नैनीताल से प्रयाग पाण्डे
बसंत और फूल एक-दूसरे के पूरक हैं। जहां फूल हैं, वहां बारहों महीने बसंत है। बसंत है, तो फूल हैं। फूल बसंत ऋतु के द्योतक है। वनों को प्रकृति का श्रृंगार कहा जाता है। वनों के श्रृंगार से आच्छादित प्रकृति बसंत ऋतु में रंग-बिरंगे फूलों के नायाब गहनों से सज-संवर जाती है। फूलों का यह गहना प्रकृति के सौंदर्य में चार चांद लगा देता है। फूल को सौन्दर्य, कमनीयता, प्रेम, अनुराग और मासूमियत का प्रतीक माना जाता है। फूल का रंग उसकी सुन्दरता को बढा़ता है। प्रकृति के हरे परिवेश में सूर्ख लाल रंग के फूल खिल उठे हों तो यह दिलकश नजारा हर किसी का मन मोह लेता है।
उत्तराखण्ड के हरे-भरे जंगलों के बीच चटक लाल रंग के बुरांश के फूलों का खिलना पहाड़ में बसंत ऋतु के यौवन का सूचक है। बसंत के आते ही इन दिनों पहाड़ के जंगल बुरांश के सूर्ख लाल फूलों से मानो लद गये है। बुरांश बसन्त में खिलने वाला पहला फूल है। बुरांश ने धरती के गले को पुष्पाहार से सजा सा दिया है। बुरांश के फूलने से प्रकृति का सौंदर्य निखर उठा है।
बुरांश जब खिलता है तो पहाड़ के जंगलों में बहार आ जाती है। घने जंगलों के बीच अचानक चटक लाल बुराँश के फूल के खिल उठने से जंगल के दहकने का भ्रम होता है। जब बुराँश के पेड़ लाल फूलों से ढक जाते है तो ऐसा आभास होता है कि मानो प्रकृति ने लाल चादर ओढ़ ली हो। बुराँश को जंगल की ज्वाला भी कहा जाता है। उत्तराखण्ड के सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में बुराँश की महत्ता महज एक पेड़ और फूल से कहीं बढ़कर है। बुराँश उत्तराखण्ड के लोक जीवन में रचा-बसा है। बुराँश महज बसंत के आगमन का सूचक नहीं है, बल्कि सदियों से लोक गायकों, लेखकों, कवियों, घुम्मकड़ों और प्रकृति प्रेमियों की प्रेरणा का स्रोत रहा है। बुराँश उत्तराखण्ड के हरेक पहलु के सभी रंगों को अपने में समेटे है।
हिमालय के अनुपम प्राकृतिक सौंदर्य का वर्णन, प्रियसी की उपमा, प्रेमाभिव्यक्ति, मिलन हो या विरह सभी प्रकार के लोक गीतों की भावाभिव्यक्ति का माध्यम बुराँश है। उत्तराखण्ड के कई लोक गीत बुराँशके इर्द-गिर्द रचे गये है। विरह गीतों की मुख्य विषय-वस्तु बुराँश ही है। पहाड़ में बुराँशके खिलते ही कई भूले-बिसरे लोक गीत एकाएक स्वर पा जाते है- ”उ कुमू य जां एक सा द्यूं प्यार सवन धरती मैं, उ कुमू य जां कुन्ज, बुंरूस, चम्प, चमेलि, दगडै़ फुलनी।”
बुराँश का खिलना प्रसन्न्ता का द्योतक है। बुराँश का फूल यौवन और आशावादिता का सूचक है। प्रेम और उल्लास की अभिव्यक्ति है। बुराँश का फूल मादकता जगाता है। बुराँश का गिरना विरह और नश्वरता का प्रतीक है। बुराँश रहित जंगल कितने उदास और भावशून्य हो जाते है। इस पीडा़ को लोकगीतों के जरिये बखूबी महसूस किया जा सकता है। बसन्त ऋतु में जंगल को लाल कर देने वाले इस फूल को देखकर नव विवाहिताओं को मायके और रोजी-रोटी की तलाश में पहाड़ से पलायन करने को अभिशप्त अपने पति की याद आ जाती है। अपने प्रियतम् को याद कर वह कहती है- ”अब तो बुरांश भी खिल उठा है, पर तुम नहीं आए।”
