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सुख-दुख

इंडियन एक्सप्रेस में आनंद मोहन जे की इस रिपोर्ट ने बहुतों को विचलित कर दिया!

विष्णु नागर-

हमारे इस सड़े हुए समाज में कोई दूसरा रिपोर्टर इसे मामूली दैनिक घटना की तरह मशीनी ढँग से लिखकर उस दिन का अपना काम निबटा देता तो आश्चर्य नहीं होता। इंडियन एक्सप्रेस के आनंद मोहन जे ने ऐसा नहीं किया। मुझे और बहुतों को कल यह घटना बताकर विचलित कर दिया।बार -बार मन इस रिपोर्ट की तरफ जाता रहा।

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पहले असली घटना।

55 वर्षीय दलित ने अपना नाम नहीं बताया रिपोर्टर को, इसलिए नाम कोई भी रख लीजिए। ख रख लेते हैं। ख के घर के आगे किसी पड़ोसी का कुत्ता टट्टी-पेशाब कर गया। उसने इसकी शिकायत की। विवाद बढ़ गया होगा। पड़ोसी सुनने को राजी नहीं हुआ होगा। उसने इस दलित के खिलाफ गाँठ बाँध ली कि अब इसे तगड़ा मजा चखाना ही है, छोड़ना नहीं है। रिपोर्ट नहीं बताती मगर जो बदला लेने की किसी भी हद तक चला गया, संभव है, वह कोई सवर्ण रहा होगा।

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एक साधारण दलित को फँसाने का आसान तरीका था, उस पर आदतन बलात्कारी होने का आरोप चस्पां करना। अदालत ने छह साल बाद पाया कि यह आरोप न केवल झूठा था बल्कि उससे भी नीचतापूर्ण यह था कि इसके लिए परिवार से संबद्ध चार लड़कियों का इस्तेमाल किया गया। उनसे गवाही दिलवाई गई कि उनके साथ इसने समय- समय पर बलात्कार किया है। पितृसत्तात्मक दबाव में उन्होंने झूठ बोलने से गुरेज़ नहीं किया होगा मगर उन बच्चियों के लिए पुलिस तथा अदालत के सामने ऐसा कहना कम यातनादायक नहीं रहा होगा।

एक महीने पहले यह दलित तिहाड़ जेल से छूटा है।

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कहानी इतनी ही नहीं है।इसकी भयावहता का पता उसकी मनस्थिति से चलता है,जो जेल में थी। जेल की कोठरी मे नींद आने पर सपने में वह पक्षी की तरह उड़ने लगता था। नीचे उसे जैसे ही उसे अपनी परेशानहाल पत्नी दीखती तो वह धड़ाम से नीचे गिर पड़ता। फिर वह बस में चढ़ता तो उसका सपना टूट जाता। जेल की दीवारों की हकीकत सामने आ जातीं। छूटने के बाद अब यह सपना उसे नहीं आता,जबकि वह फिर से कम से कम एक बार यह सपना देखना चाहता है।

कहानी यहाँ भी खत्म नहीं होती। और भी भयावह यह है कि अब वह घर बाहर जाने से घबराने लगा है। बाहर जाता है तो अपने घर का रास्ता भूल जाता है। भूख अब उसे नहीं लगती।उसे इतनी थकान महसूस होती है हर समय कि काम करने की हिम्मत नहीं।

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वह खुद कहता है कि अब मेरा दिमाग काम नहीं करता, जबकि वह पहले एक बड़े बैंक अफसर के घर चौकीदार था। मालिक उसके कहते हैं कि जैसे उसके पैर में स्प्रिंग लगा हो।वह काम करता ही रहता था। ड्यूटी के बाद भी भागने की उसे जल्दी नहीं होती थी।

