माना कि किसी भी व्यक्ति का इतिहास बोध कमजोर हो सकता है लेकिन क्या वह स्वयं अपने भोगे या किये हुए को बदल या झुठला सकता है? अपने होश-ओ-हवास में तो कतई नहीं। फिर हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की ऐसी क्या मजबूरी थी कि उन्हें अभी 5 सितंबर को शिक्षक दिवस के अवसर पर देश भर के बच्चों के साथ अपनी बहुचर्चित वार्ता में एक सफेद झूठ बोलना पड़ा।
थोड़ा विचार करते हैं। उनकी बचपन की शरारतों के विषय में एक बच्चे द्वारा पूछे गये एक सवाल के प्रयुत्तर में उनका कहना था कि वे अपने बाल्यकाल में बहुत शरारती थे। ठीक है, यहाँ तक तो माना जा सकता है, मगर अगले ही पल उन्होंने अपनी बात में जो कुछ जोड़ दिया, उसमें कुछ गड़बड़झाला है। क्यों? इसलिए कि 17 सितंबर, 1950 को जन्मे नरेन्द्र भाई जब किसी बारात जैसे समारोह में शामिल लोगों के कपड़ों पर घर से इरादतन ले जाया गया स्टेपलर लगाने वाला ऐसा नासमझ और शरारती बच्चा रहे होंगे तब तक तो हमारे देश में स्टेपलर नाम की चीज थी ही नहीं।
जानकार लोगों को याद होगा कि 1965 के भारत-पाक युद्ध में कच्छ के रण (गुजरात) तथा राजस्थान के सीमांत क्षेत्र में देश की पराक्रमी सेना ने पाकिस्तान द्वारा युद्ध में झोंके गये अमेरिकी पैटर्न टेंकों तथा सैबर जेट लड़ाकू विमानों का कब्रिस्तान बना दिया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के अमेरिकी दबाव के आगे न झुकते हुए एक दिन भूखा रह कर ‘सोमवारी उपवास’ को हर्ष और उल्लासपूर्वक मनाने तथा उनके ‘जय जवान-जय किसान’ नारे के उस दौर में देश भर में राष्ट्रवाद अपने चरम पर था। इसके बाद भारतीय सेना ने केवल छः साल के मामूली फासले पर 1971 में एक बार फिर पाकिस्तानी सेना को न केवल पराजित कर दिया बल्कि उसके 96 हजार सैनिकों को बंदी बना कर विश्व में अपने सर्वोच्च होने का कीर्तिमान बना डाला। उस पूरे कालखंड में आम भारतीय नागरिक राष्ट्रीय भावना से आह्लादित था। ऐसे समय में सरकारी दफ्तरों का वातावरण पूरी तरह देश प्रेम के रंग में रंगा हुआ दिखाई पड़ता था।
इस सन्दर्भ में एक उदाहरण काफी होगा। तब सभी सरकारी कार्यालयों में सफाई कर्मी व चपरासी से लेकर अधिकारी तक सभी व्यक्ति फर्श या कहीं पर भी पड़ी आलपिन को राष्ट्रीय क्षति रोकने के लिए उसे उठा कर पिनकुशन में रख देते थे। यही नहीं उन दिनों सरकारी कार्यालयों में आने वाली डाक सामग्री के लिफाफों को फाड़ने के बजाय उन्हें बड़े करीने से एक तरफ से काट कर रख लिया जाता और बाहर जाती डाक के लिए उन्हीं खाली लिफाफों का दुबारा इस्तेमाल किया जाता था। पता लिखने के लिए उस पर एक पर्ची चिपकाई जाती थी जिसे एक तरफ से मोड़ कर लिफाफे के दूसरी ओर चिपका कर लिफाफा बंद कर देते थे। दूसरे कार्यालय में जाने पर वहाँ भी लिफाफा फाड़ने के बजाय केवल उसी पता लिखी पर्ची के एक कोने में चाकू या कोई अन्य नुकीली चीज डाल कर लिफाफा खोल लिया जाता और लिफाफा दुबारा इस्तेमाल के लिए संभाल कर रख लिया जाता था। 1965-71 के दौर में लोगों में देशभक्ति की भावना पूरे उफान पर थी। हर संभव कोशिश कर कागज, बिजली तथा अन्य चीजों का दुरुपयोग व फिजूलखर्ची को एकदम बंद कर दिया गया था। तब दफ्तरों में ‘नैशनल लॉस बचाओ’ जैसी एक कार्यशैली ही चल पड़ी थी।
