संजय कुमार सिंह-
सीबीआई ने वैज्ञानिक को बिना किसी प्रधान सेवक के ‘छू’ किए ऐसे फंसा दिया था तो ‘छू’ करने के बाद क्या होता होगा, कल्पना कीजिए। रिया चक्रवर्ती और आर्यन खान के मामले में फिर भी कुछ नहीं मिला। ऐसे में जहां-जो मिला उसकी सत्यता 30 साल बाद मालूम होगी अगर पीड़ित इसरो वैज्ञानिक नंबी नारायण की तरह मजबूत जीवट का हुआ। आम आदमी कहां इतनी देर तक टिक पाता है।
धन्य है अपना देश और यहां के चोर व ईमानदार दोनों। यह खबर आज द हिन्दू में नई दिल्ली से बाईलाइन है। बहुत सारे अखबार राजा का बाजा बजा रहे हैं। इसरो के वैज्ञानिक को जासूसी के फर्जी मामले में फंसाने की यह घटना 1994 की है। मेरे ख्याल से इसपर कुछ किताबें भी आई थीं। अखबारों की खबरों की क्या बात करें।
रिपोर्टिंग ढंग से होती तो उसी समय पता चल जाना चाहिए था कि मामला फर्जी है। लेकिन व्यवस्था ऐसी है कि इस मामले के दोषियों को जमानत मिल गई लेकिन जो कह रहा है कि उसके कंप्यूटर में फर्जी सबूत प्लांट करके उसे फंसाया गया है – उसकी कोई सुन नहीं रहा है।
सीबीआई महाबेशर्म एजेंसी है। अधिकार से लबालब, शुरू से पगलाई हुई है। कितने मामले हैं, नहीं सुधरी अब क्या सुधरेगी। किसी भी मामले में इसकी जांच संतोषजनक और रहस्य पर से पर्दा उठाने वाली नहीं रही। इसका राजनीतिक उपयोग ही होता रहा है। आयुषी की हत्या घर में हुई, उसके माता-पिता दोनों घर में थे, पॉलिग्राफिक टेस्ट के बावजूद क्या हुआ था पता नहीं चला। कहानी जो भी आई, संतोषजनक नहीं है। गवाहों-सबूतों से पुष्ट नहीं होती है।
बहुत शुरुआती मामलों में है इंदिरा गांधी की गिरफ्तारी। उसपर एनके सिंह की किताब है। मैंने अनुवाद किया है। उसमें संदर्भ है कि इंदिरागांधी को गिरफ्तार कर फरीदाबाद ले जाया जा रहा था। उन दिनों रेलवे क्रॉसिंग पार करना होता था और इंदिरा गांधी क्रॉसिंग पर धरने पर बैठ गईं। उनके वकीलों ने कहा कि बिना अदालत की इजाजत के दिल्ली से बाहर नहीं ले जा सकते। तब काफिला दिल्ली लौटा। उन्हें किंग्सेव कैंप के पास दिल्ली पुलिस के गेस्ट हाउस में रखा गया। चले थे इंदिरा गांधी को गिरफ्तार करने। सत्ता में थी नहीं और सत्ता का समर्थन था तो ये भी नहीं देखा कि रेलवे क्रासिंग पार नहीं कर पाएंगे। बेइज्जती तो तब से हो रही है। लेकिन किसी को इस एजेंसी की इज्जत बख्शने की चिन्ता नहीं है। मोदी सरकार ने इसे पट्टे वाले कुत्ते से ज्यादा नहीं छोड़ा है।
इसरो जासूसी कांड पर मुझे तीन किताबें मिलीं, पहली में घटना का खुलासा है, आरोपों की मजबूती है, दूसरी में बताया गया है कि मामला उल्टा पड़ा और तीसरी में पीड़ित का पक्ष है। तीनों तीन जनों ने लिखी है। सब मिलाकर मामला बहुते दिलचस्प लगता है। केरल का है सो विदेशी और अर्बन नक्सली से जुड़ा भी हो सकता है। अपने लिए तो मैं किताबें पढ़ लूंगा, कुछ काम लायक लगा तो आपको बता भी दूंगा पर व्यवस्था कहां हैं। दोषियों को सजा के मामले में इतनी देर क्यों हो रही है। जमानत तो उन्हें भी मिल ही गई थी। क्या इधर बलात्कार उधर जासूसी के आरोप लगाना – एक जैसा मामला है। पर दोनों तरफ शांति क्यों है?
दूसरी ओर, तीन किताबों में पहली के लेखक का कहना था (2013 में) कि मामला सीआईए से जुड़ा हुआ है। प्रकाशक को धमकाया गया और सारी किताबें गायब हो गईं। प्रकाशक ने कहा कि मैंने तो पैसे लगाए थे, कमाने के लिए। किताब बिकी नहीं, मेरे पास (धमकाने के लिए) किसी का फोन नहीं आया। दिलचस्प यह है कि एक नागरिक को व्यवस्था द्वारा इस तरह फंसाए और परेशान किए जाने के मामले में (सीआईए का हाथ हो तो भी) ईमानदारों और सेवकों की बदली हुई व्यवस्था को कोई मतलब नहीं है।
आतंकवाद पर लंबी-चौड़ी फेंकने वाले सीआईए के इस मामले में चुप क्यों हैं और अगर फंसाया ही गया था तो नागरिक को न्याय कैसे मिलेगा। आगे ऐसा नहीं हो, यह सुनिश्चित क्यों नहीं किया जाना चाहिए। नागरिक के रूप में आप मांग नहीं करेंगे। आपको मंदिर मांगने के लिए उकसाया गया आप मंदिर के पीछे पड़े रहे मंदिर बन जाएगा। पुल ऐक्ट ऑफ गॉड हों या फ्रॉड – टूटते रहेंगे और अगर आप ही फंसा दिए गए तो जेल में या मंदिर में भगवान का नाम लीजिएगा। शुरू में सरकार ने कह दिया था कि इतने पुराने मामले में अधिकारियों को सजा देने की कोई व्यवस्था नहीं है।
Izhaar Ahmed Ansari
December 8, 2022 at 9:00 am
Boss ke kahane per chalna hi parampara ban gai hai
Koi Azad aur Swatantra nahin hai yah sab dikhave ki baten Hain nyaypalika ka hunter bhi bahut simit rahata hai jisse ine sab ki himmat afjai hoti hai
Sanvaidhanik sansthaon ki nigrani ke liye agar kuchh Kiya jaega to yah Mana jaega ki UN per bhi pabandi lag rahi hai mushkil to yahi hai ek taraf Kuan dusri taraf khahee