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मध्य प्रदेश

दिग्विजय सिंह ने कमलनाथ को ही दाँव पर लगा दिया!

जयराम शुक्ल

मध्यप्रदेश में अब क्या..क्यों और आगे..! पिछले तीन-चार दिनों से जिस तरह भागते भूत की लगोंटियाँ नीलाम हो रहीं थी (ताबड़तोड़ नियुक्तियां और तबादले) उससे लगने लगा था कि कमलनाथ की कांग्रेस सरकार अब चला-चली की बेरा में है। बहुमत साबित करने के दावे युद्ध हारने के पहले के माइंडगेम मात्र थे, जो ‘बिटवीन द लाइंन्स’ के विधायकों के लिए बेअसर रहे।

पंद्रह साल बाद आयी सरकार रेत के माफिक मुट्ठी से क्यों फिसल गई, इसका कारण भले ही कमलनाथ न जानते हों पर राजनीति में सतही नजर रखने वाला औसत आदमी भी यह जानता था।

सरकार गिरने के बाद एक टीवी चैनल पर जो बात कांग्रेस के पैनलिस्ट मुकेश नायक बयान कर रहे थे वह हर दूसरे कांग्रेसी के दिल में अठारह महीनों से खदबदा रही थी।

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मुकेश नायक सरकार के पतन का ठीकरा दिग्विजय सिंह पर फोड़ रहे थे। उनके सुर पिछले एक हफ्ते से यही थे।

इन अठारह महीनों में सरकार ने क्या किया यह तो कमलनाथ ने इस्तीफा देने के पहले प्रेस कांफ्रेंस में प्रदेश को बता दिया..। लेकिन सरकार गिरने को लेकर उन्होंने जो नैतिकता और मूल्यों की बात की वह कुछ हजम नहीं होती।

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यह सरकार तो पहले दिन से ही मोल-तोल और बड़बोल के साथ चल रही थी।

ज्योतिरादित्य सिंधिया का फैक्टर दोहराने की जरूरत नहीं, वह तो इसके मूल में है ही। कांग्रेस ने जिस सरकार को, जिस कारण स्थानापन्न किया था उन अपेक्षाओं की भरपाई करने में कमलनाथ दशांश भी खरे नहीं उतरे।

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कारपोरेट शैली में सत्ता को हाँकते रहे और अपने चारों ओर एक ऐसा आयरनकर्टन बना लिया जिसमें आम आदमी क्या मंत्री व विधायक भी प्रवेश पाने के लिए ऐंड़ियां रगड़ते रहे।

हर वक्त, सबके लिए, कहीं भी, पाँव-पाँव वाले भैय्या की जो पहचान शिवराज सिंह चौहान ने स्थापित की थी, कमलनाथ उसके ठीक उलटे दिखे।

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जनता और कार्यकर्ता से संवादहीनता उत्तरोत्तर बढ़ती गई। नौकरशाही को तारणहार समझने की जो चूक शिवराज जी ने आखिरी के दो वर्षों में की, कमलनाथ जी ने शुरुआत से ही इसी भूल-गलती को अंगवस्त्रम बनाकर ओढ़ लिया। जमीनी हकीकत से दूर होते गए।

एक उदाहरण। विधानसभा चुनाव में विंध्य की तीस सीटों में से 24 सीटें भाजपा ने जीत ली। “वक्त है बदलाव का” की बहर के बीच भी कांग्रेसी दिग्गज अर्जुन सिंह और श्रीनिवास तिवारी के किले ढह गए। यहां कांग्रेस सन्निपात की स्थिति में आ गई।

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लोकसभा चुनाव में राहुल गांधी के दौरों को छोड़ दें तो इन अठारह महीनों में कमलनाथ इस क्षेत्र के लिए वक्त नहीं निकाल पाए। इस क्षेत्र की जितनी भी महत्वाकांक्षी परियोजनाएं थी उनके बजट रोक दिए। संभाग, जिला, नगरीय निकायों में चुन-चुनकर ऐसे अधिकारी बैठाए जो कमलनाथ के कांग्रेसी प्रतिनिधि की तरह व्यवहार करने लगे।

