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साहित्य

पिता के मर जाने पर मनुष्य के अंदर का पिता डर जाता है…

पिता पर डॉ. अजित तोमर की चार कविताएं

1.

पिता की मृत्यु पर
जब खुल कर नही रोया मैं
और एकांत में दहाड़ कर कहा मौत से
अभी देर से आना था तुम्हें
उस वक्त मिला
पिता की आत्मा को मोक्ष।

***

पिता पर डॉ. अजित तोमर की चार कविताएं

1.

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पिता की मृत्यु पर
जब खुल कर नही रोया मैं
और एकांत में दहाड़ कर कहा मौत से
अभी देर से आना था तुम्हें
उस वक्त मिला
पिता की आत्मा को मोक्ष।

***

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पिता की अलग दुनिया थी
मेरी अलग
दोनों दुनिया में न कोई साम्य था
न कोई प्रतिस्पर्धा
जब पिता नही रहे
दोनों दुनिया के बोझ तले दब गया मैं
मेरी आवाज़ कहीं नही पहुँचती थी
मुझ तक भी नही।

***

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कोई भी गलत काम करने से पहले
ईश्वर का मुझे लगता था बहुत भय
पिता की मौत के बाद
ईश्वर का भय हुआ समाप्त
और पिता का भय बढ़ गया
इस तरह ईश्वर अनुपस्थित हुआ मेरे जीवन से
पिता के जाने के बाद।

***

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पिता के मर जाने पर
मनुष्य के अंदर का पिता डर जाता है
वो जीना चाहता है देर तक
अपने बच्चों के लिए
भले जीते जी वो कुछ न कर पाए
मगर
मर कर नही बढ़ाना चाहता
अपने बच्चों की मुश्किलें।

2.

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एक मेरे पिता थे
जो यदा-कदा कहतें थे
तुम्हारे बस का नही ये काम

एक वो है
जिनका पिता मैं हूँ
उनकी अपेक्षाओं पर जब होता हूँ खारिज़
ठीक यही बात कहतें वो
आपके बस का नहीं ये काम

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दो पीढ़ियों के बीच
इतना मजबूर हमेशा रहा हूँ मैं
ये कोई ग्लैमराइज्ड करने की बात नही
ना अपनी काहिली छिपाने की
एक अदद कोशिश इसे समझा जाए

बात बस इतनी सी है
मैं चूकता रहा हूँ हमेशा बेहतर और श्रेष्ठतम् से
नही कर पाता
कुछ छोटे छोटे मगर बुनियादी काम
और मनुष्य होने के नातें
ये एक बड़ी असफलता है मेरी
यह भी करता हूँ स्वीकार

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अपने पिता और पुत्रों के मध्य
संधिस्थल पर बैठा प्रार्थनारत हूँ न जाने कब से
घुटनों के बल बैठे बैठे मेरी कमर दुखने लगी है
मेरा कद  रह गया है आधा

इसलिए नही देख पाता
अपने आसपास बिखरी
छोटी-बड़ी खुशियों को

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मेरे वजूद का यही एक ज्ञात सच है
जो बता सकता हूँ मैं
अपने पूरे आत्मविश्वास के साथ।

3.

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संयोग से उस दौर में
मेरा जन्म हुआ
जहां पिता पुत्र के अंतर्द्वन्द बेहद गहरे थे
समाज तब करवट ले रहा था
मेरे से पूर्ववर्ती पीढ़ी
विचार और संवेदना के स्तर पर नही थी
इस किस्म की विद्रोही

हम नालायक थे
वो रही थी अपेक्षाकृत आज्ञाकारी

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मेरा विद्रोह किसी क्रांति के निमित्त न था
ये काफी हद तक भावनात्मक रहा
कुछ कुछ वैसा ही
जैसा सबको रहती है शिकायत कि
पिता उन्हें ठीक से समझ नही पाए
मगर
एक ईमानदार सवाल यह भी है
क्या हम ठीक से समझ पाए पिता को

ऐसा क्यों हुआ हमारा अस्तित्व ही
चुनौति बन गया उनके लिए
हमारे मुद्दें भिन्न थे तर्क भिन्न थे
एकदम अलग थी दुनिया
मगर अक्सर बहस क्यों रही एकतरफा