बुरांश के फूल में हिमालय की विराटता है। सौंदर्य है। शिवजी की शोभा है। पार्वती की झिलमिल चादर है। शिवजी सहित सभी देवतागण बुराँश के फूलों से बने रंगों से ही होली खेलते है। लोक कवि चारू चन्द्र पाण्डे ने लिखा यह बुराँश आधारित होली गीत लोक जीवन में बुराँश की गहरी पैंठ को उजागर करता है- ”बुरूंशी का फूलों को कुम-कुम मारो, डाना-काना छाजि गै बसंती नारंगी। पारवती ज्यूकि झिलमिल चादर, ह्यूं की परिन लै रंगै सतरंगी। लाल भई छ हिमांचल रेखा, शिवजी की शोभा पिङलि दनिकारी। सूरजा की बेटियों लै सरग बै रंग घोलि, सारी ही गागरि ख्वारन खिति डारी…।”
बुरांश ने लाल होकर भी क्रान्ति के गीत नहीं गाए। वह हिमालय की तरह प्रशंसाओं से दूर एक आदर्शवादी बना रहा। फिर भी बुरांश ने लोगों को अपनी महिमा का बखान करने पर मजबूर किया है। बुराँश ने लोक रचनाकारों को कलात्मक उन्मुक्तता, प्रयोगशीलता और सौंदर्य बोध दिया। होली से लेकर प्रेम, सौंदर्य और विरह सभी प्रकार के लोक गीतों के भावों को व्यक्त करने का जरिया बुराँश बना।
पहाड़ के लोक गीतों में सबसे ज्यादा जगह बुराँश को ही मिली है। एक पुराने कुमाऊँनी लोक गीत में जंगल में झक खिले बुराँश को देख मॉ को ससुराल से अपनी बिटिया के आने का भ्रम होता है। वह कहती है – ”वहॉ उधर पहाड़ के शिखर पर बुरूंश का फूल खिल गया है। मैं समझी मेरी प्यारी बिटिया हीरू आ रही है। अरे! फूले से झक-झक लदे बुरूंश के पेड़ को मैंने अपनी बिटिया हीरू का रंगीन पिछौडा़ समझ लिया।” गढ़वाल के प्रसिद्व कवि चन्द्रमोहन रतूडी़ ने नायिका के होठों की लालिमा का जिक्र कुछ यूं किया है – ”चोरिया कना ए बुरासन आंेठ तेरा नाराणा।” यानि – ”बुराँश के फूलों ने हाय राम तेरे ओंठ कैसे चुरा लिये।” संस्कृत के अनेक कवियों ने बुराँश की महिमा को लेकर श्लोकों की रचना की है।
छायावादी कवि सुमित्रा नन्दन पंत भी बुराँश के चटक रंग से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। उन्होंने बुराँश पर यह कुमाऊँनी कविता लिखी थी – ”सार जंगल में त्वीं जस क्वें न्हॉ रें क्वें न्हॉ। फूलन छे के बुरूंश जंगल जस जली जां। सल्ल छ, दयार छ, पई छ, अंयार छ। सबनाक फागन में पुग्नक भार छ। पे त्वी में ज्वानिक फाग छ। रंगन में त्यार ल्वे छ, प्यारक खुमार छ।” भावार्थ यह कि – “सारे जंगल में तेरा जैसा कोई नहीं रे, कोई नहीं। जब तू फूलता है, जंगल के जलने का भ्रम होता है। जंगल में साल है, देवदार है, पईया है, और अयार समेत विभिन्न् प्रजातियों के पौधें है। सबकी शाखाओं में कलियों का भार है। पर तुझमें जवानी का फाग है। तेरे रंगों में लौ है, प्यार का खुमार है।”
