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उत्तर प्रदेश

मन्त्री की मौत कोरोना से हुई या किसी दूसरी बीमारी से? प्रिस्क्रिप्शन पर्चियों को सार्वजनिक क्यों नहीं करते!

संत समीर

अरे समीर जी, देखिए अब तो एक मन्त्री की भी मौत कोरोना से हो गई। ऐसा वाक्य सुनने के बाद मन्त्री की मौत पर खेद व्यक्त करूँ या कहने वाले की बुद्धि पर तरस खाऊँ? बन्धु! कोरोना बस कोरोना है, उसे किसी मन्त्री या सन्तरी से दोस्ती या दुश्मनी नहीं निभानी है। मौत किसी की भी हो, दुःखदायी है, लेकिन जब कुछ लोग कोरोना को इसलिए महामारी बताने लगें कि एक मन्त्री की भी मौत हो गई…या अमिताभ बच्चन, अमित शाह और कई बड़े-बड़े वीआईपियों को कोरोना हो गया, तो ऐसे लोगों की बुद्धि की हालत भी दुःखदायी है। लोग मीडिया की बढ़ाई-चढ़ाई और हवाहवाई ख़बरों को आँख मूँदकर सच मानने लगते हैं तो इसका मतलब यही है कि हम पढ़े-लिखे होकर भी अनपढ़ों से बहुत आगे नहीं हैं। विज्ञान की तमाम किताबें पढ़ने के बाद भी अच्छे-अच्छों के विवेक पर लगा ताला खुलने का नाम नहीं ले रहा है, इसीलिए धर्म के नाम पर चलाए जा रहे अन्धविश्वास आज के दौर में अब विज्ञान का आधार लेकर नए रूपों में सामने आने लगे हैं। ये प्रगतिशील अन्धविश्वास हैं और बदले रूपों में पुराने वालों से ज़्यादा अलग नहीं हैं। ये तर्क आधारित अन्धविश्वास हैं और कई बार कुढ़मग़ज़ अन्धविश्वासों से ज़्यादा ख़तरनाक हो सकते हैं। ख़ैर…

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मीडिया वालों से पूछना चाहिए कि भाई जब एक मन्त्री की मौत को ब्रेकिङ्ग न्यूज़ के रूप में कोरोना के नाम पर चला रहे हो, तो उस मन्त्री ने जो चार बीमारियाँ पहले से पाल रखी थीं, उनके बारे में भी क्यों नहीं बताते? जिस अस्पताल में उत्तर प्रदेश की मन्त्री भर्ती थीं, वह प्रिस्क्रिप्शन के मामले में मशहूर है। मन्त्री की मौत का रहस्य जानना हो तो प्रिस्क्रिप्शन पर्चियों को भी सार्वजनिक कीजिए, बहुत कुछ साफ़ हो जाएगा। जिस बीमारी की आपके पास अभी तक कोई दवा नहीं है, उसके लिए आप ‘एक्सपेरीमेण्टल ड्रग’ इस्तेमाल करेंगे तो मरना-जीना राम भरोसे रहेगा ही।

कोरोना की जाँचें बहुत विश्वसनीय नहीं हैं, यह बात भी अब काफ़ी लोग समझने लगे हैं। एक मरीज़ का तीन-चार बार टेस्ट हो तो पॉजिटिव-निगेटिव दोनों आ जाते हैं। बहरहाल, अमित शाह और अमिताभ बच्चन जैसों की रिपोर्ट मैं सही मानकर चल रहा हूँ, लेकिन इन लोगों के कोरोनाग्रस्त होने से एक बड़ा सवाल पैदा होता है। सवाल यह है कि जो लोग जनता को कोरोना से बचाव की विधियाँ समझा रहे थे, क्या वे ख़ुद को बचाने के लिए सावधान नहीं थे? बड़े-बड़े वीआईपी कोरोना पॉजिटिव आ रहे हैं, इसका मतलब है कि ये लोग या तो सोशल डिस्टेसिंग, मास्क, हैण्ड सेनेटाइज़र जैसी चीज़ों का पालन नहीं कर रहे थे…या फिर कोरोना अपनी ही गति से फैल या शान्त हो रहा है और बचाव के ये टोटके बकवास हैं और इन्हें सिर्फ़ जनता को उल्लू बनाने के लिए प्रचारित किया गया है। अमित शाह और अमिताभ बच्चन तो अति-सावधान लोग हैं, आम जनता से गलबहियाँ करते नहीं फिरते, फिर ये कैसे चपेट में आ गए? सच्चाई यही है कि जो भी सावधानियाँ बताई जा रही हैं, बस कारोबार चमकाने के लिए प्रचारित की जा रही हैं। मई महीने से लेकर अब तक क़रीब सवा दो सौ कोरोना मरीज़ों का पूरी कामयाबी से इलाज करने के बाद और ख़ुद कोई सावधानी (काढ़ा, गरारा, होम्योपैथी को छोड़कर) न बरतने के बावजूद पूरे विश्वास के साथ कह रहा हूँ कि मास्क, हैण्ड सेनेटाइज़र और सोशल या फिजिकल डिस्टेंसिङ्ग, तीनों बकवास हैं। साफ़-सफ़ाई सेहत के लिए ज़रूरी ही नहीं, बल्कि अनिवार्य है, पर हैण्ड सेनेटाइज़र वाली सफ़ाई असलियत में एक दूसरे तरह की गन्दगी है, जो अन्ततः और ज़्यादा बीमार बनाएगी। लॉकडाउन और होम आइसोलेशन सबसे बड़ी सरकारी मूर्खताएँ साबित हुई हैं। इस रिसर्च पर मैं पहले ही बात कर चुका हूँ कि कैसे होम आइसोलेशन के चलते सङ्क्रमण को रोकने लिए सबसे ज़रूरी विटामिन-डी की कमी होती गई और कोरोना का प्रसार घटने के बजाय उल्टा बदस्तूर बढ़ता गया।

