प्रेस क्लब ऑफ इंडिया : चुनाव नतीजे और सबक… अपेक्षा के मुताबिक इस बार भी प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में सत्ताधारी पैनल की ही जीत हुई। विपक्ष का इकलौता खंडित पैनल और कुछ स्वतंत्र उम्मीदवार सात साल से चले आ रहे विजय रथ को रोकने में नाकाम रहे। लोकतांत्रिक तकाजे के लिहाज से जीतने व हारने वाले सभी को बराबर शुभकामनाएं। अब नतीजे के आंकड़ों का थोड़ा पोस्टमॉर्टम। विशेष रूप से दिलीप मंडल को मिले 301 वोटों का विश्लेषण, जिनके लिए हमने और हमारे कुछ साथियों ने खुलकर प्रचार किया था।
अध्यक्ष पद पर तीन प्रत्याशी थे। दो हारने वाले प्रत्याशियों में से हबीब अख्तर को दिलीप मंडल से 50 फीसदी कम वोट मिले हैं। हबीब बिना पैनल के स्वतंत्र लड़े थे। दूसरे निर्निमेष कुमार जो विपक्षी पैनल से थे, 430 वोट ले आए हैं यानी पैनल से खड़े होने का कोई खास लाभ उन्हें नहीं मिला है। अकेले खड़े होते तब भी आसपास ही मिलता। महासचिव पर पांच प्रत्याशी थे, चार हारे हैं। चारों हारने वालों के वोट दिलीप मंडल से कम हैं। इन चारों में सबसे ज्यादा 177 वोट स्वतंत्र प्रत्याशी प्रदीप श्रीवास्तव को मिले हैं यानी मोटामोटी दिलीप मंडल का आधा। इसी तरह संयुक्त सचिव पर खड़े तीन प्रत्याशियों में से जो दो हारे हैं, दोनों के वोट मंडलजी से कम हैं। कोषाध्यक्ष पर दो ही प्रत्याशी थे, हारने वाले यशवंत सिंह के वोट दिलीप मंडल से बमुश्किल पचास ज्यादा हैं। इस अध्ययन से यह निष्कर्ष निकलता है कि सत्ताधारी पैनल के सामने विपक्षी पैनल के वजूद का खास मतलब ही नहीं था क्योंकि बतौर स्वतंत्र प्रत्याशी, अकेले दिलीप मंडल विपक्षी पैनल के सेंट्रल पैनल से ज्यादा वोट ले आए हैं।
अब आइए प्रबंधन कमेटी पर जिनमें कुल 26 उम्मीदवार थे। सोलह चुने गए। इन 16 में कटऑफ वोट संख्या है 593 वोट यानी दिलीप मंडल को मिले वोटों का दोगुना। जो 10 हारे हैं, उनमें मंडल पांचवें स्थान पर हैं। उनके ऊपर चार और नीचे चार प्रत्याशी विपक्षी पैनल से हैं जबकि नीचे का एक स्वतंत्र उम्मीदवार है। इस तरह हम पाते हैं कि सभी पदों पर स्वतंत्र रूप से बगैर पैनल खड़े उम्मीदवारों में सबसे ज्यादा वोट दिलीप मंडल को मिले हैं। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि यदि दिलीप मंडल सेक्रेटरी जनरल के पोस्ट पर लड़ते तो वे दूसरे स्थान पर होते, अध्यक्ष पद पर लड़ते तो तीसरे, संयुक्त सचिव पर लड़ते तो दूसरे स्थान पर होते। अब सोचिए, जिस प्रत्याशी ने चुनाव के एक दिन पहले सोशल मीडिया पर अपनी उम्मीदवारी की घोषणा की ; जिसने मतदान की पूर्व संध्या पर अपने चाहने वालों के आग्रह पर संकोच तोड़कर महज आधा घंटा मतदाताओं से भेंट मुलाकात की, वह बैठे-बैठाए 301 वोट ले आया। पहली बार में इससे बेहतर प्रदर्शन क्या होगा।
वो भी तब, जबकि मुख्य पैनल और विपक्षी पैनल दोनों ही सिर से लेकर पैर तक सवर्णवाद में पगे हुए हैं और कई गुजारिशों के बावजूद दोनों पैनलों में दिलीपजी को जगह नहीं मिल सकी। विडंबना ही कहेंगे कि इतना सीनियर पत्रकार, जो एडिटर्स गिल्ड का सदस्य भी है, उसे अपने पैनल पर लेने में किसी को भी प्रतिष्ठा का अहसास होना चाहिए था, उसके उलट व्यवहार हुआ। अव्वल तो यह प्रवृत्ति प्रेस क्लब में बनने वाले चुनावी पैनलों की सामाजिक लोकेशन को बयां करती है, दूजे चुनाव में पैनलों के दिन लदने और स्वतंत्र प्रत्याशियों के दिन वापस आने की यह मुनादी है। दिलीप मंडल का इस चुनाव में खड़ा होना और विपरीत हालात में इतने वोट लाना बताता है कि आने वाले दिन प्रेस क्लब की राजनीति में निर्णायक रूप से परिर्वतनकारी होंगे। यह परिवर्तन स्वतंत्र पत्रकार ही ले आएंगे बशर्ते वे अगली बार एक मज़बूत पैनल बनाकर लड़ें।
बेबाक और जुझारू पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव की एफबी वॉल से.
