बूढ़ी माताएं यूं ही नहीं वृंदावन के वृद्धाश्रमों में चली आती हैं… बूढ़ी आखों को आपमें अपने बेटा या बेटी की परछाईं दिख गयी तो आप इनके दर्द को सहन न कर पाएंगे
पिछले बरस, अपने पैरों पर खड़ी एक नामी अभिनेत्री ने वृन्दावन के आश्रय सदनों में वृद्ध माताओं की भीड़ पर कहा था कि ‘ये घर छोड़कर यहां आती ही क्यूं हैं?’ उनके इस बयान पर काफी हो-हल्ला मचा। विपक्षी पार्टियों से लेकर आधुनिक समाजसेवी तबके तक से उनके विरोध में आवाजे आयीं। इन आवाजों के बीच उन बंगाली विधवाओं ने भी अपनी बात कही जिनके बारे में वो खुद और लोग कहते हैं कि भगवान की भक्ति के लिये वह वृन्दावन आकर आश्रय सदनों में रहती हैं।
सबकी अपनी-अपनी कहानी है, बहुत सारी बातें हैं जिन्हें सोचकर सिवाय आंसुओं के उन्हें कुछ मिलता भी नहीं है। इसलिये सबकुछ भगवान के नाम छोड़कर भगवान के धाम में भक्ति का आश्रय ले रखा है। अकेली जान की गुजर बसर जैसे-तैसे हो ही जाती है। सरकार से मदद मिलती है तो समाजसेवी संस्थाओं से भी कुछ ना कुछ दान मिलता रहता है।
इनमें से अधिकांश मातायें भजन-पूजा के बाद समूह में मथुरा-वृन्दावन की गलियों में भिक्षाटन के लिये निकलती हैं। 25-50 पैसे भले ही चलन से बाहर हो गये हों लेकिन आज भी ऐसी ‘माई’ के लिये दुकानों पर इन्हें बचाकर रखा जाता है। अगर दुकानदार ने एक रूपया देकर कह दिया कि तीनों आपस में बांट लेना तो बड़ी ईमानदारी से उस एक रूपये के तीन हिस्से हो जाते हैं। एक माई प्रसन्नता से कहती है कि शाम तक बीस-तीस रूपये हो जाते हैं। लोग जानते हैं कि इस तेज दुनियां में बीस-तीस रूपये का होना और ना होना एक बराबर है। एकबारगी लगता है कि इन्हें भीख मांगने की आवश्यकता भी क्यूं है। जिन्दगी की जरूरतों का इन्तजाम बड़े आराम से तो हो जाता है। बुढ़ापे में और चाहिये भी क्या? हालांकि इन माताओं के पास इसके अपने जवाब हैं। इनमें से एक जवाब था कि ‘समय काटने और शरीर चलते रहने के लिये भीख मांगने जाना जरूरी लगता है।’ वैसे उन्हें इस बुढ़ापे में कुछ नहीं चाहिये।
लेकिन क्या वास्तव में बुढ़ापे में और कुछ नहीं चाहिये। क्या वृद्धावस्था में रहने-खाने की जरूरतें पूरी होना ही बहुत है। क्या भगवान की भक्ति के लिये विधवा महिलायें और वृद्ध पुरूष अपने नाती-पोते, बेटा-बेटी और परिवार को छोड़कर घर से दूर रहने चले आते हैं? क्या वृन्दावन में सड़क किनारे मिलने वाले भिखारियों का कोई परिवार नहीं होता । होता होगा शायद! वृन्दावन की बात छोड़ दें, बड़े शहरों में रोज बन रहे वृद्धाश्रमों में सम्पन्न बुजुर्ग महिला और पुरूषों की भीड़ क्यूं बढ़ती दिखती है। क्या वे भी प्रभु की भक्ति करने जाते हैं? क्या वास्तव में बुजुर्ग हो जाने पर व्यक्ति को परिवार की जरूरत नहीं रह जाती । या फिर वे राजाओं की तरह सन्यास आश्रम का पालन करने के लिये घर छोड़ देते हैं।
