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सियासत

मायावती का दलित वोट बैंक क्यों खिसका?

हाल में उत्तर प्रदेश में हुए विधान सभा चुनाव में मायावती और उनकी बहुजन समाज पार्टी की बुरी तरह से हार हुयी है। इस चुनाव में उसके बहुमत से सरकार बनाने के दावे के विपरीत उसे कुल 19 सीटें मिली हैं जिनमें शायद केवल एक ही आरक्षित सीट है। उसके वोट प्रतिशत में भी भारी गिरावट आयी है। एनडीटीवी के विश्लेषण के अनुसार इस चुनाव में उत्तर प्रदेश में बसपा को दलित वोटों का केवल 25% वोट ही मिला है जबकि इसके मुकाबले में सपा को 26% और भाजपा को 41% मिला है। दरअसल 2007 के बाद बसपा के वोट प्रतिशत में लगातार गिरावट आयी है जो 2007 में 30% से गिर कर 2017 में 22% पर पहुँच गया है। इसी अनुपात में बसपा के दलित वोटबैंक में भी कमी आयी है। अभी तो बसपा के वोटबैंक में लगातार आ रही गिरावट की गति रुकने की कोई सम्भावना नहीं दिखती। मायावती ने वर्तमान हार की कोई ईमानदार समीक्षा करने की जगह ईवीएम में गड़बड़ी का शिगूफा छोड़ा है। क्या इससे मायावती इस हार के लिए अपनी जिम्मेदारी से बच पायेगी या बसपा को बचा पायेगी?

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हाल में उत्तर प्रदेश में हुए विधान सभा चुनाव में मायावती और उनकी बहुजन समाज पार्टी की बुरी तरह से हार हुयी है। इस चुनाव में उसके बहुमत से सरकार बनाने के दावे के विपरीत उसे कुल 19 सीटें मिली हैं जिनमें शायद केवल एक ही आरक्षित सीट है। उसके वोट प्रतिशत में भी भारी गिरावट आयी है। एनडीटीवी के विश्लेषण के अनुसार इस चुनाव में उत्तर प्रदेश में बसपा को दलित वोटों का केवल 25% वोट ही मिला है जबकि इसके मुकाबले में सपा को 26% और भाजपा को 41% मिला है। दरअसल 2007 के बाद बसपा के वोट प्रतिशत में लगातार गिरावट आयी है जो 2007 में 30% से गिर कर 2017 में 22% पर पहुँच गया है। इसी अनुपात में बसपा के दलित वोटबैंक में भी कमी आयी है। अभी तो बसपा के वोटबैंक में लगातार आ रही गिरावट की गति रुकने की कोई सम्भावना नहीं दिखती। मायावती ने वर्तमान हार की कोई ईमानदार समीक्षा करने की जगह ईवीएम में गड़बड़ी का शिगूफा छोड़ा है। क्या इससे मायावती इस हार के लिए अपनी जिम्मेदारी से बच पायेगी या बसपा को बचा पायेगी?

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यद्यपि कुछ बसपा समर्थकों ने इन आंकड़ों के सही होने के बारे में प्रश्न उठाया है परंतु उत्तर प्रदेश में दलित जातियों की संख्या के विश्लेषण से यह आंकड़ा सही प्रतीत होता है। आइये सब से पहले उत्तर प्रदेश में दलितों की आबादी देखी जाये और फिर उसमें मायावती को मिले वोटों का आंकलन किया जाये. उत्तर प्रदेश में दलितों की आबादी कुल आबादी का 21% है और उनमे लगभग 66 उपजातियां हैं जो सामाजिक तौर पर बटी हुयी हैं. इन उप जातियों में जाटव /चमार – 56%, पासी – 16%, धोबी, कोरी और बाल्मीकि – 15%, गोंड, धानुक और खटीक – 5% हैं. 9 अति- दलित उप जातियां – रावत, बहेलिया खरवार और कोल 5% हैं. शेष 49 उप जातियां लगभग 3% हैं.

