Ravish Kumar
इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह को नफ़रत से प्रोग्राम्ड रोबो-रिपब्लिक ने मारा है… कल यूपी पुलिस के जवानों और अफसरों के घर क्या खाना बना होगा? मुझे नहीं मालूम। इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह की तस्वीर उन्हें झकझोरती ही होगी। नौकरी की निर्ममता ने भले ही पुलिस बल को ज़िंदगी और मौत से उदासीन बना दिया हो लेकिन सांस लेने वाले इन प्राणियों में कुछ तो सवाल धड़कते ही होंगे कि आख़िर कब तक ये भीड़ पुलिस को चुनौती देकर आम लोगों को मारेगी और एक दिन पुलिस को भी मारने लगेगी।
आम तौर पर हम पत्रकार पुलिस को लेकर बेरहम होते हैं। हमारी कहानियों में पुलिस एक बुरी शै है। लेकिन इसी पुलिस में कोई सुबोध कुमार सिंह भी है जो भीड़ के बीच अपनी ड्यूटी पर अड़ा रहा, फ़र्ज़ निभाते हुए उसी भीड़ के बीच मार दिए गए।
हमने आस-पास कैसी भीड़ बना दी है। मैंने अपनी किताब The Free Voice में एक रोबो-रिपब्लिक की बात की है। यह एक ऐसी भीड़ है, जिसे नफ़रत की बातों से प्रोगाम्ड किया जा चुका है। जो हर तरफ खड़ी है। ज़रा सी अफ़वाह की चिंगारी के ख़ुद से एक्शन में आ जाती है। किसी को घेर लेती है और मार देती है। इससे हिंसा की जवाबदेही किसी नेता पर नहीं आती है। पहले की तरह किसी पार्टी या मुख्यमंत्री अब आरोपों के घेरे में नहीं आते हैं। आज उसी रोबो-रिपब्लिक की एक भीड़ ने इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह को मार दिया।
पोस्टमार्टम की रिपोर्ट आ गई है। इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह की मौत गोली लगने से हुई है। जो भी वीडियो हासिल है, उसे आप ग़ौर से देखिए। किस उम्र के लड़के पुलिस पर पथराव कर रहे हैं। इतना कट्टा कहां से आया, गोलियां चलाने की हिम्मत कैसे आई जो एक पुलिस इंस्पेक्टर को घेर लेती है और अंत में मार देती है। गाय के नाम पर उसे इतना हौसला किसने दिया है। क्या वह गाय का नाम लेते हुए देश की कानून व्यवस्था से आज़ाद हो चुकी है?
इस घटना से यूपी पुलिस को सोचना पड़ेगा। उसे पुलिस बनने का ईमानदार प्रयास करना होगा। वर्ना उसका इक़बाल समाप्त हो चुका है। पुलिस का इक़बाल अफसरों के जलवे के लिए बचा है। वैसे वो भी नहीं बचा है। आपको याद होगा अप्रैल 2017 में सहारनपुर ज़िले तत्कालीन एसएसपी लव कुमार के सरकारी बंगले पर भीड़ घुस गई थी। यूपी पुलिस चुप रही। उसे अपने राजनीतिक आका के सामने यस सर, यस सर करना ज़रूरी लगा। क्या उस मामले में कोई कार्रवाई हुई? जब यूपी पुलिस के आईपीएस अफ़सर अपने आईपीएस साथी के प्रति ईमानदार नहीं हो सके तो कैसे उम्मीद की जाए कि वे इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह के हत्यारों को पकड़ने के मामले में ईमानदारी करेंगे।
यह कोई पहली घटना नहीं है। मार्च 2013 में प्रतापगढ़ के डीएसपी ज़ियाउल हक़ को इसी तरह गांव वालों ने घेर कर मार दिया। मुख्य आरोपी का पता तक नहीं चला। जून 2016 में मथुरा में एसपी मुकुल द्विवेदी भी इसी तरह घेर कर मार दिए गए। 2017 में नई सरकार आने के बाद न जाने कितने पुलिस वालों को मारने की घटना सामने आई थी। नेता खुलेआम थानेदारों को लतियाने जूतियाने लगे थे। कई वीडियो सामने आए मगर कोई कार्रवाई हुई, इसका पता तक नहीं चला।
यूपी पुलिस आज की रात ख़ुद का चेहरा कैसे देख पाएगी। उसके जवान व्हाट्स एप में सुबोध कुमार सिंह की गिरी हुई लाश को देखकर क्या सोच रहे होंगे? चार साल में जो ज़हर पैदा किया है वो चुनावों में नेताओं की ज़ुबान पर परिपक्व हो चुका है। हमारे सामने जो भीड़ खड़ी है, वो पुलिस से भी बड़ी है।
सुबोध कुमार सिंह भारत की राजनीति के शिकार हुए हैं जो अपने फायदे के लिए ज़हर पैदा करती है। नफ़रत की आग पड़ोस को ही नहीं जलाती है। अपना घर भी ख़ाक कर देती है। यूपी पुलिस के पास कोई इक़बाल नहीं बचा है सुबोध कुमार सिंह को श्रद्धांजलि देने का। उसे अगर शर्म आ रही होगी तो वह शर्म कर सकती है। आज की रात सिर्फ यू पी पुलिस ही नहीं, हम सब के शर्मिंदा होने का दिन है।
एनडीटीवी के वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार की फेसबुक वॉल से.
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