हद तो यह कि रीवा नगरनिगम के कमिश्नर ने पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान पर ही डंपर और व्यापम का आरोपपत्र जारी कर दिया। एक अफसर के इस दुस्साहस की सजा देने की बजाय कमलनाथ ने इसका मजा लिया।

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मुकेश नायक ने एक सही बात कही- बेटे और सामंती कुनबे के प्रमोशन के चक्कर में दिग्विजय सिंह ने कमलनाथ को ही दाँव पर लगा दिया।

सबको याद होगा, अर्जुन सिंह जब 1980 में मुख्यमंत्री बने थे तब उन्होंने चार स्तरीय मंत्रिपरिषद का गठन किया था। संसदीय सचिव, उपमंत्री, राज्यमंत्री और फिर कैबिनेट मंत्री। दलगत सत्ता को साधने का यह बेहतरीन संसदीय माडल है जिसे श्यामाचरण शुक्ल ने भी अपनाया था।

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कमलनाथ ने एक मुश्त कैबिनेट मंत्री बना दिये। क्या जूनियर क्या सीनियर सभी के भेद का खत्म करते हुए। लेकिन इस सूची से केपी सिंह, एंदल सिंह कंसाना, बिसाहूलाल जैसे पुराने मझे नेता राजकुमारों की बलैयां लेने के लिए छोड़ दिए गए।

यकीनी तौर पर सबको लगा- यह कैबिनेट तो कमलनाथ की नहीं दिग्विजय के दिमाग की उपज है क्योंकि उनके कुँवर जयवर्धन सिंह कैबिनेट में भारी भरकम और सबसे प्रभावशाली विभाग के साथ स्थापित हो गए।

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यद्यपि यह कहने में कतई संकोच नहीं कि मंत्री के तौर पर जयवर्धन और प्रियब्रत सिंह ने अपनी कर्मठता की छाप छोड़ी है। लेकिन यह कर्मठता भी दिग्विजय की छाया में अनुग्रह ही बनी रही। सत्ता की शुरूआत ही ईर्ष्या, जलन, कुढ़न के साथ हुई।

चुनाव में कांग्रेस के पोस्टर ब्याय ज्योतिरादित्य थे। ग्वालियर- चंबल में विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को आशातीत सफलता भी इसलिए मिली क्योंकि वोटरों महाराज को मुख्यमंत्री बनाने के लिए अपना विश्वास दिया था।

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कमलनाथ की कैबिनेट में सिंधिया के समर्थकों का लिया जाना चुनाव परिणाम जनित अनिवार्य मजबूरी थी।

लेकिन लोकसभा के चुनाव आने तक उन वोटरों का महाराज से इसलिए भी मोहभंग होता गया क्योंकि वे मध्यप्रदेश की सरकार व कांग्रेस में हाशिए में धकेले जाते दिखने लगे थे।

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खैर लोकसभा चुनाव मोदी मैजिक के इंद्रजाल में हुआ सो सिंधिया का हारना वैसा ही रहा जैसे अन्य किले ढहे( बहुतकम मार्जिन से छिंदवाड़ा को छोड़कर)।

लेकिन सिंधिया के रास्ते जिस तरह छेके जाते रहे, ..प्रदेशाध्यक्ष से लेकर राज्यसभा की टिकट तक वह आईने में साफ- साफ दिखने लगा।

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कमलनाथ के सरकार के पतन का मुहूर्त उसी दिन निकल गया था जिस दिन उन्होंने सिंधिया को लेकर यह टिप्पणी की थी कि ‘उतरना है तो उतर जाएं सड़क पर’।