चमार/ जाटव आजमगढ़, आगरा, बिजनौर , सहारनपुर, मुरादाबाद, गोरखपुर, गाजीपुर, सोनभद्र में हैं. पासी सीतापुर, राय बरेली, हरदोई, और इलाहाबाद जिलों में हैं. शेष समूह जैसे धोबी, कोरी, और बाल्मीकि लोगों की अधिकतर आबादी बरेली, सुल्तानपुर, और गाज़ियाबाद जनपदों में है. आबादी के उपरोक्त आंकड़ों के आधार पर मायावती की बसपा पार्टी को अब तक बिभिन्न चुनावों में मिले दलित वोटों और सीटों का विश्लेषण करना उचित होगा. अब अगर वर्ष 2007 में हुए विधान सभा चुनाव का विश्लेष्ण किया जाये तो यह पाया जाता है कि इस चुनाव में बसपा को 87 अरक्षित सीटों में से 62 तथा समाजवादी (सपा) पार्टी को 13, कांग्रेस को 5 तथा बीजेपी को 7 सीटें मिली थीं. इस चुनाव में बसपा को लगभग 30% वोट मिला था. इस से पहले 2002 में बसपा को 24 और सपा को 35 आरक्षित सीटों में विजय प्राप्त हुई थी. वर्ष 2004 में हुए लोक सभा चुनाव में बसपा को कुल आरक्षित 17 सीटों में से 5 और सपा को 8 सीटें मिली थी और बसपा का वोट बैंक 30% के करीब था.

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वर्ष 2009 में हुए लोक सभा चुनाव में बसपा को आरक्षित 17 सीटों में से 2, सपा को 10 और कांग्रेस को 2 सीटें मिली थीं. इस चुनाव में बसपा का वोट बैंक 2007 में मिले 30% से गिर कर 27% पर आ गया था. इसका मुख्य कारण दलित वोट बैंक में आई गिरावट थी क्योंकि तब तक मायावती के बहुजन के फार्मूले को छोड़ कर सर्वजन फार्मूले को अपनाने से दलित वर्ग का काफी हिस्सा नाराज़ हो कर अलग हो गया था. यह मायावती के लिए खतरे की पहली घंटी थी परन्तु मायावती ने इस पर ध्यान देने की कोई ज़रुरत नहीं समझी.
अब अगर 2012 के विधान सभा चुनाव को देखा जाये तो इसमें मायावती की हार का मुख्य कारण अन्य के साथ साथ दलित वोट बैंक में आई भारी गिरावट भी थी. इस बार मायावती 89 आरक्षित सीटों में से केवल 15 ही जीत पायी थीं जबकि सपा 55 सीटें जीतने में सफल रही थी. इन 89 आरक्षित सीटों में 35 जाटव/चमार और 25 पासी जीते थे इस में सपा के 21पासी और मायावती के 2 पासी ही जीते थे।मायावती की 16 आरक्षित सीटों में 2 पासी और 13 जाटव/चमार जीते थे. इस विश्लेषण से स्पष्ट है कि इस बार मायावती की आरक्षित सीटों पर हार का मुख्य कारण दलित वोटों में आई गिरावट भी थी. इस बार मायावती का कुल वोट प्रतिशत 26% रहा था जो कि 2007 के मुकाबले में लगभग 4% घटा था.
मायावती द्वारा 2012 में जीती गयी 15 आरक्षित सीटों का विश्लेषण करने से पाता चलता है कि उन्हें यह सीटें अधिकतर पच्छिमी उत्तर प्रदेश में ही मिली थीं जहाँ पर उसकी जाटव उपजाति अधिक है. मायावती को पासी बाहुल्य क्षेत्र में सब से कम और कोरी बाहुल्य क्षेत्र में भी बहुत कम सीटें मिली थीं. पूर्वी और मध्य उत्तर प्रदेश में यहाँ प़र चमार उपजाति का बाहुल्य है वहां पर भी मायावती को बहुत कम सीटें मिली थीं। मायावती को पशिचमी उत्तर प्रदेश से 7 और बाकी उत्तर प्रदेश से कुल 8 सीटें मिली थीं। इस चुनाव में यह भी उभर कर आया था कि जहाँ एक ओर मायावती का पासी, कोरी, खटीक, धोबी और बाल्मीकि वोट खिसका था वहीँ दूसरी ओर चमार/जाटव वोट बैंक जिस में लगभग 70% चमार (रैदास) और 30% जाटव हैं में से अधिकतर चमार वोट भी खिसक गया था। इसी कारण से मायावती को केवल पच्छिमी उत्तर परदेश जो कि जाटव बाहुल्य क्षेत्र है में ही अधिकतर सीटें मिली थीं। एक सर्वेक्षण के अनुसार मायावती का लगभग 8% दलित वोट बैंक टूट गया था.