लोग पूछते हैं, आप भी पूछ लीजियेगा, वैसे वो आसानी से बतायेंगे नहीं। पर सावधान रहियेगा, अगर उन्हें आपकी बातों में अपनेपन की गन्ध आ गयी या फिर आपके चेहरे पर उन बूढ़ी आखों को अपने बेटा या बेटी की परछाईं दिख गयी तो आप उस बूढ़ी काया के दर्द को सहन नहीं कर पायेंगे। सूख चुके आसुओं से चिपकी आखों में आपको उस अम्मा या बाबा का पूरा परिवार दिखायी देगा। वो बतायेंगे आपको कि उन्हें असली ‘कन्हैया’ उनके पोता या पोती में दिखता है जिसे वो रोज अपनी गोद में खिलाना चाहते हैं। उनका मन भक्ति से ज्यादा अपने बेटे की चिंता में लगता है। घर से दूर वे बिल्कुल खुश नहीं हैं। वो अपने पूरे परिवार को बहुत याद करते हैं। बस, परिवार ने उन्हें याद नहीं रखा है।
परिवार से दूर रहना कोई आसान काम नहीं है भाईसाहब, प्रत्येक व्यक्ति अपना आखिरी वक्त अपने परिवार को देखते हुये काटना चाहता है। वृन्दावन जैसे तीर्थस्थलों में अज्ञात भिखारियों की मृत्यु भगवान की गोद से ज्यादा इस बात को दशार्ती है कि उस वृद्ध या वृद्धा को उसके बेटे का कन्धा मयस्सर नहीं हुआ जिसके पालन-पोषण में उसने अपनी जवानी के दिन-रात एक कर दिये थे। जीवन के अन्तिम पड़ाव में साथी छूटने का गम कितना बड़ा होता है, इस बारे में वे लोग ही बता सकते हैं जो इस स्थिति में हैं। चाहे पति हो या पत्नि, एकाकी जीवन बहुत कठिन होता है। तब जीने का एकमात्र सहारा उसके बच्चे होते हैं।
टूटे हुये इंसान के दिल पर क्या बीतती होगी जब उसके अपने खून के कतरे उसके साथ अन्जानों जैसा व्यवहार कर जाते हैं। अपने दिल की छोटी सी बात अपने जीवन साथी को बता देने वाला बुजुर्ग, उन बच्चों के तीखे तानों और गैरपन के अहसास को दिल के किस कोने में छुपाता है, कैसे छुपाता है यह वह खुद भी जान नहीं पाता। अपने बच्चों पर अपना अधिकार समझ डांट देने वाले माता-पिता को जब जवाब मिलना शुरू हो जाता है तब उसका स्वाभिमान क्षार-क्षार हो जाता हो जाता होगा। बूढ़ी मातायें यूं ही नहीं वृन्दावन जैसी जगहों पर चली आतीं, कोई बुलाता नहीं है यहां। आश्रय सदनों में रहकर भी वे इन्तजार करती रहती हैं कि उनके घर से कोई उनको ससम्मान बुलाने आ जाये कि उन्हें अपनी मां की जरूरत है। पर दुखद है कि आज की औलाद ‘मां-बाप’ की इज्जत तब तक ही करती है जब तक कि उनसे कुछ प्राप्ति होती रहे।
दुनिया की दौड़ में आगे निकलने की होड़ लगा रहे युवा पता नहीं क्यूं इतने पत्थरदिल हो जाते हैं कि वे उन्हें भूल जाते हैं जिन्होंने उसे दो कदम चलने के काबिल बनाया था। किसी ने कहा था कि वृद्धाश्रम बनाये ही क्यूं जाते हैं? हकीकत में वृद्धाश्रम का बनना उस समाज के मुंह पर तमाचा है जो इंसानियत और संस्कारों की जिम्मेदारी लेता है। ‘औल्ड एज होम्स’ में रहने वाले बुजुर्गों का भी परिवार होता है, उनके होनहार बेटे ऐसे वृद्धाश्रम के खर्चे तो उठा सकते हैं लेकिन उनसे अपने मां-बाप का बुढ़ापा सहन नहीं होता। लोग भले ही बेटों को इस स्थिति के लिये दोष दें लेकिन हकीकत में बुजुर्गों की इस बेकदरी के लिये वो बेटियां भी कम दोषी नहीं जो उनके बेटों की हमसफर होती हैं।
