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सुख-दुख

मुख्य न्यायाधीश की टिप्पणी और इलेक्ट्रोनिक मीडिया का वर्तमान सच!

निखिल भट्ट-

जब देश में दूरदर्शन के बाद निजी न्यूज चैनल्स ने दस्तक दी तब ये आशंका व्यक्त की गई थी कि इलेक्ट्रॉनिक न्यूज चैनल्स प्रिंट मीडिया के वजूद को खत्म कर देंगे और इसके पीछे तर्क ये था कि इलेक्ट्रॉनिक न्यूज चैनल्स किसी भी घटना को खबर और विजुअल्स के सहारे घटना के तुरंत बाद ही दर्शकों के सामने रख देंगे जबकि प्रिंट मीडिया में इस खबर के लिए दूसरे दिन का इंतजार करना होगा, लेकिन हुआ क्या प्रिन्ट मीडिया को पीछे छोड़ देने की प्रतिस्पर्धा और अपनी टी आर पी बढ़ाने के चक्कर में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया एक ऐसे अंधे कुएं में जा गिरा जिधर से बाहर निकलना अब उसके बस के बाहर की बात ही गई है ।

इलेक्ट्रोनिक मीडिया के व्यवहार पर देश के मुख्य न्यायाधीश एन वी रमन्ना ने जो टिप्पणी की वह इलेक्ट्रोनिक मीडिया के मालिकों और उनके संपादकों पर एक प्रश्न चिन्ह लगती है उन्होंने स्पष्ट तौर पर कहा कि कई न्यायिक मुद्दों पर गलत सूचना और एजेंडा चलाना लोकतंत्र के लिए हानिकारक साबित हो रहा है। इलेक्ट्रोनिक मीडिया और सोशल मीडिया शून्य जवाबदेही के तहत काम कर रहे हैं। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और सोशल मीडिया अदालतों के आदेश को तोड़-मरोड़कर देश की न्यायपालिका की छवि गलत तरीके से पेश करते हैं इससे न्यायाधीशों के आदेश पर कई सवाल खड़े होने लगते हैं। मुख्य न्यायमूर्ति ने ये भी कहा कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया संयम रखें।

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मीडिया ऐसे मसलों पर बहस करवाती है जो अदालतों में लंबित हैं ऐसे संवेदनशील मुद्दों को उछालती भी है।इलेक्ट्रॉनिक मीडिया “कंगारू कोर्ट” चला रहा है। जिसका अर्थ है” ऐसी अदालत जिधर असंवैधानिक और गैरकानूनी तरीके से किसी को सजा दी जाती है या एक तरफा निर्णय सुनाया जाता है” आपने जोर देकर कहा की प्रिंट मीडिया अब भी जवाबदेह है लेकिन इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की कोई जवाबदेही नहीं बची है,इसके अलावा सोशल मीडिया की स्थिति तो इससे भी बदतर है जिस पर किसी का कोई नियंत्रण नहीं है अदालतों के खिलाफ खुले आम टिप्पणियां की जा रही हैं उन पर मानसिक दवाब बनाने की कुत्सित कोशिश की जाती है ।

इलेक्ट्रोनिक मीडिया के इस गैरजिम्मेदाराना रुख को देखते हुए दो साल पहले सुप्रीम ने कहा था कि इलेक्ट्रानिक मीडिया के नियमन की जरूरत है लेकिन सरकार ने प्रेस की स्वतंत्रता का हवाला देते हुए कहा था कि प्रेस पर नियंत्रण रखना लोकतंत्र के लिये घातक होगा। यदि हमें स्वस्थ लोकतंत्र चाहिए तो प्रेस स्वतंत रखना जरूरी है और फिर देश का संविधान अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी देता है।

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यदि हम तटस्थ दृष्टि से इलेक्ट्रोनिक मीडिया और प्रिंट मीडिया की तुलना करें तो ये पाएंगे कि प्रिंट मीडिया आज भी जिम्मेदारी और पत्रकारिता के मानकों के हिसाब से चल रहा है शायद यही कारण है कि दिन भर न्यूज चैनल्स पर चलने वाली खबरें देखने के बाद भी आम आदमी को सुबह अखबार का इंतजार रहता है जो उसकी विश्वसनीयता का ठोस सबूत है।