2014 के लोकसभा चुनाव में मायावती को एक भी सीट नहीं मिली थी। इस चुनाव में उसका वोट प्रतिशत 19.6% रह गया था। इस चुनाव में भी चमार/जाटव वोट का बड़ा हिस्सा मायावती से अलग हो गया था परंतु मायावती ने इससे कोई सबक नहीं लिया जिसका खामियाजा इस चुनाव में भुगतना पड़ा है। मायावती के दलित वोट बैंक खिसकने का मुख्य कारण मायावती का भ्रष्टाचार, विकासहीनता, दलित उत्पीड़न की उपेक्षा और तानाशाही रवैय्या रहा है . मायावती द्वारा दलित समस्याओं को नज़र अंदाज़ कर अंधाधुंध मूर्तिकर्ण को भी अधिकतर दलितों ने पसंद नहीं किया है. सर्वजन को खुश रखने के चक्कर में मायावती द्वारा दलित उत्पीड़न को नज़र अंदाज़ करना भी दलितों के लिए बहुत दुखदायी सिद्ध हुआ है. दलितों में एक यह धारणा भी पनपी है कि मायावती सरकार का सारा लाभ केवल मायावती की उपजाति खास करके चमारों/जाटवों को ही मिला है जो कि वास्तव में पूरी तरह सही नहीं है. इस से दलितों की गैर चमार/जाटव उपजातियां प्रतिक्रिया में मायावती से दूर हो गयी हैं. अगर गौर से देखा जाये तो यह उभर कर आता है कि मायावती सरकार का लाभ केवल उन दलितों को ही मिला है जिन्होंने मायावती के व्यक्तिगत भ्रष्टाचार में सहयोग दिया है. इस दौरान यह भी देखने को मिला है कि जो दलित मायावायी के साथ नहीं थे बसपा वालों ने उन को भी प्रताड़ित किया था. उनके उत्पीडन सम्बन्धी मामले थाने पर दर्ज नहीं होने दिए गए. कुछ लोगों का यह भी आरोप है कि मायावती ने अपने काडर के एक बड़े हिस्से को शोषक, भ्रष्ट और लम्पट बना दिया है जिसने दलितों का भी शोषण किया था. यही वर्ग मायावती के भ्रष्टाचार, अवसरवादिता और दलित विरोधी कार्यों को हर तरीके से उचित ठहराने में लगा रहता है. दलित काडर का भ्रष्टिकरण दलित आन्दोलन की सब से बड़ी हानि है.