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आज एक शोध छपा है कि अमेरिकी विशेषज्ञों ने 46 देशों के उपलब्ध डाटा के आधार पर निष्कर्ष निकाला है कि जहाँ राष्ट्रीय स्तर पर फिजिकल डिस्टेंसिङ्ग की नीति बनाई गई, वहाँ कोरोना सङ्क्रमण रोकने में मदद मिली। निष्कर्ष यह भी है कि क्षेत्रीय स्तर पर फिजिकल डिस्टेंसिङ्ग की नीति से फ़ायदा नहीं है। वास्तव में यह शोध अर्धसत्य है, बेवकूफ़ बनाने के लिए है। यह बात तो समझ में आती है कि पूरे देश के लोग चार-छह फुट की दूरी बनाकर रहें तो ज़्यादा लोगों को किसी या कई बीमारियों से बचत हो सकती है, पर शोधकर्ताओं से पूछना चाहिए कि अगर हमारे तमाम राज्य क्षेत्रीय स्तर पर फिजिकल डिस्टेंसिङ्ग के तौर पर ऐसी ही दूरी बनाकर रहें, तो उन्हें सङ्क्रमण से आख़िर क्यों बचत नहीं होगी? सवाल है कि मैं अपने घर में भी दूरी बनाकर रह रहा हूँ, किसी कोरोना मरीज़ से मिल नहीं रहा हूँ, तो ऐसे हाल में मैं बचा रहूँगा या नहीं? इस शोध में इस बात की चर्चा ही नहीं की गई है कि जिन तमाम देशों में लॉकडाउन वग़ैरह नहीं हुआ, आख़िर उनके यहाँ लोग सबसे कम क्यों मरे। एक बड़ी सच्चाई यह है कि कोरोना को महामारी घोषित करने के मामले में डब्ल्यूएचओ के सारे आकलन गड़बड़ साबित हुए हैं, तो अब बीच-बीच में ऐसे शोध किए-कराए जा रहे हैं, जो महामारी की इज़्ज़त को बचाए रख सकें।