उसकी उम्र में कुछ बड़ी 58 साला पत्नी अब सड़क पर रद्दी कागज आदि बीनकर कभी सौ रुपये , कभी और भी कम कमाती है। उसका तीस साल का बेटा बारह घंटे मजदूरी करके 12000 रुपये कमाता है। घर तो शायद किसी तरह इससे चला लिया जाता होगा मगर परिवार के सिर पर अब पाँच लाख रुपयों का कर्ज चढ़ है। उसे चुकाना है। अदालत ने इस निरपराध को छह साल जेल में रखने के आरोप में सरकार से उसे एक लाख रुपये का मुआवजा देने को कहा है। जिस देश में सर्वोच्च न्यायालय कहता हो कि सरकार हमारी नहीं सुनती, वहाँ स्थानीय अदालत के आदेश का सम्मान हो जाए, इसे चमत्कार से कम मानना मुश्किल है।

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वह बैंक के जिन बड़े साहब के यहाँ चौकीदार था, उन्होंने जरूर उसका साथ दिया। उसके बलात्कारी न होने के पक्ष में अदालत में वे खड़े हुए।

जेल में उसका सहारा बाइबिल थी। उसे मुश्किल से ही समझ में आता था कि इन वाक्यों का अर्थ क्या है मगर उसे इतना समझ में जरूर आया कि ईश्वर हमसब का एक है। इसके प्रभाव में वह बताता है कि उसने अपने पर झूठा आरोप लगानेवालों को माफ कर दिया है। उसके मन में उनके प्रति अब कोई नफरत नहीं बची है, जबकि दलित होने के नाते उसकी जिंदगी के उन्होंने छह साल बर्बाद कर दिए।

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जेल में एक ही राहत थी, जिसने उसे बचाकर रखा,वह यह थी कि उसे वहाँ चित्रकारी सीखने का मौका मिला।उसने हिंदू देवी- देवताओं, नेताओं के चित्र बनाए।दीपिका पादुकोण शायद उसकी प्रिय हीरोइन है,उनकी तस्वीरें भी बनाईं।बैंकों से संबंधित विज्ञापन चित्रित किए।

यह तो एक कहानी है। ऐसी लाखों कहानियाँ हैं।बस उन तक पहुँचने वाले आनंद मोहन दो- चार ही होंगे।कभी जाऊँगा उनके दफ्तर और उन्हें धन्यवाद देकर आऊँगा। उनके पास कम वक्त होगा तो उनसे चाय पिऊँगा। ज्यादा वक्त उनके पास हुआ तो कहूँगा आइए,आज मैं चाहता हूँ कि कहीं चलें और मैं आपको चाय पिलाऊँ। फिर पूछूँगा,यह बताइए मेरे युवा साथी,तुमने यह आँख कहाँ से पाई? अगर आज तुम मेरी भाषा के किसी बड़े अखबार के रिपोर्टर हुए होते तो एडीटर की बात तो छोड़ो,कुछ सभ्य किस्म का मेट्रो एडीटर हुआ होता तो कहता अच्छा ठीक है,देखता हूँ। एडीटर से बात करता हूं । फिर तुम्हारी आँख बचाकर इसे कूड़ेदान में फेंक देता।तुम पूछते तो कहता,एडीटर साहब कह रहे थे कि ये लड़का क्या डाऊन मार्केट स्टोरी करता रहता है। इससे कहो कि आगे से जो करना है, तुमसे ठीक से पूछ कर किया करे।अखबार का कीमती वक्त ऐसी फालतू स्टोरीज पर खर्च न करे।

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उजड्ड मेट्रो एडीटर तो तुम्हारी आँखों के सामने ही इसे फेंक देता और कहता-बकवास।ये तुम क्या- क्या फालतू काम करते रहते हो, आनंद। नौकरी करो, नोकरी। कहानियाँ लिखना हो तो हंस और कथादेश में लिखो। वहाँ कम से कम दस लोग तो पढ़ेंगे। यहाँ हमारे रीडर के पास बकवास पढ़ने की फुरसत नहीं है, समझे! इसलिए इंडियन एक्सप्रेस को भी धन्यवाद।

इसे कुछ लोग हमारी इस भाषा को जोश में आकर राष्ट्रभाषा कहते हैं, कुछ इसे राजभाषा। 14 सितंबर को राजभाषा दिवस है। इसे कुछ लोग हिंदी दिवस भी कहते हैं। अमूमन इसकी पत्रकारिता का यह सीन है।

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