पढ़ें इस पोस्ट पर आए ढेरों कमेंट्स में से कुछ प्रमुख…
Anil Dubey सामाजिक न्याय के स्वंय भू मसीहाओं को समाजिक सरोकारों से जुड़े बिना ऐसे ही चलता रहेगा। बीज पड़ने से कुछ नहीं होता, भूमि को उर्वर बनाना पड़ता है और इसके लिये संघर्षों में खड़ा होना पड़ता है। मीडिया व पत्रकारों पर फासिस्टी हमलों के दौरान यह कहीं नजर नहीं आते!
Abhishek Srivastava मीडिया और पत्रकार अपने आप में सामाजिक न्याय की कोई स्वतंत्र राजनीतिक श्रेणी नहीं है। ठीक वैसे ही जैसे छात्र समुदाय वर्ग संघर्ष की राजनीति में कोई स्वतंत्र श्रेणी नहीं अथवा हिन्दू राष्ट्र की राजनीति में स्त्री कोई स्वतंत्र श्रेणी नहीं। सबकी अपनी अपनी सीमाएं हैं। जिस तरह मार्क्सवादी लोग मुसहर, निषाद या जाटव के बीच नहीं जाते और आरएसएस के लोग स्त्रियों के बीच, वैसे ही सामाजिक न्यायवादी पत्रकारों के सवाल पर सड़क पर न उतरे तो इससे फासीवाद को समर्थन नहीं मिल जाता। जो जहां रह कर इस यथास्थितिवाद को चुनौती दे रहा है, स्वागत योग्य है।
Govind Mishra लेकिन जातिवाद की जमीन पर खड़े होकर जातिवाद खत्म नहीं ही सकता,अच्छा जातिवाद और बुरा जातिवाद इस रूप में इस समस्या को देखा नहीं जा सकता।
Abhishek Srivastava अच्छा बुरा का मामला ही नहीं है। वर्ण व्यवस्था का जो लाभार्थी रहा है पांच हज़ार साल में, उसका चेहरा साफ है। असली दोषी वो है। क्या सवर्ण जातियां यानी द्विज पांच हज़ार साल की अमानवीयता और उत्पीड़न के लिए दलित पिछड़ा से सार्वजनिक क्षमा याचना को तैयार है? यदि नहीं, तब तो गड्डी नू ही चालेगी।
Govind Mishra तब तो बीजेपी सही कहती है कि कि चार पांच सौ साल पहले जो मुस्लिम शासकों ने किया उसका बदला अब लिया जाए। जैसे आपका है वैसे ही यह उनका इतिहास बोध है।
Abhishek Srivastava दोनों बातें अलग हैं। सिर के बल खड़े अपने समाज को सीधा करना यानी वंचित को न्याय दिलवाने की कोशिश करना बीजेपी के इतिहासबोध से उल्टी चीज है। बीजेपी का इतिहासबोध दरअसल एक ऐसा अन्य, एक ऐसा बाहरी पैदा करना है जिसके खिलाफ वह काल्पनिक बदला के सके। यह अन्य वाला बोध ही हिन्दू वर्ण व्यवस्था को पोषक है, जिसमें द्विज तो अपना है, बाकी अंत्यज। आपने दो विरोधी चीज़ों का घाल्मेल कर दिया। थोड़ा ठहर कर सोचिए। कॉमेंट लिखने में थोड़ा देर ही सही।
Piyush Babele सदस्य के वोटों की तुलना सदस्य के वोटों से होनी चाहिए