वैसे तो मेरी जेब में ज़्यादा पैसे कभी इकट्ठा होते नहीं, पर मेरा मन कर रहा है कि जो कोई भी कोरोना को महामारी सिद्ध कर दे, उसके लिए ईनाम घोषित करूँ। आख़िर किस हिसाब से इसे महामारी कहा जाय? डब्ल्यूएचओ के ख़ुद के मानक ही इस पर फेल हैं। पहले कहा गया कि इससे दो करोड़ से लेकर पाँच-सात करोड़ तक लोग मरेंगे। आँकड़े पीछे रह गए तो कहा गया कि यह बहुत तेज़ फैलता है; पर इससे ज़्यादा तेज़ (दो सा चार गुना तक) तो टीबी जैसे रोग ही फैलते हैं। मौतों की बात करें तो दुनिया में हृदय रोग से हर दिन छब्बीस हज़ार लोग मरते हैं, कैंसर से और भी ज़्यादा। सोचिए कि कोरोना इनके आगे कहाँ टिकता है? न्यूमोनिया से हमारे देश में हर साल लगभग डेढ़ लाख लोग मरते हैं, यानी जब से कोरोना से लोग मरना शुरू हुए हैं, तब से न्यूमोनिया से ही पचहत्तर से अस्सी हज़ार लोग मर चुके होंगे। वैसे मेरे आकलन के हिसाब से इस दौरान न्यूमोनिया से कम लोग मरे होंगे, क्योंकि न्यूमोनिया वाले काफ़ी लोग कोरोना में शामिल कर लिए गए हैं। आईसीएमआर की गाइडलाइन के अनुसार जिसकी मौत साँस रुकने या हृदय गति थमने से हुई हो, उसे भी कोरोना की मौत में दर्ज किया जाएगा, भले ही मरीज़ कोरोना पॉजिटिव न हो। डॉक्टरों को भी छूट दी गई है कि भले मरीज़ कोरोना पॉजिटिव न हो, पर डॉक्टर चाहे तो अपने विवेक से उसे कोरोना में दर्ज कर सकता है। मतलब साफ़ है कि कुछ लोगों ने पूरे देश की जनता को उल्लू समझ रखा है। कोरोना के समानान्तर टीबी से हर दिन हो रही मौतों को दिखाया जाने लगे तो भी यक़ीन मानिए कि कोरोना का सारा खेल ख़त्म हो जाएगा। सीधी-सी बात है कि साल भर में अगर टीबी से हमारे देश में पाँच-छह लाख लोग मरते हैं, तो इस कोरोना-काल में तीन लाख तो मरे ही होंगे। कोरोना के बगल में इसके आँकड़े हर दिन दिखाए जाएँ तो इसे सात-आठ गुना ज़्यादा दिखाना पड़ेगा। मतलब यह कि कोरोना से मौतें होंगी सौ, तो टीबी से होंगी सात-आठ सौ। मौसमी डायरिया में भी कोरोना से ज़्यादा मौतें दिखानी पड़ेंगी। हफ़्ते भर भी ऐसा दिखा दिया जाय तो आप ख़ुद ही सोच सकते हैं कि कोरोना का डर कितना बचेगा!

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सारा खेल शोर मचा-मचाकर भय का माहौल बनाए रखने पर खड़ा हुआ है, पर सिर्फ़ शोर मचाने से कोई बीमारी महामारी नहीं बन जाती। चार-छह दिन ख़बरों से निगाह हटा लीजिए, साधारण बीमारी और महामारी का अन्तर समझाने की ज़्यादा ज़रूरत ही नहीं रह जाएगी। सबसे ज़्यादा वे लोग डरते हैं, जिनका कोई पड़ोसी या जिनके घर का कोई सदस्य कोरोना से मौत का शिकार हो जाता है। मैंने ऐसे कई लोगों को देखा है, जो कोरोना को पहले बड़ी बीमारी नहीं मानते थे, पर उनके पड़ोस का व्यक्ति मौत का शिकार हो गया तो दिमाग़ पर ऐसा असर हुआ कि वे भी इसे महामारी मानने लगे। ऐसी मौतें हमारे आसपास पहले भी होती रही हैं, पर तब एक बीमारी पर फोकस नहीं होता था, तो हम उसे सामान्य मौत मान लेते थे और उससे भयग्रस्त नहीं होते थे। डर का मनोविज्ञान अद्भुत है।

सबसे मज़े में वे देश हैं, जिन्होंने डब्ल्यूएचओ से अलग होकर उसकी गाइडलाइन को मानने से इनकार कर दिया। चीन से सटे ताइवान ने इस महाफ्राड संस्था को ठेंगा दिखाकर अपने ढङ्ग से काम किया और वहाँ मौतें हुईं सिर्फ़ सात। वियतनाम बड़ा देश है। वहाँ हाहाकार मचना चाहिए था, पर वहाँ कोरोना से एक भी व्यक्ति अब तक नहीं मरा है। वर्डोमीटर छह मौतें रिपोर्ट करता है, पर अपुष्ट आधार पर। फार्मा कम्पनियाँ इस बात से परेशान हैं कि वियतनाम में लोग मर क्यों नहीं रहे और वे डब्ल्यूएचओ के साथ मिलकर वियतनाम को घेरने की साज़िशें रचने में लगी हैं, ताकि वहाँ भी बढ़ता हुआ सङ्क्रमण और बढ़ती हुई मौतें दिखाई दें। हमारे स्वास्थ्य मन्त्री डॉ. हर्षवर्धन को डब्ल्यूएचओ ने अपनी साधारण सभा का मुखिया बना दिया तो हमारा देश गद्गद है और हम इस संस्था के एक-एक शब्द को ब्रह्मवाक्य मानकर दिल से चिपका रहे हैं और नतीजा है कि अड़तीस हज़ार से ज़्यादा का दिल धड़क गया और ये सब ऊपर पहँच गए। पड़ोसी देश श्रीलङ्का में ग्यारह मरे हैं। भूटान में एक भी नहीं और नेपाल में सिर्फ़ सत्तावन। हमसे सटे ग़रीब म्यानमार यानी बर्मा पर कोरोना आक्रमण करते-करते जैसे तरस खा गया और वहाँ के सिर्फ़ छह लोगों पर कहर बरपाने के बाद उसने इस देश को बख़्श दिया।