सवाल ये है कि हम किस दिशा में जा रहे हैं। क्या बड़े होते-होते हमारी मानवीय संवेदनाये इतनी गिर जाती हैं कि हम अपने माता-पिता के बुढ़ापे का सहारा भी नहीं बन सकते? उनकी खिन्नता, चिड़चिड़ाहट, कम सुनना, देर से समझना जैसी शारीरिक अक्षमतायें क्या वाकई हमें इतना क्रूर बना देती हैं कि हमें वे एक बोझ लगने लगते हैं? क्या वास्तव में वृद्धाश्रमों में रहने वाले हमारे माता-पिता हमसे दूर रहकर ज्यादा खुश रहते हैं? क्या हमारे बच्चों पर उनका अधिकार नहीं है, क्या हम पर उनका कोई अधिकार नहीं है? क्या वे हमें छोड़ना चाहते हैं, क्या हम बूढ़े ना होगें?
नहीं, एैसा नहीं है। यकीन मानिये हमारे माता-पिता चाहें कितने भी भगवान के बड़े भक्त हो जायें लेकिन फिर भी वे हमें छोड़कर जाना नहीं चाहते। उन्हें सबसे ज्यादा खुशी अपने बच्चों के साथ रहने में मिलती है। शरीर हमारा भी बदलेगा, आज चल रहा है, समय गुजरेगा तो वही सारी अक्षमतायें हमारें शरीर में भी आयेंगी। यह निश्चित है, तब फिर क्यूं ना हम उन्हें अपने सीने से लगाकर रखें। हमारे माता-पिता हमारा अभिमान होने चाहिये, उनकी डांट में भी हमारा सम्मान है। उनकी खिसियाहट में भी हमारा भला है। उनके त्याग का इससे बड़ा सबूत और क्या होगा कि हमारी खुशी के लिये ही वे वृद्धाश्रम जैसी उस अन्जान जगह चले जाते हैं जिसके बारे में उन्होंने कभी सोचा भी ना था। फिर भी वृद्धाश्रम में रहने वाले फरिश्तों की पीड़ा ना समझ पायें हों तो बस इतना महसूस करके देख लीजियेगा कि आप अभी अपने बच्चों को इस स्वार्थी दुनिया में छोड़कर जाने में कितना खुश होंगे।
इस दिशा में यू.पी. की अखिलेश सरकार की एक नयी योजना बहुत लाभकारी हो सकती है। सरकार की योजना है कि आगे अनाथ आश्रम और वृद्धाश्रम एक साथ बनाये जायेंगे जिससे कि अनाथ बालकों को बुजुर्गों से ममता-दुलार मिल सके और वृद्धों को कोई अपना मानने-कहने वाला मिल जाये। निश्चित ही इस पहल से निराश्रित वृद्धों के जीवन में भी कुछ खुशियां लौट सकेंगी।
जगदीश वर्मा ‘समन्दर’
[email protected]
9319903380
दिलीप
March 19, 2016 at 1:20 pm
Best writeup
Rahi MK
March 19, 2016 at 2:46 pm
Bhai Samandar ji, apka dil aur lekhni to wakai samandar jaisi hai. Behad Umdaa lekh likha hai aapney unn Boodhey Mata-Pitaon per. Pataa nahi, Unn Beton aur Betiyon ko kaise samjhaya jaye ki wey bhi ek din Boodhey hongey. Aise bachchon ko unkey bachchey bhi issi tarah Brindavan ki galiyon me chhod denge tab pataa chalega….
jagdish samandar
March 20, 2016 at 6:08 am
prkashan k liye, yasvant ji ka hardik aabhaar…………..