Satyendra PS झूठ में अभिषेक जी भौकालबाजी कर रहे हैं। परिणाम अपेक्षा के बिल्कुल अनुरूप रहा है, इस हिसाब से मुझे थोड़ा प्रतिकूल भी लग रहा है कि 300 वोट कैसे मिल गया? मुझे तो 50-60 वोट की उम्मीद थी। दिलीप मंडल के प्रति इस समुदाय की जातीय घृणा छिपी हुईं नहीं है। कई लोग तो सिर्फ इसलिए वोट देने पहुंचे होंगे कि मण्डलवा जीतने न पाए। ऐसी स्थिति में उन 301 लोगों को साधुवाद,जिन्होंने वोट किया है। अभिषेक की आशावादिता कम्युनिस्टों की तरह ही है कि एक न एक दिन बदलाव आएगा, गैर बराबरी दूर होगी। अच्छा है। इसके लिए काम करना भी चाहिए। अगर वह उम्मीद करते हैं कि लोग मनुष्य बन जाएं तो उनके इस इरादे को बकप किया जाना चाहिए।
Piyush Babele आप ज्यादा गिन रहे हैं. 301 लोग नहीं हैं कुछ मामलों में एक आदमी ने ही 16 वोट तक दिए होंगे. यह आपकी अभिषेक जी की और अन्य लोगों की बड़ी जिम्मेदारी हैं कि छठ छठ कर उन सवर्णों को अवश्य गालियां दें जिन्होंने गलती से भी मंडल जी को वोट दिया हो
Satyendra PS नहीं भाई। 16 वोट कोई एक आदमी नहीं कर सकता। एक आदमी अगर एक ही वोट देता है तब भी उसे एक वोट ही गिना जाएगा।
Mahendra Yadav ये बबेले वही हैं न, 54/86 यादव एसडीएम का फर्जी बवाल करने वाले?
Satyendra PS मण्डल जी का असर तो साफ दिख रहा है। प्रेस क्लब के चुनाव में प्रत्याशियों के चयन में इसी बात को लेकर बवाल हो गया कि ब्राह्मण जाति के ही सभी प्रत्याशी क्यों हैं? यह जानकारी मुझे कल ही मिली। इतना बदलाव कम है क्या? भले ही सभी जीत गए लेकिन 301 हैं, जिनको यह फीलिंग आई। आप इस बदलाव पर दुखी होने के लिए स्वतंत्र हैं। हालांकि मुझे यह भी यकीन है कि इस 301 मे 275 अपर कॉस्ट और 250 ब्राह्मण ही होंगे क्योंकि इस धंधे में रोजगार का अनुपात ही कुछ ऐसा होगा। इस पर भी दुखी हो सकते हैं कि कथित ब्राह्मण भी बागी हो रहे हैं।
Satyendra PS मुझे कल रात ही सूचना मिली। ब्राह्मण कैडिडेटों के खिलाफ मोर्चा खोलने वाले भी ब्राह्मण! जब कोई गिरोह जातीय गुट बनाकर उल जूलूल हरकतें करता है तो उसका हर कोई शिकार होता है। समता और कम्युनिज्म के नाम पर कब्जा जमाए लोगों को दलित पिछड़ी आबादी से पता नहीं क्यों इतनी नफरत है! उन्होंने बताया कि एक ओबीसी का नाम मेम्बर के लिए प्रस्तावित किया तो पदाधिकारियों ने उसको संघी घोषित कर दिया। जब दिलीप मंडल का नाम आया तो बहुत मजेदार तर्क आए।
-दिलीप मंडल जातीय नफरत फैलाते हैं
-दिलीप मंडल को ओबीसी वाले भी नहीं पसन्द करते क्योंकि वो उल जूलूल बात करते हैं।
-दिलीप मंडल नमस्ते करने पर उसका जवाब नहीं देते।
-दिलीप मंडल अगर जीतकर आए तो कार्यकारिणी की बैठक की चर्चा फेसबुक पर डाल देंगे।
ये चार प्रमुख आरोप थे, जो याद है। बकिया क्या क्या कहा गया, आप रहे होंगे तो आपको भी पता होगा! बकिया ऐसे खुंदकी तो अनगिनत हैं जो बॉस को खुश करने के लिए मण्डल को नाहक गरियाते रहते है… किस तरह का माहौल है, वह हम लोगों से छिपा नहीं है भाई।