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पड़ोसियों से हटकर ज़रा दूर वालों की ख़बर लें तो रवाण्डा में बस पाँच मौतें। युगाण्डा में चार। जार्डन में ग्यारह। बुरुण्डी में एक। मङ्गोलिया, कम्बोडिया, पापुआ न्युगिनी, मकाऊ लाओस जैसे कई देशों में एक भी मौत नहीं हुई है। तञ्जानिया पर महामारी का कहर बरपा ज़रूर था, पर वहाँ के राष्ट्रपति जॉन पाम्बे मुगुफली को दाल में कुछ काला लगा और उन्होंने डब्ल्यूएचओ के दिशानिर्देश पर अपने देश में भेजी गई आरटी-पीसीआर टेस्ट किट का ही टेस्ट ले लिया। पपीता, केला, आम, बकरी, कुत्ते के नमूने आदमियों जैसे नाम रखकर लैब में भिजवा दिए। दूसरे दिन रिपोर्ट आई तो केला कोरोना पॉजिटिव, पपीता कोरोना पॉजिटिव, आम कोरोना पॉजिटिव, बकरी कोरोना पॉजिटिव, कुत्ता कोरोना पॉजिटिव। बहुत कोशिश की गई कि यह ख़बर बाहर न जाने पाए, पर इण्टरनेट ने दुनिया का दायरा इतना सिमटा दिया है कि मई महीने में यह जगज़ाहिर हो ही गई। समझिए कि सबसे विश्वसनीय कहे जा रहे टेस्ट की भी असलियत क्या है! यह बात मैं पहले कह चुका हूँ, फिर भी आज याद दिला रहा हूँ। तञ्जानिया ने कान पीछे से पकड़ने वाला तरीक़ा अपनाया और डब्ल्यूएचओ को ठेंगा दिखा दिया। उसके यहाँ हाहाकार मचते-मचते रह गया और कुल मौतें हुईं महज़ इक्कीस। 10 जून को ही तञ्जानिया के राष्ट्रपति ने अपने देश को कोरोनामुक्त घोषित कर दिया था।

हमारा हाल यह है कि हम डब्ल्यूएचओ के पाँव पकड़ कर कह रहे हैं कि ‘हे प्रभो! आप ही तारनहार हो, बचा लो!’ डब्ल्यूएचओ की कृपा बरस रही है और वह बचने के नए-नए टोटके बता रहा है और हम आज़मा रहे हैं। उसके बताए टोटकों के हिसाब से हमने मार्च में ही पाबन्दी लगा दी कि कोरोना मरीज़ों के पास आयुर्वेद, प्राकृतिक चिकित्सा और होम्योपैथी वाले फटक भी नहीं सकते। सिर्फ़ एलोपैथी वाले अम्मा के पेट से जन्मसिद्ध अधिकार लेकर आए हैं और भले ही उनके पास इस बीमारी की कोई दवा न हो, पर मरीज़ को सिर्फ़ उन्हीं के रहमोकरम पर रहना पड़ेगा। कुछ होम्योपैथी वालों ने एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाया तो उन्हें एलोपैथी वालों के दिशानिर्देशन में मरीज़ देखने की सीमित छूट मिली। यह बदतमीज़ी की हद है। इसे मेडिकल गुण्डई कहेंगे कि जब एलोपैथी के पास इस बीमारी की कोई दवा नहीं है, तो भी इसकी ख़तरनाक रसायन वाली एक्सपेरीमेण्टल दवाओं को कोरोना मरीज़ों पर आज़माने की इजाज़त दे दी जाएगी और इस चक्कर में सैकड़ों मरीज़ों को मौत के मुँह में पहुँचा दिया जाएगा, पर स्वामी रामदेव सदियों की आज़माई एकदम हानिरहित तुलसी, गिलोय और अश्वगन्धा से बनी कोरोनिल लेकर आएँगे तो उन पर पाबन्दी लगा दी जाएगी कि ख़बरदार आप यह नहीं कह सकते कि आप इस दवा से कोरोना का इलाज कर सकते हैं। एक नामचीन लेखक ने मुझे बताया कि बङ्गलूरु में एक प्रसिद्ध वैद्य ने कोरोना मरीज़ को आयुर्वेदिक दवा देकर ठीक किया तो उनको नोटिस भेज दी गई कि बिना हमसे इजाज़त लिए आपने ऐसा कैसे कर दिया। भोपाल में होम्योपैथी मेडिकल कॉलेज में कोरोना मरीज़ ठीक करके घर भेजे जाने लगे तो एलोपैथी वालों ने प्रदर्शन किया कि इन लोगों को इलाज करने की इजाज़त कैसे मिली? मतलब यह कि आपको किसी की जान बचानी हो तो पहले इजाज़त पाने के लिए चिरौरी कीजिए और जो आपको नहीं दी जाएगी, क्योंकि डब्ल्यूएचओ वैज्ञानिक चिकित्सा पद्धति सिर्फ़ एलोपैथी को मानता है। डब्ल्यूएचओ की दलाल-जैसी भूमिका निभाने वाली मशहूर मेडिकल पत्रिका ‘लांसेट’ रिपोर्ट छापती है कि अगर आप होम्योपैथी जैसी किसी चिकित्सा पद्धति से ठीक होते हैं, तो समझिए कि टोने-टोटके से ठीक होते हैं।