उस जमाने में स्टेपलर जैसी कोई वस्तु प्रचलन में नहीं थी, सर्वत्र आलपिन का ही प्रयोग किया जाता था। इसके साथ ही यहाँ प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है कि शरारती बालक नरेन्द्र के पास वह कैसे आई होगी, यह बात समझ में आने वाली नहीं है। यदि यहाँ मान लिया जाये कि कुछ धनाढ्य और साधन सम्पन्न लोग तब आयातित स्टेपलर का इस्तेमाल करते होंगे तब भी एक गरीब चाय बेचने वाले के बेटे के पास विदेशी स्टेपलर होने का तो सवाल ही नहीं उठता क्योंकि तब देश में इसका उत्पादन नहीं होता था। और जब अपने घर-दफ्तरों में स्टेपलरों का चलन शुरू हुआ, तब शायद नरेन्द्र मोदी इतने छोटे बच्चे नहीं रहे होंगे कि वे घर से स्टेपलर ले जाकर बारातों में लोगों के कपड़ों पर लगा देते।
64 वर्ष की आयु पूरी करने की दहलीज पर खड़े देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने हालिया सम्पन्न चुनावी दौर में सार्वजनिक रूप से इतिहास सम्बंधी कतिपय तथ्यों को जाने अथवा अनजाने गलत बयान किया है। इसे विशुद्ध चुनावी स्टंट माना जा सकता है परन्तु एक जिम्मेदार और समझदार व्यक्ति हंसी-मजाक में भी झूठ बोलने या गलत आचरण से बचने की कोशिश करता है। तो क्या मोदी को एक ऐसा आदमी मान लिया जाये जो अनावश्यक झूठ बोलने को बुरा नहीं मानता। यहाँ पूछा जा सकता है कि बच्चों से झूठ बोल कर मोदी का कौन सा हित-लाभ सध गया? लेकिन इसके साथ ही यह नहीं भूलना चाहिए कि जिसके लिए झूठ या सच बोलना और गलत आचरण एक सामान्य बात हो, उसे इसका कोई फर्क भी महसूस नहीं होता। तभी तो वह बेहद मामूली बातों में भी झूठ बोल कर सामान्य बना रहता है। जैसा कि देश भर के बच्चों के साथ बतियाते हुए मोदी 5 सितंबर को नजर आये। अब उनकी ऐसी ही गलत बयानी को लेकर यदि लोग उन्हें ‘फेंकू’ कहते हैं तो इसके लिए लोग नहीं मोदी स्वयं जिम्मेदार हैं।
बात-बेबात धर्मग्रंथों की दुहाई देने वाले और अपनी जापान यात्रा में वहाँ के प्रधानमंत्री को भगवद्गीता की प्रति भेंट करने वाले मोदी क्या स्वयं भी कभी इस पवित्र ग्रंथ का पाठ करते हैं? यदि करते हैं तो उन्हें योगेश्वर श्री कृष्ण के माध्यम से वेदव्यास जी द्वारा कहलाया गया यह श्लोक (भगवद्गीता-3/21) शिक्षक दिवस जैसे पावन अवसर पर क्यों याद नहीं रहा–
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।
अर्थात्–श्रेष्ठ पुरुष जैसा आचरण करता है, अन्य लोग भी उसके ही अनुसार बर्ताव करते हैं, वह व्यक्ति जो कुछ प्रमाणित कर देता है, लोग भी उसके ही अनुसार बर्तते हैं।
इसी तरह अंग्रेजी में एक कहावत है– devil quotes the scriptures but he can not show you the light अर्थात–शैतान धर्मशास्त्रों का उद्धरण दे सकता है; परन्तु वह आपको प्रकाश नहीं दिखा सकता।
इसलिए देश के शीर्षस्थ आसन पर विराजमान व्यक्ति से मर्यादा, अनुशासन और नियम-कायदों का पालन करने की उम्मीद की जाती है। ताकि देश व समाज में भी आदर्श एवं मूल्यों को बनाये रखा जा सके। यही नहीं यदि आप जिम्मेदार हैं तो न केवल जिम्मेदारी निभाइये बल्कि जिम्मेदार दिखाई देना भी जरूरी है हुजूर।
श्यामसिंह रावत
e-mail: [email protected]
Hari Ram Tripathi
September 15, 2014 at 10:36 am
Sahee kaha. Thanks.