुना दी। इन छह आरोपितों के बरी हो जाने के बावजूद 12 साल तक इन्हें इनकी आजादी से महरूम रखने, प्रताडि़त करने और झूठे सबूतों को गढ़ने के जिम्मेदार लोग झूठा मुकदमा कायम करने के अपराध में सजा पाने से अब तक बचे हुए हैं। यहीं से यह तर्क निकलता है कि अक्षरधाम हमले का मामला कोई अलग मामला नहीं था बल्कि सिलेसिलेवार ऐसे मामलों की महज एक कड़ी थी जिससे मुसलमानों के खिलाफ संदेह पैदा किया गया और आतंकवावाद से लड़ने की खोल में राज्य को बहुसंख्यकवाद थोपने का बहाना मिला। इसके अलावा राजनैतिक रंजिशों को निबटाने का भी यह एक बहाना था। हरेन पांड्या का केस इसका एक उदाहरण है। मसलन, सवाल यह है कि अक्षरधाम मंदिर के महंत परमेश्वर स्वामी की मौत कैसे हुई? पहली चार्जशीट कहती है कि महंत मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलने के लिए मंदिर परिसर से बाहर गए और वापसी में तथाकथित आतंकी हमले में मारे गए। फिर इस तथ्य को दूसरी चार्जशीट में से क्यों हटा लिया गया?

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शरणार्थी शिविरों में काम कर रहे मुस्लिमों या इन शिविरों को आर्थिक मदद दे रहे प्रवासी गुजराती मुस्लिमों पर गुजरात पुलिस की विशेष नजर थी और इन्हें बड़े पैमाने पर गिरफ्तार किया गया। तो क्या मुस्लिमों का खुद को बचाना कोई नाराजगी या पीड़ा से उपजे उन्माद का सबब रहा? आखिर इतनी बड़ी संख्या में ऐसे मुस्लिमों को ही आतंकी मामलों में क्यों फंसाया गया? पोटा अलदालत द्वारा दोषी करार दिए गए प्रत्येक छह व्यक्तियों मुफ्ती अब्दुल कय्यूम, आदम अजमेरी, मौलवी अब्दुल्लाह, मुहम्मद सलीम शेख, अल्ताफ हुसैन मलिक और चांद खान की दास्तानें किसी डरावनी कहानी की तरह हमारे सामने आती हैं। तीन मुफ्ती मुहम्मद कय्यूम, चांद खान और आदम अजमेरी को मृत्युदंड सुनाया गया। सलीम को आजीवन कारावास, मौलवी अब्दुल्लाह को 10 साल की कैद और अल्ताफ को 5 साल का कारावास। अदालती कार्यवाहियां स्पष्ट करती हैं कि कानून का राज निरंकुशता के जंगल राज में बड़ी आसानी से कैसे तब्दील किया जा सकता है। निचली अदालतों और उच्च न्यायालयों के फैसले की आलोचना में सुप्रीम कोर्ट के वाजिब तर्क इस रिपोर्ट की केंद्रीय दलील को विश्वसनीयता प्रदान करते हैं कि मुसलमानों के साथ हो रहा भेदभाव संस्थागत है, जहां अधूरे सच, नकली सबूतों और अंधी आस्थाओं की भरमार है। हमारे राजतंत्र और समाज के भीतर जो कुछ गहरे सड़.गल चुका है, जो भयंकर अन्यायपूर्ण और उत्पीड़क है, अक्षरधाम मामले पर यह बेहतरीन आलोचनात्मक विश्लेषण उस तस्वीर का एक छोटा सा अक्स है।

पुस्तक-ऑपरेशन अक्षरधाम (हिन्दी एवं उर्दू)
मूल्य- 250 रुपए
लेखक- राजीव यादव, शाहनवाज आलम
प्रकाशक- फरोस मीडिया एंड पब्लिशिंग प्राइवेट लिमिटेड

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किताब समीक्षक वरुण शैलेश से संपर्क 09971234703 के जरिए किया जा सकता है.

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