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पिता के साथ क्यों नही विकसित हो पाया
हमारा लोकतांत्रिक रिश्ता
दोनों के हिस्से में आती रही हमेशा
थोड़ी जिद थोड़ी परेशानी

एक चूके हुए समय में
पिता पुत्र का साथ होना था बेहद जटिल
आदर की कल्पनाओं के साथ बनता रहा
असहमतियों का पहाड़

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पिता कुछ इस तरह उपस्थित रहें हमारे जीवन में
जैसे कुँए में रस्सी
हम पिता की अपेक्षाओं से नही
खुद के असंतुलन से होते रहे सहज
नही समझ पाए
प्यार का होता है एक गैर बौद्घिक संस्करण भी

पिता के जीते जी
हमारे कन्धे जुते रहें खुद के यथार्थ को जोतने में
हमें उम्मीद थी कि हम पैदा करेंगे कुछ नया
जिसे देख विस्मय से चुप हो जाएंगे पिता

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और जब एकदिन पिता चुप हो गए हमेशा के लिए

हमनें पाया सारी ज़मीन बंजर थी
जिसे जोत रहे थे हम बेतुके उत्साह के साथ

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हम उस दौर के पुत्र है
जो अपने पिता के पिता बननें की फिराक में थे
मगर साबित हुए
खुद एक औसत पिता

दरअसल, पिता होना इतना आसान नही था
ये बात तब समझ में आई
जब पिता नही थे,पिता की कुछ स्मृतियाँ थी
जो रोज़ हंसती थी हमारे एकांत पर
जो रोज़ रोती थी हमारी मजबूरियों पर

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पिता मजबूरी के प्रतीक नही थे
हमनें उनको बनाया ऐसा
भले ही हमारा मन्तव्य उनको छोटा करना नही था
मगर सच तो ये भी है
तमाम समझदारी के दावों के बीच
हम नही नाप पाए अपने ही पिता का कद।

4.

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कभी कभी खीझकर
पिताजी मुझे कहते थे
सियासती
खासकर जब मैं तटस्थ हो जाता
या फिर उनका पक्ष नही लेता था
उनके एकाधिकार को चुनौति देने वाली व्यूह रचना का
वो मुझे मानते थे सूत्रधार
उन्हें लगता मैं अपने भाईयों को संगठित कर
उनके विरोध की नीति का केंद्र हूँ
गर्मा गरम बातचीत में उन्हें लगता
मिलकर उनको घेर रहा हूँ
उनको जीवन और निर्णयों को अप्रासंगिक बताने के लिए
सबको करता हूँ दीक्षित
बावजूद ऐसे गुस्से भरे आरोपों के
एक मैं ही था
जिसकी बात मानते थे वो
क्यों, ये आजतक नही जान पाया
मैंने देखा उनको धीरे धीरे ढल जाना
बिना किसी मजबूरी के
तमाम असहमतियों के बावजूद
पिता बचे मेरे जीवन में बेहद आदर के साथ
कुछ क्षमा प्रार्थनाओं की शक्ल में
और मैं पता नही किस रूप में बचा
उनके चले जाने के बाद
तमाम सियासत के बावजूद मैं हार गया एक दिन
तमाम विरोध के बावजूद वो जीत गए उस दिन
हमेशा की तरह।

© डॉ.अजित

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वेस्ट यूपी के जिला शामली निवासी कवि डा. अजित तोमर ब्लॉगर भी हैं. सोशल मीडिया पर सक्रिय लेखन करते हैं. डॉ. अजित फिलवक्त हिंदी एवं पत्रकारिता विभाग, गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय, हरिद्वार में अध्यापन कर रहे हैं. उनसे आनलाइन संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है. उनका पूरा पोस्टल एड्रेस इस प्रकार है-  डॉ. अजित सिंह तोमर, ग्राम+पोस्ट: हथछोया, जनपद: शामली , पिन: 247778, उत्तर प्रदेश, मोबाईल: 09997019933

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2 Comments

2 Comments

  1. राकेश श्रीवास्‍तव

    August 10, 2016 at 6:28 am

    आह .. मन भर उठा

  2. तुषार शर्मा

    April 27, 2020 at 2:38 pm

    पूरी कविता खुद की सी अनुभूति प्रतीत हुई।

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