यह मामला लगभग वैसे ही था जैसे 1967 में डीपी मिश्र ने पचमढ़ी के युवा सम्मेलन में श्रीमती विजयाराजे को आहत और अपमानित करने वाली टिप्पणी की थी।

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भाजपा में शामिल होते हुए ज्योतिरादित्य ने इसे याद भी दिलाया कि सिंधिया परिवार को जो चुनौती देता है उसका हश्र देश देखता है।

कभी-कभी अति चतुराई भी गले आ पड़ती है। राज्यसभा चुनाव को सामने देख दिग्विजय सिंह का यह बंजारा दाँव था इस प्रचार के साथ, कि निर्दलीय व कुछ कांग्रेसी विधायकों को भाजपा ने गुरुग्राम में रोककर रखा है।

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वस्तुतः ये सभी विधायक दिग्विजय सिंह के संपर्क में थे और इसीलिए इनका रेस्क्यू करने जयवर्धन, प्रियब्रत और जीतू पटवारी पहुंचे।

राजनीति करने वाला मोहल्ला छाप नेता भी घुंइया नहीं छीलता, इतना तो समझता ही है।

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राज्यसभा में अपनी निर्विरोध स्थित लाने के लिए दिग्विजय ने यह भी दाँव चल दिया। उन्हें डर था कि राज्यसभा की पहली वरीयता की निर्विरोध सीट पर कहीं ज्योतिरादित्य न आ जाएं..। दाँव बस यहीं उल्टा परा।

अठारह महीने में छत्तीस ठोकर खा चुके ज्योतिरादित्य के लिए-” बहुत हो गया अब बस” के सिवाय कुछ बचा नहीं।

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इसके बाद से कमलनाथ सरकार के गिरने तक पल-प्रतिपल जो कुछ हुआ वह सबने देखा, दोहराने की जरूरत नहीं। जरूरत है इस आँकलन की कि अब आगे क्या..?

संभवतः 23 मार्च को नई सरकार का गठन हो..इस बीच हर स्तर पर मंथन चल रहा है।

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सामने जो तने हुए सवाल हैं उनमें से पहला- मुख्यमंत्री कौन..शिवराज या कोई अन्य? दूसरा- सिंधिया जी की भूमिका का क्या? तीसरा- कुर्बानी देने वाले उन 22 पूर्व विधायकों का क्या होगा? चौथा- कमलनाथ व दिग्विजय की युति बनी रहेगी? पाँचवां- सरकार का स्वरूप और एजेंडा क्या होगा?

प्रथमतः जो सामने दिख रहा है वह यह कि शिवराज जी ही विधायक दल के नेता बनेंगे..। शिवराज जी आखिरी खंदक की लड़ाई में योद्धा की भाँति डटे रहे।
वे कैलाश विजयवर्गीय, नरोत्तम मिश्र और गोपाल भार्गव के मुकाबले काफी आगे हैं।

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उनकी बराबरी में सिर्फ़ एक नाम है वह है नरेन्द्र सिंह तोमर का जो पूरे वक्त दिल्ली को सँभाले रहे। पूरे घटनाक्रम के वे एक तरह से क्वार्डिनेटर की भूमिका में थे।

भाजपा की एक खासियत और है, वह यह कि जो दिखता है प्रायः वह होता नहीं..। अब विष्णुदत्त शर्मा अध्यक्ष बन जाएंगे या इससे पहले राकेश सिंह को लगाम दी जाएगी कौन जानता था?

