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‘छापा’ को ‘कार्रवाई’ क्यों कह रहा है ‘दैनिक बकवासकर’

Prakash Bhatnagar-

कमाल का कंट्रास्ट है। एक तरफ आप कह रहे हैं कि आप डरते नहीं। दूसरी तरफ पिद्दी भर के शब्द ‘छापे’ ने आपकी जैसे घिग्घी बांध दी है। यहां सीधा-सीधा छापा पड़ा है और आप इस सच से उलटा-उलटा जाकर इसे ‘कार्रवाई’ लिख रहे हो। उस पर तुर्रा यह कि आप ऐसा करने के साथ ही सच की राह पर चलने की बात भी कह रहे हो। यदि ये बहादुरी और यही सच है तो फिर समय आ गया है कि ‘बुजदिली’ तथा ‘फरेब’ को नए सिरे से परिभाषित किया जाए। वो साइकिल सवार याद आ गया, जो होशियारी में स्टंट करते हुए गिर गया। लोगों ने गिरने की वजह पूछी तो पूरी हेकड़ी के साथ बोला, ‘गिरा नहीं हूं। मेरा तो साइकिल से उतरने का तरीका ही ऐसा है।’ आप भी आसमान की तरफ देखकर चलते हुए अचानक लड़खड़ाए तो इसे भी खुद की अदा ही साबित करने में जुट गए।

और फिर वो आपकी ‘जिद’ वाली पत्रकारिता का क्या हुआ! वो जिद जिस में आप किसी और के खिलाफ हुई ऐसी कार्रवाई के कवरेज के लिए पिल पड़ते हैं। ‘करोड़ों का आसामी निकला’ ‘ लॉकर उगलेगा करतूतों का कच्चा चिट्ठा’ आदि शब्द तो आपकी तथाकथित धारदार पत्रकारिता की पहचान हुआ करते थे। लेकिन आज आपके रिपोर्टर इन शब्दों को जैसे भूल गए दिखते हैं। और ऐसे मामलों में आरोपी पक्ष के फोटो के साथ ‘…और कार्रवाई के बीच मुंह छिपाता फलाना’ जैसे छीछालेदर की भावना से भरे इन फोटो कैप्शन का क्या हुआ?

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कल तो लगता है कि आपके फोटो जर्नलिस्ट सामूहिक अवकाश पर थे। वरना इतना बड़ा इवेंट हो और संबंधित पक्ष की इज्जत का भट्टा बिठाने में आप सचित्र तरीके से पीछे रह जाएं, ऐसा संभव ही नहीं था। उफ! पहले पेज पर एक क्रॉसर की कितनी कमी खल रही है। जिस क्रॉसर के जरिये आप पाठक को बताते थे कि इस मामले से जुड़ी आपकी और खास रिपोर्ट अंदर के किसी पेज पर भी है। वो पेज, जिस पर आपका हरावल दस्ता आरोपी पक्ष की खाल खींचने के कौशल का प्रदर्शन करता था। आप का न्यूज रूम ऐसी किसी भी खबर के लिए ‘360 डिग्री के एंगल’ वाली हुंकार से गूंजता है, तो फिर इस खबर के साथ क्यों कर ‘दफा 376’ जैसा दुर्व्यवहार किया गया! क्या ये भी आपकी किसी ‘निडरता’ का ही परिचायक है?