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मैं एलोपैथी के सेवाभावी सचमुच के सच्चे डॉक्टरों से कहूँगा कि आपको दवा कम्पनियों के दलालों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठानी चाहिए, वरना एक दिन वह आएगा कि जनता का विश्वास ईमानदार डॉक्टरों पर से भी उठ जाएगा। मैं देश के कई ऐसे ऐलोपैथी डॉक्टरों को जानता हूँ, जिन पर सचमुच ‘डाक्टर भगवान् होते हैं’ की उक्ति चरितार्थ होती है, पर उनसे कहूँगा कि वे थोड़ी फुरसत निकाल कर होम्योपैथी और प्राकृतिक चिकित्सा वग़ैरह की भी समझ बनाएँ तो विज्ञान की एक नई समझ पैदा होगी और वे देश का ज़्यादा भला कर पाएँगे।

अब बात यह कि वायरस के अस्तित्व को नकारने की मैं ज़रूरत नहीं समझता, पर किसी भी कोण से यह नया वायरस नहीं लगता। इसके जो लक्षण नए कहे जा रहे हैं, उनमें से एक भी नया नहीं है। होम्योपैथी लाक्षणिक पद्धति है, अगर कोरोना के लक्षण होम्योपैथी दवाओं में पहले से न होते तो इससे मरीज़ ठीक न हो रहे होते। कोरोना में दिखने वाले सारे लक्षण दशकों पहले बनी तमाम होम्योपैथी दवाओं में मौजूद हैं। लक्षणों के आधार पर कई होम्योपैथी दवाएँ मैंने जनवरी महीने में ही अपनी कई पोस्टों में बता दी थीं, जो बाद में ज़बरदस्त तरीक़े से सही साबित होती गईं।

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ख़ैर, आइए ज़रा दिल्ली का अहवाल सुनते हैं। हमारे पुराने आन्दोलनकारी मित्र अरविन्द केजरीवाल जी अपनी पीठ ठोंकने में लगे हैं कि उनके मॉडल ने दिल्ली में कोरोना को क़ाबू में कर लिया। यह सरासर झूठ है। हर वायरस का अपना स्वभाव होता है। अपने चक्र के हिसाब से वह सक्रिय या शान्त होता है। आजकल डायरिया का मौसम है, पर हमेशा इसका फैलाव एक जैसा नहीं रहेगा, कुछ दिनों बाद यह भी शान्त हो जाएगा। कोरोना फ्लू वायरस है और अपनी प्रकृति के हिसाब से फैलेगा या रुकेगा। आपके पास कोई दवा होती तो कह भी सकते थे कि चलो लोगों को मरने से बचा लिया, हालाँकि फैलने से तब भी नहीं रोक सकते थे। आपका सीरो टेस्ट ही बता रहा है कि दिल्ली की चौथाई जनसङ्ख्या को कोरोना सङ्क्रमण हुआ और लोग अपने आप ठीक भी होते गए। दिल्ली के स्वास्थ्य मन्त्री सत्येन्द्र जैन कह रहे हैं कि लॉकडाउन से हमने सीखा है कि कोरोना के प्रसार को रोकना है तो सोशल डिस्टेंसिङ्ग का पालन करें, मास्क लगाएँ और साबुन से हाथ धोएँ। अब मैं सत्येन्द्र जैन जी से यह पूछता हूँ कि क्या इसका यह अर्थ लगाया जाय कि जब दिल्ली में सङ्क्रमण की रफ़्तार बेतहाशा थी, तो दिल्ली के लोग सोशल डिस्टेंसिङ्ग का पालन नहीं कर रहे थे और मास्क नहीं लगा रहे थे?…और जब इन दिनों सङ्क्रमण की रफ़्तार थमने लगी है और बाज़ारों में भीड़ बढ़ने लगी है तो क्या लोग सोशल डिस्टेंसिङ्ग का पालन करते दिखाई देने लगे हैं और मास्क मुस्तैदी से लगाने लगे हैं?

