विजय सिंह ठकुराय-
हजारों वर्ष पूर्व एक ऐसा भी समय था, जब एक छोटी सी गलत जानकारी आपकी जिंदगी पर भारी पड़ सकती थी। शिकार करते वक़्त रणनीति में थोड़ी चूक हो जावे, अथवा जंगल से लौटते वक्त गलत पहचान कर जहरीले बेर ले आइये, अथवा रास्ता भटक के शेर की मांद के सामने से गुजर जाइए…और आपकी वंशबेल का जीनपूल से सफाया तय था। सो हर समूह का ध्येय होता था कि सही सूचना को भावी पीढ़ियों तक पहुंचाया जाए। कभी लिखकर तो कभी श्रुति परंपरा के अंतर्गत पीढ़ी दर पीढ़ी सूचना को मौखिक रूप से ट्रांसफर किया जाता था। यह वो युग था जब जीवन की सुरक्षा के लिए सूचना का सही होना अनिवार्य था। इसलिए सूचना/जानकारी/ज्ञान का संरक्षण करने वाले समाज में सबसे ऊंचे पायदान पर विराजते थे। ज्ञान एक दुर्लभ कमोडिटी की तरह था, जो सबको सहज उपलब्ध नहीं था।
आज हम उस युग में हैं, जब सूचना हर किसी को सहज ही उपलब्ध है। एक क्लिक करिए और अरस्तू से लेकर आइंस्टीन तक का जीवन भर संजोया हुआ ज्ञान क्षण मात्र में आपके समक्ष उपलब्ध हो जाएगा। आज कई आकलन के हिसाब से लगभग 2.5 अरब-अरब बाइट डेटा प्रतिदिन इंटरनेट पर हम लोगों द्वारा अपलोड किया जाता है। इस सूचना को स्टैंडर्ड साइज की किताब में प्रिंट करें, तो प्रतिदिन इतनी किताबें छपेंगी, जितनी किताबों को पृथ्वी की परिक्रमा करते हुए भूमध्य रेखा पर किताबों का ढेर लगाया जा सकता है, जिस ढेर की ऊंचाई आधा किलोमीटर होगी। क्या लगता है कि प्रतिदिन पैदा होते सूचना के इस महाविशाल समुद्र में सार्थक जानकारियों का अनुपात क्या होगा?
एक समय था जब मनुज का एक ही ध्येय था – भोजन तलाशो, किसी अन्य का भोजन मत बनो और अपना वंश बढ़ाओ। आज घर में आराम करते लोगों को शेर, चीते, अथवा अन्य कबीलों के शत्रुओं का भय नहीं। भोजन ऑनलाइन आर्डर करने पर आ जाता है और वंश बढाने के लिए लडक़ी मिलना भी कदाचित स्वयंवर जीतने जैसा मुश्किल तो न रहा। अब भोजन, घर और साथी जैसी चीजें मनुष्य की मूलभूत जरूरतें नहीं हैं। अब मनुष्य को जीवित रहने के लिए महान प्रयोजनों के मनोरथ चाहिएं।
“कभी मैं खतरे में, तो कभी मेरा राष्ट्र, तो कभी मेरी संस्कृति, तो कभी मेरा मजहब” – ऐसे मनभावन स्वांगों की रचना कर मनुष्य भव्य उद्देश्यों की प्राणप्रतिष्ठा करता है, इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए सामूहिक संघर्ष का आव्हान करता है, लोगों को अपने प्रयोजन से जोड़ने के लिए निरंतर भ्रामक सूचनाओं का निर्माण करता है, और अंत में मन भर जाने पर फिर से एक नए स्वांग की तैयारी शुरू कर देता है। संघर्ष से मनुष्य का जी भरता ही नहीं। जिस दिन किसी से लड़ने की कोई वजह शेष न रह जाए, उस दिन आधे से ज्यादा मनुष्य तो यूँ ही चेतनाशून्य होकर भूमि पर गिर पड़ेंगे।
आज हम उस युग में हैं जब सत्य क्या है, यह मायने नहीं रखता। आज समूहों को हांकने के लिए… संघर्षों को जन्म देने के लिए… फर्जी न्यूज़, फर्जी फोटो, फर्जी कथ्य और फर्जी रिपोर्टिंग के सहारे सत्य का निर्माण किया जाता है। हममें से कितने लोग हैं जो किसी खबर/तथ्य के सामने आने पर इस बात की पड़ताल करने की जहमत उठाते हैं कि उस जानकारी की विश्वसनीयता क्या है? हम क्यों नहीं खुद से प्रश्न करते कि इस कथ्य का स्त्रोत क्या है, इस कथ्य को कहने वाले लोग/संस्था कौन हैं, उनकी विश्वसनीयता क्या है। हम क्यों नहीं तर्कणा करते कि अमुक सूचना का उद्देश्य क्या है, क्या इसे अन्य लोगों ने जांचा है? सिर्फ हमारी विचारधारा को तुष्ट करने मात्र के आधार पर सूचना को स्वीकार किया जा सकता है?
वर्तमान युग में सत्य अपनी प्रासंगिकता खो चुका है। इस युग में सही उत्तर तक पहुंचना है तो पहले यह जानने की कोशिश करिए कि – सही प्रश्न क्या है!