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सो भाजपा में जब तक तय न हो जाए, तब तक कम से कम अनुमान के आधार पर भविष्यवाणी नहीं की जा सकती।

आसन्न स्थितियों में सबसे मुफीद नाम शिवराज जी का है क्योंकि अभी 25 सीटों के उपचुनाव होने हैं तथा मेहनत की पराकाष्ठा का दूसरा नाम ही शिवराज है।

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सिंधिया जी आसानी से राज्यसभा पहुँचेंगे और भाजपा में अपनी दादी श्रीमती सिंधिया की रिक्ति को वे पूरी करेंगे। रणनीतिक तौर पर भी सिंधिया भाजपा के लिए बड़े काम के हैं। उन्हें केंद्र की राजनीति में राहुल गांधी के जवाब के तौरपर स्थापित किया जाएगा।

मुझे लगता है कि वे केन्द्र की मंत्रिपरिषद में जल्दी ही सिंधिया जी शामिल होंगे। एक प्रदेश की कीमत कम से कम इतनी तो बनती ही है।

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कुर्बानी देने वाले 22 पूर्व विधायकों को लेकर कर्नाटक वाला फार्मूला लागू होगा। जो कमलनाथ सरकार में मंत्री थे वे यहां भी मंत्री बनेंगे यदि उप चुनाव जीते तो..।

हारे तो भी निगम मंडल में आ सकते हैं। अन्य को भी सम्मानजनक हैसियत बख्शने की बात होगी।

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पूर्व की भाँति भाजपा के हाथ नहीं खुले होंगे। हर वक्त सतर्क रहना होगा कि आज जो उन्होंने किया कल उनके विधायकों को लेकर कांग्रेस यही कर सकती है।

पौने चार साल भाजपा की सरकार को तलवार की धार पर चलना होगा।

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दिग्विजय सिंह और कमलनाथ की युति में दरार आ सकती है। कमलनाथ विधायक रहेंगे और दिग्विजय सिंह सांसद।

सामान्य विधायक की क्या हैसियत रह जाती है यही सोचकर कमलनाथ चिंतित होंगे.. उनके व्यक्तित्व को देखते हुए ऐसा नहीं लगता कि वे नेता प्रतिपक्ष की गुरुतर भूमिका का निर्वाह करेंगे..।

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सरकार के शुरुआती दिन पुराने मलबे को साफ करने में लगेंगे। इसके बाद सबसे ज्यादा फोकस अजाजा, जजा और किसानों को लेकर होगा।

यह जनगणना का वर्ष है और एक राष्ट्रद्रोही अभियान यह चल रहा है कि अजा,अजजा वर्ग के लोग अपने धर्म के कालम में हिंदू नहीं आदिवासी लिखें। इस अभियान के पीछे मिशनरीज(कांग्रेस की शह पर) और नवसाम्यवादियों के एनजीओ हैं। इनसे निपटना चुनौतीपूर्ण होगा।

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इसमें कोई शक नहीं कि भाजपा की फ्लैगशिप योजनाएं पुनर्जीवित हो जाएंगी।

लेखक जयराम शुक्ल मध्य प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं. संपर्क : 8225812813

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3 Comments

3 Comments

  1. समीर

    March 22, 2020 at 7:29 pm

    बहुत ही सटीक विश्लेषण

  2. अमन

    March 24, 2020 at 4:10 am

    जबरदस्त विश्लेषण। आप वाकई शानदार पत्रकार हैं।

    आपसे ये भी बड़ी और बिल्कुल नई जानकारी मिली।
    यह जनगणना का वर्ष है और एक राष्ट्रद्रोही अभियान यह चल रहा है कि अजा,अजजा वर्ग के लोग अपने धर्म के कालम में हिंदू नहीं आदिवासी लिखें। इस अभियान के पीछे मिशनरीज(कांग्रेस की शह पर) और नवसाम्यवादियों के एनजीओ हैं। इनसे निपटना चुनौतीपूर्ण होगा।

    ये भी हो रहा है एमपी में। देश के दुश्मनों का कुचक्र चल रहा है।

    किसी नेशनल मीडिया ने इतनी बड़ी खबर को नहीं उठाया। ये बेहद खतरनाक है।

    इससे पार पाना अनिवार्य है।

  3. रघुनाथ

    March 24, 2020 at 5:49 pm

    बहुत ही उम्दा लेख, जो अखबारों में भी पढ़ने नहीं मिलता आजकल। बधाई।

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