गफ़लत में दिल्ली से एक ऐसी रिपोर्ट आ गई है, जो मेरी महीनों पहले कही गई बात को सही साबित कर रही है। मैंने कहा था कि इस बार देश में विभिन्न बीमारियों में कुल मौतों की सङ्ख्या पिछले साल की तुलना में कम होगी। कारण कि लोगों को डर है कि इन दिनों अस्पताल जाने की नौबत आई तो जगह मिलनी मुश्किल है। कोरोना के अलावा इस डर ने भी लोगों को सावधान कर दिया। तमाम लोगों ने बीमारियों से बचने के लिए घरेलू नुस्ख़े आज़माने शुरू कर दिए। काढ़ा, गिलोय, तुलसी, योग वग़ैरह को जिन्होंने सही ढङ्ग से अपनाया, वे तमाम लोग छोटी-मोटी बीमारियों के अलावा कुछ गम्भीर बीमारियों में भी कुछ हद तक सुरक्षित हुए। जिन तमाम लोगों का इस बार ऊपर का टिकट कटना लगभग तय था, उनमें से बहुत से दो-चार साल और जी जाएँगे। ज़ाहिर है, इस साल मौतें कुछ कम होनी चाहिए। जो सावधान नहीं रहेंगे, उनके सामने होम आइसोलेशन के चलते बीमार होने की नौबत आएगी, यह एक अलग बात है। जो भी हो, दिल्ली नगर निगम से कुल मौतों की जो सङ्ख्या सामने आई है, उसके मुताबिक इस कोरोना-काल में पिछले साल की तुलना में दिल्ली में छह हज़ार लोग कम मरे हैं। केजरीवाल जी इसके लिए अगर अपनी चिकित्सा सुविधाओं को श्रेय दे रहे हैं तो वह उनकी बाजीगरी है, क्योंकि बीते छह-सात महीनों से लोग कोरोना के अलावा अन्य बीमारियों के लिए अस्पतालों में जा ही कितने रहे हैं, जो चिकित्सा सुविधाओं का लाभ उठाएँगे? एक मज़ेदार रिपोर्ट यह भी है कि कोरोना-काल में सत्तर प्रतिशत हार्ट अटैक के मरीज़ कम हो गए। वैसे इस सत्तर प्रतिशत में कुछ कम कर देना चाहिए, ऐसा इसलिए कि हार्ट अटैक वाले कुछ मरीज़ स्पष्ट तौर पर कोरोना में दर्ज कर लिए गए हैं।

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अब ज़रा आँकड़ों की बाज़ीगरी और धोखाधड़ी पर सरसरी निगाह डालिए। हर्षवर्धन जी वीडियो कानफ्रेंसिङ्ग करके आए दिन बताते हैं कि हमारे देश में मृत्युदर फलाँ प्रतिशत से घटकर फलाँ प्रतिशत पर आ गई है। पाँच-छह प्रतिशत की पहले की मृत्युदर अब घटकर 2.09 प्रतिशत हो गई है। यह ख़ुशी की बात है, पर सच्चाई यह है कि जिस हिसाब से ये लोग मृत्युदर का हिसाब लगा रहे हैं, उसमें बहुत बड़ा धोखा है। इनका हिसाब इस इस हिसाब से है कि हमारे देश में सङ्क्रमण कितने हैं और उसकी तुलना में मौतें कितनी हैं। वर्डोमीटर पर कुछ इस हिसाब से हिसाब लगाया जा रहा है कि कितने केस निबटा दिए गए हैं यानी क्लोज कर दिए गए हैं और क्लोज केसों की तुलना में मौतें कितनी हुई हैं। वर्डोमीटर के हिसाब से भारत में आज के दिन यानी 4 अगस्त को कुल केस हैं अठारह लाख अट्ठावन हज़ार छह सौ नवासी। क्लोज केस हैं बारह लाख सत्तर हज़ार छह सौ चौरासी। कुल मौतें हुई हैं उनतालीस हज़ार दो। क्लोज केस के हिसाब से मृत्युदर है तीन प्रतिशत। सङक्रमितों की सङ्ख्या के हिसाब से मृत्युदर बनती है 2.09 प्रतिशत। यक़ीनन बाक़ी दुनिया की तुलना में यह बहुत कम है और भारत के लिए ख़ुश होने की बात है। अब यहाँ असली धोखाधड़ी समझिए, जो स्पष्ट हो जाय तो महामारी की पूरी हवा निकल जाएगी और रहस्य का पर्दाफ़ाश हो जाएगा। बात यह है कि जो सङ्क्रमण की सङ्ख्या बताई जा रही है, वह वास्तव में वह सङ्ख्या है, जो अब तक की गई जाँचों के बाद सामने आई है। यह देश में इस समय मौजूद कुल सङ्क्रमितों की सङ्ख्या नहीं है। अप्रैल के महीने तक हर दिन बस पाँच हज़ार जाँचें की जा रही थीं, तो उस हिसाब से पॉजिटिव-निगेटिव मिल रहे थे, पर अब जाँचों का दायरा पाँच लाख तक पहुँच गया है। आज की तारीख़ में जो प्रतिशत निकाला जा रहा है वह सीमित जाँचों में मिले सङ्क्रमितों के हिसाब से है, देश में मौजूद कुल सङ्क्रमितों के हिसाब से नहीं। अगर रोज़-रोज़ की जा रही जाँचों में रोज़-रोज़ सङ्क्रमित मिल रहे हैं, तो इसका मतलब है कि देश में ऐसे सङ्क्रमित बड़ी सङ्ख्या में हैं, जिनकी जाँच अभी तक हम नहीं कर पाए हैं। यदि रोज़-रोज़ की जाँचों में हफ़्ते-दस दिन लगातार एक भी नया सङ्क्रमित न मिले तो ज़रूर एक तर्क बनता है कि अब देश में और सङ्क्रमित नहीं होंगे, क्योंकि लाखों की सङ्ख्या में जाँचों के बावजूद पॉजिटव शून्य हैं, लेकिन ऐसा है नहीं। अभी हाल मिल रहे सङ्क्रमितों के हिसाब से औसत लगाएँ तो देश में कुल सङ्क्रमित मिलेंगे दस-बारह से लेकर पन्द्रह करोड़ तक। इसका हिसाब मैं अपनी पहले की एक पोस्ट में बता चुका हूँ। वास्तव में मृत्यदर देश में मौजूद कुल सङ्क्रमितों की इस सङ्ख्या के हिसाब से ही निकालना उचित है। ज़ाहिर है, इस महामारी में सही मृत्युदर बनेगी 0.01 प्रतिशत यानी एक लाख में बस दस मौतें।