Shadab A Khan दिलिप जी का एक दिन पहले बताना और सिर्फ शाम में आधे घंटे अना और ये परिणाम, एक तरह से देखा जाए तो दिलिप जी की जीत है। मैं सुबह से शाम तक वही था, सारा तमाशा देख रहा था, लोग वोट के लिए क्या क्या नहीं कर रहे थे 11 बजे से। इन्होनें न किसी से कुछ बोला भी नहीं चुप चाप आए और चुप चाप चल दिए। अन्दर क्या हुआ मालुम नहीं। बहुत बड़ी बात है इस तरह चुनाव लड़ना, नया प्रयोग। मुबारक हो Dilip C Mandal सर को, नयी इबारत लिखी है।
Yashwant Singh इतना मत दिमाग लगाया करिए। आनन्द लीजिए। आपको आधा पढ़ा और लिखने चला आया। नेचर प्रकृति का लोहा है। चल रहा है। चलता रहेगा।
Nirbhay Devyansh लेकिन दावेदारी ठोकना भी नेचर का ही हिस्सा है । वरना बुरे लोग और बुरे होने लगते हैं । अच्छे लोग फिर और अच्छा सोचना बंद कर देते हैं ।
Vishwesh Rajratnam तोड़ो गढो मठों को आज….हार के आगे जीत है, शुभकामना
Nirbhay Devyansh यह टिप्पणी सार्थक इसलिए लग रही है कि बहुत कुछ बात सामने आ रही है। लेकिन दिलीप मंडल पहले उम्मीदवारी क्यों नहीं घोषित कर पाए। चुनाव हारने का यह भी एक कारण हो सकता है ।
Govind Mishra दिलीप को मैं व्यक्तिगत तौर पर नहीं जानता लेकिन जितनी उनकी पोस्ट देखता हूं वो सब भयंकर जातिवादी और घृणा से भरी होती हैं,यहांतक की वे दूसरे की धर्मिक आस्थाओं तक का आदर नहीं करते वो गाली देने को ही अपना परम् पुरुषार्थ समझते हैं,उन्हें लगता है कि उनका जातिवाद अच्छा है दूसरे का बुरा।ऐसे नहीं चलता। वो हार गए अच्छा हुआ वरना दिलीप प्रेस क्लब में भी जीत कर सिर्फ अपना जातिवाद का एजेंडा चलाते। तुम मेरे बारे में भी यही सोचोगे कि अरे गोविंद जी तो सवर्ण हसीन वो तो ऐसा लिखेंगे ही।
Abhishek Srivastava दिलीप मंडल जातिवाद चलाते हैं, ऐसा मानने वाले लोग जातिविहीन हैं क्या?
Govind Mishra आप यह मान कर चलते हो कि हर आदमी जाति वादी ही होता है।तब तो फिर बहस ही खत्म हो गई। श्रीवास्तव देखकर कितने लोगों ने तुम्हारी सहायता की या तुमने की है?
Abhishek Srivastava आप ठीक कह रहे हैं। मैं जातिवादी नहीं हूं। लेकिन इससे जाति की समस्या खत्म तो नहीं हो जाती?अगर मैं जाति को एक गंभीर समस्या मानता हूं तो उसकी जड़ पर किए जाने वाले हर चोट के साथ रहूंगा। सिम्पल है।
Rishabh Krishna Saxena यह विश्लेषण बिल्कुल वैसा है, जैसा मध्य प्रदेश में हारने के बाद भाजपा के समर्थक कर रहे हैं। हक़ीक़त यही है कि दिलीप मंडल हार गए और ठीक से हार गए। अब अगली बार बेहतर तैयारी से उतरें और संभव हो तो अपना पूरा पैनल लेकर उतरें।
Abhishek Srivastava दिलीप मंडल का हारना तय था, इसलिए यह कहना कि दिलीप मंडल हार गए कोई खबर नहीं बनाता।
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