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इस के अतिरिक्त बसपा की हार का एक कारण यह भी है कि मायावती हमेशा यह शेखी बघारती रही है कि मेरा वोट बैंक हस्तान्तरणीय है. इसी कारण से मायावती असेम्बली और पार्लियामेंट के टिकटों को धड़ल्ले से ऊँचे दामों में बेचती रही है और दलित उत्पीड़क, माफिया और अपराधियों एवं धनबलियों को टिकट देकर दलितों को उन्हें वोट देने के लिए आदेशित करती रही है। दरअसल मायावती ने दलित राजनीति को उन्हीं गुंडों, माफियाओं, दलित उत्पीड़कों एवं पूंजीपतियों के हाथों बेच दिया है जिनसे उनकी लड़ाई है। इस चुनाव में भी मायावती ने आधा दर्जन ऐसे सवर्णों को टिकट दिया था जो दलित हत्या, दलित बलात्कार और दलित उत्पीड़न के आरोपी हैं । इसी लिए इस बार दलितों ने मायावती के इस आदेश को नकार दिया है और बसपा को वोट नहीं दिया. दूसरे दलितों में बसपा के पुराने मंत्रियों और विधायकों के विरुद्ध अपने लिए ही कमाने और आम लोगों के लिए कुछ भी न करने के कारण प्रबल आक्रोश भी था और इस बार वे उन्हें हर हालत में हराने के लिए कटिबद्ध थे. तीसरे मायावती ने सारी सत्ता अपने हाथों में केन्द्रित करके तानाशाही रवैय्या अपना रखा था जिस कारण कुछ लोगों को छोड़ कर कोई भी व्यक्ति मायावती से नहीं मिल सकता था। मायावती केवल मीटिंगों में भाषण देने के लिए ही आती थीं । इसके इलावा उसका दलितों से कोई संपर्क नहीं रहा है जिसने दलितों की मायावती से दूरी को बढ़ाया है। इसके इलावा मायावती ने जिन छोटी दलित उपजातियों को नज़रअन्दाज़ किया था भाजपा ने उन तक पहुँच बना कर उन्हें चुनाव में टिकट देकर अपने साथ कर लिया।

मायावती की अवसरवादी और भ्रष्ट राजनीति का दुष्प्रभाव यह है कि आज दलितों को यह नहीं पता है कि उन का दोस्त कौन है और दुश्मन कौन है. उनकी मनुवाद और जातिवाद के विरुद्ध लड़ाई भी कमज़ोर पड़ गयी है क्योंकि बसपा के इस तजुर्बे ने दलितों में भी एक भ्रष्ट और लम्पट वर्ग पैदा कर दिया है जो कि जाति लेबल का प्रयोग केवल व्यक्तिगत लाभ के लिए ही करता है. उसे दलितों के व्यापक मुद्दों से कुछ लेना देना नहीं है. एक विश्लेषण के अनुसार उत्तर प्रदेश के दलित आज भी विकास की दृष्टि से बिहार, उड़ीसा राजस्थान और मध्य प्रदेश के दलितों को छोड़ कर भारत के शेष सभी राज्यों के दलितों से पिछड़े हुए हैं. उतर प्रदेश के लगभग 60% दलित गरीबी की रेखा से नीचे जी रहे हैं. लगभग 60% दलित महिलाएं कुपोषण का शिकार हैं. एक ताजा सर्वेक्षण के अनुसार 70% दलित बच्चे कुपोषण का शिकार हैं. अधिकतर दलित बेरोजगार हैं और उत्पादन के साधनों से वंचित हैं. मायावती ने सर्वजन के चक्कर में भूमि सुधारों को जान बूझ कर नज़र अंदाज़ किया जो कि दलितों के सशक्तिकरण का सबसे बड़ा हथियार हो सकता था. मायावती के सर्वव्यापी भ्रष्टाचार के कारण आम लोगों के लिए उपलब्ध कल्याणकारी योजनायें जैसे मनरेगा, राशन वितरण व्यवस्था , इंदिरा आवास, आंगनवाडी केंद्र और वृद्धा, विकलांग और विधवा पेंशन आदि भ्रष्टाचार का शिकार हो गयीं और दलित एवं अन्य गरीब लोग इन के लाभ से वंचित रह गए. मायावती ने अपने आप को सब लोगों से अलग कर लिया और लोगों के पास अपना दुःख/कष्ट रोने का कोई भी अवसर न बचा. इन कारणों से दलितों ने इस चुनाव में मायावती को बड़ी हद तक नकार दिया जो कि चुनाव नतीजों से परिलक्षित है.