पत्रकारिता की ये जिम्मेदारी है कि वो समाज मैं फैली विसंगतियों पर चोट करे, विषमताओं को दूर करने के लिए सरकारों पर दवाब बनाए और यदि सरकार कोई गलत काम कर रही है तो वह पत्रकारिता के माध्यम से आम जनता के सामने उसे भी लाए लेकिन दुर्भाग्य इस बात का है कि इलेक्ट्रॉनिक चैनल्स पर इन तमाम मुद्दों को दरकिनार कर समाज को बांटने के मुद्दों पर रोज शाम को बहस करवाई जाती है जिनमें तमाम राजनीतिक दलों के प्रवक्ता एक दूसरे को नीचा दिखाने का कोई भी मौका अपने हाथ से नहीं जाने देते । आम आदमी की समस्याएं जो सुबह शाम उसे परेशान करती हैं उनसे उसका दूर-दूर तक वास्ता नहीं रहता उनके लिए राजनीतिक उठापटक, आरोप-प्रत्यारोप, हिंदू मुसलमान, मंदिर मस्जिद जैसे मुद्दे सबसे महत्वपूर्ण होते है जबकि प्रिंट मीडिया जो खबर देता है वह उसे अच्छी तरह से जांच पड़ताल करने के बाद ही अपने पाठकों तक पहुंचाता है।

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देश के स्वतंत्रता संग्राम में अखबारों की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण रही है अनेक अखबारों के संपादकों को अंग्रेजी हुकूमत ने जेलों में डाला, उन पर जुर्माने लगाए, अखबार बंद करने की कोशिश की गई लेकिन अखबार अपने उद्देश्य से कतई पीछे नहीं हटे अंग्रेजी अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ एक जन जागरण अभियान अखबारों के माध्यम से देश के अनेक वरिष्ठ नेताओं ने चलाया उसका ही प्रतिफल था कि अंग्रेजों को भारत छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा, लेकिन वर्तमान पत्रकारिता जिसे “टीवी जर्नलिज्म” कहा जाता है एक ऐसे पतन के दौर से गुजर रही है जिसका अंत क्या होगा कहना मुश्किल है।

दरअसल वर्तमान में कोई भी निजी चैनल चलाना किसी आम पत्रकार के बस की बात नहीं है तमाम निजी चैनल बड़े-बड़े उद्योगपतियों और बड़े व्यापारियों के हाथों में है क्योंकि इसमें अथाह धनराशि लगती है और यह धनराशि टीआरपी के माध्यम से होने वाले विज्ञापनों विभिन्न राज्य तथा केंद्र सरकारों के विज्ञापनों के रूप से वापस आती है जाहिर है विज्ञापन दाताओं को कोई नाराज नहीं करना चाहता क्योंकि यह उनके लिए दुधारू गाय साबित होते हैं शायद यही कारण है कि आम आदमी की बात, उसकी तकलीफ, उसकी परेशानियां इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए मायने नहीं रखती ,राजनीतिक दलों की खटपट, आईपीएल, बॉलीवुड जैसे विषय उसे टीआरपी प्रदान करते हैं ऐसी स्थिति में उनके सामने भी मजबूरी है लेकिन इसके बावजूद उनका यह भी कर्तव्य बनता है कि वे समाज को जोड़ने में अपनी भूमिका निभाए ना कि उसे तोड़ने में ।

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देश के मुख्य न्यायाधीश ऐन वी रमन्ना ने जो भी कहा वह इस बात का सबूत है कि सैकड़ों निजी न्यूज़ चैनल होने के बावजूद अखबारों की प्रसार संख्या में कोई कमी नहीं आई बल्कि उनकी प्रसार संख्या लगातार बढ़ती जा रही है, इलेक्ट्रॉनिक न्यूज चैनल्स के कर्ता-धर्ता इस बात का चिंतन करें कि उनके तमाम प्रयासों के बावजूद आम दर्शक या पाठक उनसे ज्यादा भरोसा प्रिंट मीडिया पर क्यों करता है, उन्हें यह भी सोचना होगा सिर्फ टीआरपी ही उनके लिए जरूरी नहीं है आम आदमी और समाज इसकी जिम्मेदारी भी उनके कंधों पर है क्योंकि पत्रकारिता ही एक ऐसा साधन है जो आम आदमी की आवाज को बुलंद करता है देश की सर्वोच्च अदालत के मुख्य न्यायमूर्ति की पीड़ा भी इलेक्ट्रॉनिक चैनल्स को समझना चाहिए और स्व नियंत्रण का कोई ऐसा फैसला उसे लेना होगा ताकि उसके खिलाफ इस तरह की टिप्पणियां देश के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश या अन्य न्यायाधीशों द्वारा ना की जा सके और इसके लिए जरूरी है वह खबरों में बदलाव लाए न्यायालय में लंबित मामलों पर ऐसी कोई टिप्पणी या बहस ना करवाएं जिससे न्याय के सिंहासन पर बैठे न्यायमूर्तियों पर मानसिक दबाव बने।

निखिल भट्ट
एडवोकेट
एम पी हाईकोर्ट
102, संगम कालोनी जबलपुर

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