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कोरोना त्रासदी में भी छपास के रोगी नहीं हुए अखबार से दूर

देश जहाँ कोरोना की गंभीर त्रासदी के दौर से गुजर रहा है वही दैनिक जागरण प्रयागराज संस्करण छपास रोगियों के जाल से मुक्त नहीं हो पा रहा है….जिन लोगों ने जागरण में गहराई से पैठ जमा ली है..वह बेसिर पैर की कोई भी खबर छपने को देते हैं और रिपोर्टर छाप भी देते हैं…प्रयागराज के एक कथित साहित्यकार हैं व्रतशील शर्मा ..जो एक संगठन चलते हैं और यह उनका जेबी संगठन है…

गिने चुने सात आठ लोगों की जमात बना ली हैं उन्होंने और हर सप्ताह घर पर या कही पार्क में उन्हें बुलाकर किसी ना किसी क़ि जयंती या पुण्यतिथि का आयोजन करते हैं और छपते हैं चार कालम या उससे भी ज्यादा….फोटो के साथ…

सम्पादकीय प्रभारी भी इन रिपोर्टरों के आगे लाचार दिखते हैं..वह चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते…शहर के मीडिया से जुड़े लोग बताते हैं क़ि व्रतशील शर्मा ने जागरण के एक बड़े पत्रकार को पटा रखा है… तभी यह व्यक्ति जागरण के पृष्ठों पर इस कदर हावी हो गया है क़ि मानो अख़बार के पास ख़बरों का टोटा पड़ गया हो .

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शुक्ल को यह भी नहीं पता होगा क़ि यही व्रतशील ने पहले शहर के अन्य अख़बारों के सम्पादकीय प्रभारियों को पटाने की बहुत कोशिश की…उनके घरों और दफ्तरों में पहुँचते रहे लेकिन किसी ने भी ख़बरों के मानकों के साथ समझौता नहीं किया. इनकी ख़बरों को सिंगल तो क्या समाचार सार लायक भी कभी नहीं समझा…

शुक्ल सम्बन्ध खूब निभाएं लेकिन अख़बार का स्तर तो ना गिरने दें….2 अप्रैल के अंक में अंदर के पेज पर खबर छपी है ऐसी आपदा मानव को दोबारा ना दिखाए भगवान ..इस खबर को पढ़ने के बाद कोई भी तुरंत ही यही कहेगा…क्या बकवास खबर है यह…..

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इस कोरोना त्रासदी में वह अपनी जेबी संगठन की बैठक कर नहीं सकते थे…और नाम छपाने की भूख बढ़ती जा रही थी तो यह फर्जी खबर बना डाली…कम से कम सम्पादकीय प्रभारी को तो सोचना चाहिए क़ि वह कैसे यह सब पेज पर छपने के लिए जाने दे रहे हैं…

अगर यह खबर हिंदुस्तान या अमर उजाला में छपी होती तो सम्पादकीय प्रभारी से स्पष्टीकरण मांग लिया गया होता. मुझे याद है क़ि एक बार हिदुस्तान टाइम्स के प्रयागराज संस्करण में एक सिंगल कालम की खबर छपी थी…खबर देने वाले रिपोर्टर से उक्त खबर के औचित्य के बारे में स्पष्टीकरण मांगा गया जो वह नहीं दे सका…फिर सम्पादकीय प्रभारी को चेतावनी दी गयी क़ि उक्त रिपोर्टर की बकवास खबर के कारण इतनी जगह व्यर्थ चली गयी…अगर इतनी जगह पर विज्ञापन लगाया होता तो संस्थान को आठ हज़ार रुपये मिलते..अगर अगली बार बकवास खबर छपी मिली तो उस साइज की जगह का विज्ञापन शुक्ल रिपोर्टर के वेतन से काट लिया जाये.

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सम्बन्ध निभाने का यह मतलब नहीं क़ि पाठकों की पठनीयता और उनकी रूचि के साथ खिलवाड़ किया जाये…वह स्तरीय खबर पढ़ना चाहते हैं…आप उन्हें बिना सिर पैर वाली ख़बरें अधिक दिनों तक पढ़ने को बाध्य नहीं कर सकते …वर्ना वह दूसरा विकल्प तलाश लेगा….और प्रबंधन की नज़र में आप भी एक दिन एक्सपोज़ हो जायेंगे..फिर क्या होगा?

रविंद्र कुशवाहा
इलाहाबाद

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