क्या यह दलित राजनीति की दरिद्रता नहीं है कि यह केवल आरक्षण तक ही सीमित
हो कर रह जाती है या इसे जानबूझ कर सीमित कर दिया जाता है? क्या दलितों
की भूमिहीनता, गरीबी, बेरोज़गारी, अशिक्षा, तथा सामाजिक एवं आर्थिक शोषण
एवं पिछड़ापन दलित राजनीति के लिए कोई मुद्दा नहीं है? भाजपा भी आरएसएस के
माध्यम से चुनाव में आरक्षण के मुद्दे को जानबूझ कर उठवाती है ताकि
दलितों का कोई दूसरा मुद्दा चुनावी मुद्दा न बन सके। इसके माध्यम से वह
हिन्दू मुस्लिम की तरह आरक्षण समर्थक और आरक्षण विरोधियों का ध्रुवीकरण
करने का प्रयास करती है जैसा कि पिछले बिहार चुनाव से पहले किया गया था.
ऐसा करके वह दलित नेताओं का काम भी आसान कर देती है क्योंकि इससे उन्हें
दलितों के किसी दूसरे मुद्दे पर चर्चा करने की ज़रुरत ही नहीं पड़ती। इसी
लिए तो दलित पार्टियां को चुनावी घोषणा पत्र बनाने और जारी करने की
ज़रूरत नहीं पड़ती। परिणाम यह होता है कि दलित मुद्दे चुनाव के केंद्र
बिंदु नहीं बन पाते.
इसके मुकाबले में ज़रा डॉ. आंबेडकर की राजनीतिक पार्टियों के घोषणा पत्र
पढ़िए जो कि बहुत व्यापक और रैडिकल होते थे। कृपया इस संबंध में
www.dalitmukti.blogspot.com पर ” डॉ. आंबेडकर और जाति की राजनीति” आलेख
पढ़िए और उसकी तुलना वर्तमान दलित राजनीति से कीजिये। इसके विवेचन से एक
बात बहुत स्पष्ट हो जाती है कि डॉ. आंबेडकर जाति की राजनीति के कतई
पक्षधर नहीं थे क्योंकि इस से जाति मजबूत होती है. इस से हिंदुत्व मजबूत
होता है जो कि जाति व्यवस्था की उपज है. डॉ. आंबेडकर का लक्ष्य तो जाति
का विनाश करके भारत में जातिविहीन और वर्गविहीन समाज की स्थापना करना था.
डॉ. आंबेडकर ने जो भी राजनैतिक पार्टियाँ बनायीं वे जातिगत पार्टियाँ
नहीं थीं क्योंकि उन के लक्ष्य और उद्देश्य व्यापक थे. यह बात सही है कि
उनके केंद्र में दलित थे परन्तु उन के कार्यक्रम व्यापक और जाति निरपेक्ष
थे. वे सभी कमज़ोर वर्गों के उत्थान के लिए थे. इसी लिए जब तक उन द्वारा
स्थापित की गयी पार्टी आरपीआई उन के सिद्धांतों और एजंडा पर चलती रही तब
तक वह दलितों, मजदूरों और अल्पसंख्यकों को एकजुट करने में सफल रही. जब तक
उन में आन्तरिक लोकतंत्र रहा और वे जन मुद्दों को लेकर संघर्ष करती रही
तब तक वह फलती फूलती रही. जैसे ही वह व्यक्तिवादी और जातिवादी राजनीति के
चंगुल में पड़ी उसका पतन हो गया. यह अति खेद की बात है कि वर्तमान दलित
राजनीति व्यक्तिवाद, जातिवाद, अवसरवाद, भ्रष्टाचार और मुद्दाविहिनता का
बुरी तरह से शिकार हो गयी है. इसका दुष्परिणाम यह हुआ है कि दलित वर्ग जो
कि सामाजिक तौर पर उपजातियों में विभाजित है, अब राजनितिक तौर पर भी बुरी
तरह से विभाजित हो गया है जिसका लाभ सबसे अधिक हिंदुत्व की पक्षधर पार्टी
भाजपा ने उठाया है. पिछले लिक्सभा चुनाव से यह बात बिलकुल स्पष्ट हो गयी
है और वर्तमान विधानसभा चुनाव में भी इसकी महत्वपूरण भूमिका रहेगी.
यह दलित राजनीति की त्रासदी ही है कि गैरदलित पार्टियों को तो छोडिये,
दलित राजनीतिक पार्टियाँ भी दलितों के ठोस मुद्दों पर कोई संघर्ष करने की
बजाये चुनाव में जाति के नाम पर उनका भावनात्मक शोषण करके वोट बटोर लेती
हैं और दलित जैसे थे वैसे ही बने रहते हैं. अतः मेरा यह निश्चित मत है कि
जब तक दलित राजनीति जाति की राजनीति के मक्कड़जाल से निकल कर व्यापक दलित
मुद्दों पर नहीं आएगी तब तक दलितों का उद्धार नहीं हो सकेगा। इसके लिए
दलित राजनीति को एक रेडिकल एजंडा अपनाना होगा. आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट
ने इस दिशा में एक बड़ी पहल की है.
S.R.Darapuri I.P.S.(Retd)
National Spokesman,
All India Peoples Front
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