विश्व दीपक-
दैनिक भास्कर के ऑफिस में इनकम टैक्स के छापे से हिंदी या इस देश की पत्रकारिता का भविष्य मत तय कीजिए. यह छापेमारी मोदी सरकार और भास्कर समूह के बीच का खेला है जो दिखाई पड़ रहा है. इस खेला का एक तीसरा लेकिन अहम खिलाड़ी है जो दिखाई नहीं पड़ रहा है और वह है भास्कर का सनातन प्रतिद्वंदी — दैनिक जागरण.
पिछले छह साल से जो “भास्कर” सोया हुआ था अचानक सातवें साल में महामारी के बाद जाग उठा. उसे सच्चाई की याद आ गई. आखिर क्यूं भला ?
दैनिक जागरण से बीजेपी की नजदीकी और भास्कर से उसकी प्रतिद्वंदिता जन्मजात है. जागरण के मालिक को बीजेपी राज्य सभा भेज चुकी है. विज्ञापन, टेंडर, ठेके, ज़मीन, प्लॉट आदि के लेन देन में जागरण हावी रहता है. भास्कर का दर्द यही है की वह होना तो जागरण चाहता था लेकिन जगह खाली नहीं थी इसलिए “टेलीग्राफ” की राह चल निकला और करने लगा “ग्राफिटी जर्नलिज्म”. मकसद यही था कि
मोदी सरकार को ताव दिखाकर जागरण को पीछे धकेला जाए और बारगेन किया जाए
यूपी जो अब तक जागरण का गढ़ रहा है, चुनाव से पहले भास्कर वहां धमाकेदार एंट्री मारना चाहता था. यह एक तरह की ब्रांडिंग स्ट्रेटजी थी. इसलिए उसे गंगा में लाशें दिख रहीं वरना उसे अखलाक से लेकर लेह लाधक तक कुछ नहीं दिया
भास्कर ने ताव दिखाया, मोदी सरकार ने कान ही पकड़कर उमेठ दिया. अब डील होगी और दोनों शांत रहेंगे. हिंदी पत्रकारिता वैसे ही बिजुखे की तरह गोबर पट्टी के खेतों पर लाश की तरह लटकी मिलेगी.
पुनश्च: इसका मतलब यह नहीं की भास्कर के यहां इनकम टैक्स की छापेमारी का विरोध नहीं किया जाना चाहिए. पुरजोर विरोध किया जाना चाहिए लेकिन भावुकता पूर्वक इसे लोकतंत्र पर हमला बताने के बजाय इसकी वस्तुगत सचाई समझना चाहिए.