ख़ुद सोचिए, ऐसे हाल में इसे महामारी कहेंगे या महामारी के नाम पर मज़ाक़! असल में पूरी दुनिया को बेवकूफ़ बनाकर धन्धा चमकाने के लिए किया गया यह भद्दा मज़ाक़ है। यह साधारण फ्लू है। कुछ लोगों ने लैब में बैठकर लाखों-करोड़ों अनजाने वायरसों में से एक को पहचान लिया और इसे स्वार्थ साधने के लिए इस्तेमाल करने की सोच ली। आम आदमी विज्ञान की ज़्यादा समझ रखता नहीं, इसलिए रिसर्च के नाम पर आँख मूँदकर भरोसा कर लेता है। यही इसमें हुआ है। कमाल ही है कि जिस वायरस के पूरे स्वभाव के बारे में आज भी ठीक से स्पष्टता नहीं हो पाई है और आए दिन नए-नए लक्षण बताए जा रहे हैं, उसके महामारी बनने की सुनिश्चित भविष्यवाणी तब कर दी गई थी, जब इससे कोई मर ही नहीं रहा था। आख़िर कुछ लोगों को कोरोना के महामारी बनने के भवितव्य का ही इलहाम क्यों आया, इसके पूरे लक्षणों का इलहाम क्यों नहीं आया? कुछ लोग कह रहे हैं कि यह महामारी इसलिए है कि इसमें कई बार मरीज़ ख़ुद को ठीक महसूस करता है, पर ऑक्सीजन स्तर घटता है और वह अचानक मौत का शिकार हो जाता है। ऐसे लोगों से कहूँगा कि आप बीमारियों के बारे कुछ और गहराई से समझिए। ऐसी दर्जनों बीमारियाँ हैं, जो साइलेण्ट किलर कही जाती हैं। जब तक मरीज समझ पाता है, तब तक मौत का रास्ता चुनने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचता। गुर्दे की कई बीमारियों में मरीज़ अच्छा-भला महसूस करता है और अचानक पता चलता है कि उसकी किडनी फेल हो गई हैं। शूटिङ्ग में व्यस्त अच्छा-भला महसूस कर रहे अमिताभ बच्चन को अचानक पता चलता है कि उनका लिवर पचहत्तर प्रतिशत समाप्त हो चुका है। यह बात अलग है कि इसका इलाज सम्भव हो पाया और वे अभी तक सक्रिय हैं। आदमी अच्छा-भला महसूस करता है, बोल-बतिया रहा होता है और अचानक हार्ट अटैक हो जाता है और कई बार अस्पताल पहुँचने के पहले ही प्राण पखेरू उड़ जाते हैं। याद रखिए, कोरोना में लक्षण आते ज़रूर है और यह आपको सावधान होने के बार-बार सङ्केत देता है। जो सही ढङ्ग से सावधान होते हैं, प्रकृति के सङ्केतों को समझ कर थोड़े उपाय भी ठीक से कर लेते हैं, वे आराम से बच जाते हैं। ज़्यादातर वे लोग मौत के शिकार हो रहे हैं, जो डर कर अस्पताल पहुँचते हैं और साधारण फ्लू के लिए ख़तरनाक क़िस्म की एलोपैथी दवाएँ खाते हैं। मरने वालों में ज़्यादातर वे लोग हैं, जिन्हें एक्सपेरीमेण्टल दवाएँ तक दी गई हैं। कुछ डॉक्टर तो इसलिए भी मौत के शिकार हो गए कि कोरोना से सुरक्षा के नाम पर उन्होंने स्वस्थ रहते हुए भी हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन का नियमित इस्तेमाल किया था। याद रखने की बात है कि लोग कोरोना से घरों में नहीं, बल्कि अस्पतालों में भर्ती होने के बाद मर रहे हैं।