पहाड़ के रोजमर्रा के जीवन में बुराँश किसी वरदान से कम नहीं है। बुराँश के फूलों का जूस और शरबत बनता है। इसे हृदय रोग और महिलाओं को होने वाले सफेद प्रदर रोग के लिए रामबाण दवा माना जाता है। बुराँश की पत्तियों को आयुर्वेदिक औषधियों में उपयोग किया जाता है। बुराँश की लकडी़ स्थानीय कृषि उपकरणों से लेकर जलावन तक सभी काम आती है। चौडी़ पत्ती वाला वृक्ष होने के नाते बुराँश जल संग्रहण में मददगार है। पहाडी़ इलाकों के जल स्रोतो को जिंदा रखने में बुराँश के पेडा़े का बडा़ योगदान है। इनके पेडा़े की जडे़ भू-क्षरण रोकने में भी असरदार मानी जाती है। बुराँश का खिला हुआ फूल करीब एक पखवाड़े तक अपनी चमक बिखेरता रहता है। बाद में इसकी एक-एक कर पंखुड़िया जमीन पर गिरने लगती है। पलायन के चलते वीरान होती जा रही पहाड़ के गॉवों की बाखलियों की तरह।
भारत में बुरांश के पेड़ उत्तराखण्ड और हिमांचल प्रदेश में 1800-3600 मीटर की मध्यम ऊँचाई वाले मध्य हिमालयी क्षेत्र में पाये जाते है। उत्तराखण्ड सरकार ने बुरांश को राज्य वृक्ष घोषित किया है। नेपाल में बुरांश के फूल को राष्ट्रीय फूल का औहदा हासिल है। बुराँश सदाबहार पेड़ है। बुराँश के पेड़ भारत के अलावा नेपाल, बर्मा, श्रीलंका, तिब्बत, चीन, जापान आदि देशों में पाये जाते है। अंग्रेज इसे रोह्डोडेन्ड्रान कहते है। इस पेड़ की विश्व में छःह सौ से ज्यादा प्रजातियों का पता चल चुका है। प्रजाति और ऊँचाई के आधार पर बुराँश के फूलों का रंग भी अलग-अलग होता है। सूर्ख लाल, गुलाबी, पीला और सफेद। ऊँचाई बढ़ने के साथ बुराँश का रंग भी बदलता रहता है। कम ऊँचाई वाले इलाकों में बुराँश के फूल का रंग लाल होता है। जबकि अधिक ऊँचाई वाले इलाकों में बुराँश के फूल का रंग सफेद होता है।
दुर्भाग्य से पहाड़ में बुराँश के पेड़ तेजी के साथ घट रहे हैं। अवैध कटान के चलते कई इलाकों में बुराँश लुप्त होने के कगार पर पहुॅच गया है। नई पौधंे उग नहीं रही है। जानकारों की राय में पर्यावरण की हिफाजत के लिए बुराँश का संरक्षण जरूरी है। अगर बुराँश के पेड़ों के कम होने की मौजूदा रफ्तार जारी रही तो आने वाले कुछ सालों के बाद बुराँश खिलने से इंकार कर देगा। नतीजन आत्मीयता के प्रतीक बुरांश के फूल के साथ पहाड़ के जंगलों की रौनक भी खत्म हो जाएगी। बुरांश सिर्फ पुराने लोकगीतों में ही सिमट कर रह जाएगा। बसंत ऋतु फिर आएगी। बुरांश विहीन पहाड़ में बसंत के क्या मायने रह जाएंगे। नीरस और फीका बसंत।
प्रयाग पाण्डे
वरिष्ठ पत्रकार, नैनीताल
संपर्क : [email protected]
virendra
April 8, 2016 at 8:20 am
photo galat dali hai buras ke ped ki nahi hai
Govind Singh
April 8, 2016 at 9:44 am
पांडे जी ने सही लिखा है कि बुरांस बिन वसंत की कल्पना भी नहीं की जा सकती. बुरांस के घटने की सबसे बड़ी वजह है चीड़ का विस्तार. पहले चीड़ तीन हजार फुट ऊंचाई तक होता था. बुरांस या बांज वनों तक उसकी पहुँच नहीं थी. लेकिन अब चीड़ छः हजार फुट ऊंचाई तक पहुँच गया है. वह लगातार ऊंचाई की ओर बढ़ रहा है. साथ ही तमाम पारंपरिक वनस्पतियों को निर्मूल कर रहा है. सरकार और वन विभाग तो चाहते ही यही हैं, ताकि उन्हें लकड़ी बेचने को मिले. लेकिन क्या हम पहाड़ वासियों को चुपचाप देखते रहना चाहिए? हमें हर हाल में साम्राज्यवादी चीड़ को रोकना होगा और पहाड़ को बचना होगा.
Govind Singh
April 8, 2016 at 9:45 am
आपने ऊपर जो चित्र लगा रखा है, वह बुरांस तो नहीं है.