Navin Kumar-
पत्रकार जब पॉलिटिकल एजेंट हो जाएगा तो उसका बहिष्कार वैसे ही होगा जैसे नेताओं का होता है। किसान पश्चिमी यूपी में भाजपा के नेताओं का बहिष्कार कर रहे हैं। भाजपा को कोई शिकायत नहीं। कांग्रेस के नेताओं का भी बहिष्कार होता रहता है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने कोलकाता में भाजपा के कार्यकर्ताओं ने मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का बहिष्कार कर दिया था।
अब भाजपा के पत्रकारों का बहिष्कार भी हो रहा है। ये वैसे ही है जैसे किसी विधायक का बहिष्कार।
ऐसा पहली बार हो रहा है लेकिन किसी पॉलिटिकल एजेंट का विरोध नागरिकों का लोकतांत्रिक अधिकार है। इसपर हाय तौबा क्यों? और हाय तौबा मचा रहे लोग भी भाजपा के ही पत्रकार हैं। किसी राजनीतिक पार्टी के एजेंट पत्रकार कैसे? कल को संबित पात्रा कोई माइक उठाकर कहीं पहुँच जाए तो उन्हें भी पत्रकार होने की छूट मिलनी चाहिए न?
मीडियोकर को मीडिया होने की छूट की वकालत एक भयानक ख़्याल है। पाठकों और दर्शकों के साथ ग़द्दारी है।
Anurag Dwary नवीन भाई हमारे कई साथी पत्रकारिता छोड़ते ही कांग्रेस समेत कई दलों में गये हैं, मेरे कई संपादकों या वरिष्ठ कहते थे हम सीपीआई में कार्ड होल्डर हैं.. क्या इस तरह भले ही वो प्रवक्ता हों झुंड में हकाला जाना चाहिये थे? क्या यही उन्माद आगे हिंसा में परिणत नहीं होता? ये अच्छा था कि किसानों ने ही चित्रा जी को वहां से निकाला भी लेकिन भीड़ की मेंटेलिटी एक झुंड की तरह काम करती है किसी एक ने जो कह दिया सब साथ.. इसलिये मैं एबसॉल्यूट अभिव्यक्ति की बात कहता हूं… लेफ्ट-राइट.. बोलने दीजिये ना… आप ये कर सकते ही हैं कि उनका चैनल ना देखें.. क्या हम बजरंगी इलाके में पहुंच जाएं वो दौड़ा दें तो इसे गलत नहीं कहेंगे.. हमसब रोज गालियां देते हैं… माफ कीजिये लेकिन अप्रिय लगने की शर्त पर भी मुझे ये ठीक नहीं लगा..
Navin Kumar अनुराग जी बहिष्कार और हमले में फर्क है। मैं किसानों को भीड़ कहना उचित नहीं मानता। ऐसे व्यवस्थित अनुशासित आंदोलन बहुत कम हुए हैं। मैने खुद देखा पत्रकार ने शूट करते किसान को दो बार हाथ से मारा। ये उकसाना है। झुंड और भीड़ की मानसिकता वो है जो टीवी के परदे से फैलाई जा रही है। मुश्किल ये है कि नंगे भूखे आंदोलनकारी झुंड नजर आते हैं और कोर्ट टाई पहने दंगाई लोकतंत्र के खंभे।
Anurag Dwary नवीन भाई ससम्मान.. भीड़ से अभिप्राय गणित के हिसाब से था… अन्यथा नहीं लिखा मैं तो खुद उनके अनुशासन का कायल हूं.. ना तो कोर्ट टाई वालों को लोकतंत्र का पहरेदार बता रहा हूं… बस ये कह रहा हूं कहने दो ना उनको क्या फर्क पड़ता है… अपना नैतिक स्तर बनाये रखें… ये वही चाहते हैं कि आंदोलन उन्मादी बने.. बस इतना ही कहना था… ये पहली दफे नहीं है जब पत्रकार किसी राजनीतिक विचारधारा के नजदीक पाये गये हैं गुलामी की हद तक.. लेकिन अब ये होने लगा है कि लोग धमकाने, मारने-पीटने दौड़ने लगें.. और ये तो किसान हैं… मुझे लगता है सुनने-सुनाने और कहने का सामर्थ्य और सहन करने की शक्ति होनी चाहिये… Eye for. An eye ऐसे अहिंसक और अच्छे आंदोलन के लिये ठीक नहीं.
Anita Dinesh देश की बहुसंख्यक जनता को भीड़ और उन्मादी बताने वाले लोगों में कौन लोग है ? वही ना जो मीडिया से लेकर न्यायपालिका और मंत्री पदों पर क़ाबिज़ है जिनमें किसी को चाचा ने किसी को फूफा ने किसी को पापा ने किसी को ससुर ने सिफ़ारिश और जुगाड़ पर इन जगहों में घुसा दिया और अब ये लोग , किसानो को फ़र्ज़ी , दलितों पिछड़ों को अयोग्य बताते है , सारे आदिवासियों के इलाक़ों में खनिज और और प्राकृतिक पर्यावरण को डकार गए । इनके पुरखों ने बिना मेहनत किसान परिवारों में अलसुबह जाकर खूब दूध ग़ी मट्ठा और अनाज बाँधा है । सच तो ये है किसान को ना तो डराया जा सकता है। ना लालच से ख़रीदा जा सकता है । यही छटपटाहट दिखती है इनके चेहरों पर ।