अब ये ‘…चलेगी पाठकों की मर्जी’ वाला मामला क्या है? क्या ये पाठकों की ही मर्जी थी कि आपने हर मर्तबा किसी राष्ट्रीय या विश्व स्तर के संकट के सुअवसर का फायदा उठाते हुए थोकबंद तरीके से अपने लोगों की नौकरी छीन ली थी? क्या ये पाठकों ने ही कहा था कि अपने दफ्तर के आसपास लगी सरकारी जमीन पर कब्जा कर लो? शायद रीडर की मर्जी के अनुसार ही एक पहाड़ी पर कब्जा कर वहां विशाल व्यावसायिक केंद्र खोलने का आपने निर्णय लिया होगा। ये मर्जी भी आपको पढ़ने वालों की ही रही होगी कि आपके स्टाफ में जो मजीठिया की बात कहे, उसे जुबान सिलने की हद तक का सबक सिखा दिया जाना चाहिए। फिर तो होली को पानी की बबार्दी वाला त्यौहार बताने का फैसला भी आपने पाठकों की मर्जी के आधार पर ही लिया होगा। धन्य हैं ऐसे पाठक (यदि वह वास्तव में हैं तो) और धन्य है उनकी मर्जी का ऐसा सम्मान करने वाले आप।

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अब ऐसी मर्जी यदि असंख्य लोगों का मर्ज बन गयी तो इसमें भला आपकी क्या गलती है! पाठक ने ही तो कहा होगा कि आप संदिग्ध लेन-देन करो। उसने ही आपको फर्जी कंपनियां, एनजीओ बनाकर इधर का माल उधर करने का हुनर अपनाने के लिए मजबूर किया होगा। ना ना! अब ये मत कहियेगा कि ये सब बेबुनियाद बातें हैं। क्योंकि दाल में बहुत कुछ काला तो है। यदि आप इतने ही पाक-साफ हैं तो फिर क्यों किसी ‘कार्रवाई’ से आपको शिकायत है? क्यों आप उन ‘मर्जीदारों’ को शांत नहीं कर रहे जो इस ‘कार्रवाई’ को अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला बता रहे हैं? आप तो सच कहने की बात कहते हैं तो फिर ये सच क्यों नहीं बता रहे कि छापा केवल आपके अखबार नहीं, बल्कि ‘डीबी कार्प’ समूह पर पड़ा है? जांच के दायरे में आपकी खबरें नहीं, बल्कि वो गतिविधियां हैं, जो पहली ही नजर में गलत दिखाई देती हैं।

मेहरबानी करके ये नसीहत मत दीजियेगा कि ये सब लिखने से पहले हमें सच के सामने आने का इंतजार करना चाहिए। क्योंकि इंतजार तो आपकी फितरत में है ही नहीं। इधर किसी पर कोई आरोप लगा और उधर दन्न से आपके पन्ने उसकी आबरू उछालने लगते हैं। ऐसे उदाहरण अनंत हैं। उनमें से एक आपको याद दिलाता हूं। एक साहब के यहां छापा पड़ा था। वह आपकी तरह समझदार नहीं थे कि इसे ‘कार्रवाई’ बताकर इसकी गंभीरता को कुछ कम कर पाते। न ही उनकी ये हैसियत थी कि इस कार्रवाई का कोई प्रायोजित विरोध करवा पाते। बाकी सभी की तरह आपने भी उस व्यक्ति की तस्वीरों सहित वे तमाम बातें प्रकाशित कर दीं, जिनकी तब तक किसी भी स्तर पर पुष्टि तक नहीं हुई थी। बाद में वो आदमी बेदाग निकला।

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उस पर गलत कमाई का आरोप साबित ही नहीं हुआ। लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। जब छापा पड़ा और उसकी खबरें छपीं, तब उस शख्स की एक बेटी का रिश्ता तय हो चुका था। लड़के वालों ने वह रिश्ता तोड़ दिया। क्योंकि उन्होंने आपके वैसे ही सच पर यकीन कर लिया था, जैसा गढ़ा गया सच आज आप ने प्रकाशित किया है।