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कुछ लोग मायावती को ही दलित आन्दोलन और दलित राजनीति का पर्याय मान कर यह प्रश्न उठाते हैं कि मायावती के हारने से दलित आन्दोलन और दलित राजनीति पर बुरा असर पड़ेगा. इस संबंध में यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि मायावती पूरे दलित आन्दोलन का प्रतिनधित्व नहीं करती है. मायावती केवल एक राजनेता है जो कि दलित राजनीति कर रही है वह भी एक सीमित क्षेत्र : उत्तर प्रदेश और उतराखंड में ही. इस के बाहर दलित अपने ढंग से राजनीति कर रहे हैं. वहां पर बसपा का कोई अस्तित्व नहीं है. दूसरे दलित आन्दोलन के अन्य पहलू सामाजिक और धार्मिक हैं जिन पर दलित अपने आप आगे बढ़ रहे हैं. धार्मिक आन्दोलन के अंतर्गत दलित प्रत्येक वर्ष बौद्ध धम्म अपना रहे हैं और सामाजिक स्तर पर भी उनमें काफी नजदीकी आई है. यह कार्य अपने आप हो रहा है और होता रहेगा. इस में मायावती का न कोई योगदान रहा है और न ही उसकी कोई ज़रुरत भी है. यह डॉ. आंबेडकर द्वारा प्रारम्भ किया गया आन्दोलन है जो कि स्वतस्फूर्त है. हाँ इतना ज़रूर है कि इधर मायावती ने एक आध बौद्ध विहार बना कर बौद्ध धम्म के प्रतीकों का राजनीतिक इस्तेमाल ज़रूर किया है. यह उल्लेखनीय है मायावती ने न तो स्वयं बौद्ध धम्म अपनाया है और न ही कांशी राम ने अपनाया था. उन्हें दर असल बाबा साहेब के धर्म परिवर्तन के जाति उन्मूलन में महत्व में कोई विश्वास ही नहीं है. वे तो राजनीति में जाति के प्रयोग के पक्षधर रहे हैं न कि उसे तोड़ने के. उन्हें बाबा साहेब के जाति विहीन और वर्ग विहीन समाज की स्थापना के लक्ष्य में कोई दिलचस्पी नहीं है. वह दलितों का राजनीति में जातिवोट बैंक के रूप में ही प्रयोग करके जाति की राजनीति को कायम रख कर अपने लिए लाभ उठाना चाहती है।

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उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि मायावती का दलित वोट बैंक बहुत हद तक खिसक गया है। शायद मायावती अभी भी दलितों को अपना गुलाम समझ कर उस से ही जुड़े रहने की खुशफहमी पाल रही है. मायावती की यह नीति कोंग्रेस की दलितों और मुसलामानों के प्रति लम्बे समय तक अपनाई गयी नीति का ही अनुसरण है. मायावती दलितों को यह जिताती रही है कि केवल मैं ही आप को बचा सकती हूँ कोई दूसरा नहीं. इस लिए मुझ से अलग होने की बात कभी मत सोचिये. दूसरे दलितों के उस से किसी भी हालत में अलग न होने के दावे से वह दूसरी पार्टियों से दलितों से दूरी बनाये रखने की चाल भी चल रही है ताकि दलित अलगाव में पड़ कर उस के ही गुलाम बने रहें. पर अब दलित मायावती के छलावे से काफी हद तक मुक्त हो गए हैं. अब यह पूरी सम्भावना है कि उत्तर प्रदेश के दलित मायावती के बसपा प्रयोग से सबक लेकर एक मूल परिवर्तनकारी, अम्बेडकरवादी राजनीतिक विकल्प की तलाश करेंगे और जातिवादी राजनीति से बाहर निकल कर मुद्दा आधारित जनवादी राजनीति में प्रवेश करेंगे. केवल इसी से उनका राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक सशक्तिकर्ण हो सकता है।

एस.आर. दारापुरी
आई.पी.एस. (से.नि.)
राष्ट्रीय प्रवक्ता
आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट
[email protected]

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