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यह भी समझ लेना चाहिए कि जो लोग वैक्सीन का बेसब्री से इन्तज़ार कर रहे हैं, उनके हाथ ज़्यादा कुछ नहीं आने वाला। अगर यह सचमुच आरएनए वायरस है और अपने आपको बार म्यूटेट कर रहा है; अब तक ख़ुद को चौदह बार से ज़्यादा बदल चुका है, तो किसी भी वैक्सीन का क्या मतलब? हाल यह है कि डब्ल्यूएचओ एक तरफ़ वैक्सीन के लिए कम्पनियों को प्रेरित कर रहा है और दूसरी तरफ़ बार-बार बयान दे रहा है कि हो सकता है कि कोरोना की सटीक या रामबाण दवा कभी आए ही नहीं। आज भी एक बयान आया है। मतलब यही है कि ढेर सारी तैयारियों के बीच कुछ वैक्सीन तो आएँगी ही आएँगी और उन्हें नियम-कानून बनाकर लोगों की मांसपेशियों में इञ्जेक्शन या और तरीक़ों से ठोंका भी जाएगा, पर बीमारी से वे कितना और कब तक बचाएँगी, इसकी कोई गारण्टी नहीं होगी। जिस वैक्सीन को कारगर कहा जाएगा, वह कुछ समय बाद वह बेअसर भी घोषित कर दी जाएगी।

मेरी सलाह बस वही है, जो मैं ख़ुद कर रहा हूँ। कोरोना की ख़बरों पर बेवजह निगाह टिकाने की ज़रूरत नहीं है। मैं ज़रूरत पड़ने पर आँकड़ों को बस आँकड़ों की तरह देख लेता हूँ। मास्क, हैण्ड सेनेटाइज़र के बाहरी उपाय ज़्यादा काम नहीं आएँगे, भीतर की इम्युनिटी मज़बूत करना सही तरीक़ा है। फेफड़ों को इतना मज़बूत बनाइए कि ऐसे किसी वायरस का कोई असर न हो। यह अच्छा तरीक़ा है और इसके बारे में मैं कुछ यूट्यूब वीडियो बना ही चुका हूँ। दुर्भाग्य से कई अन्य वीडियो की तरह फेफड़ों वाला वीडियो भी यूट्यूब ने डिलीट कर दिया है। चैनल का प्रमोशन भी फार्मा कम्पनियों के इशारे पर एकदम से रोक दिया गया है, पर कौन कितने दिन किसको रोक पाएगा? बातें निकलती हैं तो दूर तलक चली ही जाती हैं।

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लेखक संत समीर वरिष्ठ पत्रकार के अलावा स्वास्थ्य मामलों के विशेषज्ञ हैं

https://youtu.be/rM1tVLifETc
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2 Comments

2 Comments

  1. Manish Kumar singh

    August 4, 2020 at 9:38 pm

    उल्टा-सीधा वाहियात लंबा ज्ञान। पत्रकारों को ये लाइलाज बीमारी है कि अपने से विद्वान किसी को मानते ही नहीं।

  2. Manish

    August 4, 2020 at 10:26 pm

    Lekhak fijul ki bakbas kar raha hai . Ise samjh kuch ata nahi hai ..bas fenkna suru … bharat ki samshya hi yahi hai … har aadmi apne aap ko dusre ke field ka expert samjhata hai or dusron ko mahamurkh . …. khass tor se medical chetra me har koi sabse bada gyni hai …
    Corona se bachne ka ek hi rasta hai social distancing…. mask or apna exposure time kam rakhiy …. kyonki agat aap asymptomatic wale hain to thik hai agar aapka lung jyda involve hota hai to koi bhi ilaz kargar nahi hai … ventilators par jane ke baad koi rasta nahi hai …. atah sawdhani rakhiy or koshish karni hai ki aapka exposure kam se kam ho …. na ho ye nahi ho sakta hai … virus ka community transmission ho gaya hai …. sarkar ankaren chupa rahi hai ..

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