क्या तब आपकी पत्रकारिता ने सच के सामने आ जाने का इंतजार किया था? शायद यह भी पाठकों की ही मर्जी रही होगी। असल में अपने दीगर धंधों और लाभ के लिए आपने पत्रकारिता के सकारात्मक तरीके से देखा ही नहीं। आपने उपहार में करोड़ों बांटकर अपनी प्रसार संख्या को बढ़ाकर एक अखबार समूह की जगह खुद को प्रेशर समूह के तौर पर विकसित करने की कोशिश की है। इसलिए तो आपके लिए अखबार अकेली इंडस्ट्री नहीं हैं, बल्कि इसके जरिए आपको तमाम उद्योगों में पैर पसारने के मौके चाहिए। सरकारों पर दबाव डालकर हर वो कुछ चाहिए जो आपकी मर्जी और आपकी जिद हो।

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यकीनन आप बड़े समूह हैं। लेकिन रामनाथ गोयनका जैसा सम्मानजनक कद कभी हासिल नहीं कर सके हैं। निश्चित ही आपके इस कागज पहुंच घर-घर तक हो चुकी है, फिर भी घरों में रहने वालों के दिल तक पहुंचने के लिए आपको अभी बहुत समय लगेगा। इसलिए निवेदन नहीं बल्कि सलाह है कि जो हो रहा है, उसे अपनी बलिदान गाथा की तरह पेश न करें। अपनी स्थिति पर जरा ईमानदारी से गौर कीजिये। आपको अपने समर्थन में उन लोगों का हवाला देना पड़ रहा है, जिन्होंने इस साल की 26 जनवरी को दिल्ली में शर्मनाक करतूतों को अंजाम देने वालों को अपने प्रकाशनों में कहीं हीरो तो कहीं बेचारा कहकर स्थान दिया था। आप उस शख्स का साथ पाकर गौरवान्वित हैं, जिसने पंद्रह महीने की अपनी सरकार में मीडिया को कुचल कर रख दिया था।

आपको अपने बचाव में उस परिवार के बयान को स्थान देना पड़ रहा है, जिसके पूर्वजों ने 1975 से 1977 के बीच वाले 21 महीनों में लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को बर्बाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। आज वो कायर भी आपके हक में बहादुरी की बात कर रहे हैं, जिन्होंने अपने राज्य की सच्ची तस्वीर दिखाने वाले एक वरिष्ठ पत्रकार पर पुलिस केस कर दिया था। सोचिये, कितनी बुरी स्थिति में कैसे-कैसे चेहरों का आपको साथ लेना पड़ रहा है। ऐसी स्थिति क्यों बनी, यह न आपसे छिपा है और न ही किसी भी और से। ये खोखले दंभ को पालने का नतीजा है। अपनी अकड़ को महानता और अगले की मजबूरी को नौटंकी मानकर आचरण करने का फल है।

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यदि आपने कोरोना से जुड़े सच छापने का काम किया तो ये कोई अहसान नहीं है। ये तो आपके उस फर्ज का हिस्सा है, जो फर्ज आप अपनी सुविधा के अनुसार ही निभाते हैं। आप लिख रहे हैं कि आपके खिलाफ हुई कार्रवाई की जांच में आप पूरा सहयोग कर रहे हैं। तो ये भी आपका फर्ज है। क्यों इसे भी अपनी महानता के तौर पर गिनाने की कोशिश कर रहे हैं? ये ओढ़े गए भ्रम को जरा झटक कर फेंक दीजिये। जुआं कभी किसी का भी सगा नहीं हुआ है। फिर आप तो व्यावसायिक हितों की धुन में ब्लाइंड पे ब्लाइंड खेलते चले जा रहे हैं। सच से आंखें मूंदकर। अंधाधुंध तरीके से। तो फिर बाजी पलटती दिखने पर इस तरह के और गलत दांव लगाने की गलती तो मत कीजिये। कभी सच में सच को देखने का प्रयास करें। अपनी महानता के वर्चुअल पहाड़ के नीचे दबी वास्तविक गलतियों के अंबार को देखें। आपको एक झटके में समझ आ जाएगा कि क्यों पिछले लंबे समय से आपके लिए ‘दैनिक बकवासकर’ का विशेषण प्रयोग में लाया जाने लगा है।

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