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वेब-सिनेमा

भारतीय दर्शक दुख और त्रासदी बर्दाश्त नहीं कर सकता!

संगम पांडेय-

‘एक इंस्पेक्टर से मुलाकात’

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जे.बी.प्रीस्ले का यह नाटक मैं देखना नहीं चाहता था, पर निर्देशक शरद शर्मा का आग्रह था तो दो घंटे का सफर करके द्वारका सीसीआरटी देखने गया। वजह है कि हमारे समाज के मुतल्लिक इसके पात्र अपनी सिविलिटी में अयथार्थ मालूम देने लगते हैं। इसका मुद्दा है एक युवा लड़की की आत्महत्या। किसी कंपनी के मालिक खन्ना साहब की बेटी की घरेलू इंगेजमेंट पार्टी के दौरान पूछताछ करने आए इंस्पेक्टर के जरिए इस आत्महत्या के बारे में पता चलता है।

फिर धीरे-धीरे खुलासा होता है कि पार्टी में मौजूद घर का हर सदस्य किसी न किसी रूप में उसकी आत्महत्या का जिम्मेदार है। इंस्पेक्टर एक ऐसे घुमावदार तरह से उस घटनाक्रम को बयान करता है कि हर पात्र की अनभिज्ञता टूटती है और उनके किरदार की कोई ऐसी बेमुरव्वत खामी सामने आती है जो उन्हें अपराधबोध से भर देती है। मसलन खन्ना साहब की बेटी ने कभी उसकी सुंदरता से जलन खाकर उसे सेल्सगर्ल की नौकरी से निकलवाया था, जिसके बाद लड़की की दुर्गति शुरू हुई।

ऐसी सारी कहानियाँ सामने आने के बाद पूरा मंच ग्लानि और अपराधबोध के माहौल में डूब गया है। उधर अपने यहाँ का दर्शक, जो आए दिन लड़कियों को काटकर बोरे में भर देने या तंदूर में झोंक देने की घटनाएँ पढ़ता रहता है, इस प्रत्यक्षतः दमघोंटू माहौल में परेशान हो गया है तो वह ‘ही ही’ करके हँसना शुरू कर देता है। और यही वह संभाव्य वजह थी कि मैं यह नाटक देखना नहीं चाहता था। भारतीय दर्शक दुख और त्रासदी बर्दाश्त नहीं कर सकता, और परेशान होकर असभ्यों की तरह ‘ही ही’ करना शुरू कर देता है।

गिरीश कर्नाड ने अपनी आत्मकथा में अपने खुद के एक ऐसे ही अनुभव का जिक्र किया है, जब बंगलौर में दर्शकों की ऐसी ही हृदयहीन हँसी से स्तब्ध और निराश होकर उन्हें नाटक ईडीपस के शो वक्त से पहले समेट लेने पड़े।

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मंच पर इंस्पेक्टर की जाँच में जो चीज अखरती है वो ये कि कोई भी पात्र झूठ नहीं बोल रहा। अपने यहाँ इसके लिए नार्को और पोलीग्राफ टेस्ट किए जाते हैं, ताकि छिपाए गए झूठ को सबकांशस से बाहर निकाला जा सके। लेकिन यहाँ पात्र खुद ही अपने सबकांशस में छिपे झूठ से आहत हैं, जिससे एक अपराधबोध जन्म ले रहा है। नाटक की एक पात्र कहती है- ‘झूठ और बनावट से कुछ भी हासिल नहीं होगा’।

इस नाटक की कुछ अन्य प्रस्तुतियाँ मैंने अतीत में देखी हैं, और एक फाँक या बेमेलपन का अहसास हमेशा हुआ है। नाटक इस लिहाज से आसान है कि उसमें सेट परिवर्तन का कोई झंझट नहीं है। अभिनव रंगमंडल के लिए शरद शर्मा निर्देशित इस प्रस्तुति में मंच पर ड्राइंग रूम का मंजर होने के बजाय एक बड़ी डाइनिंग टेबल के एक ओर पात्र बैठे हैं, मानो वे किसी सभा को संबोधित करने वाले हों। लेकिन स्पीच पर ठीक से काम किया गया होने से जैसे-जैसे नाटक का तनाव गाढ़ा होता है यह त्रुटि धुँधली होती जाती है। चरित्रांकन पर भी ठीक से काम किया गया है।

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इन्स्पेक्टर बने वीरेन्द्र नथानियल किरदार के पॉजेज, स्ट्रेस और टाइमिंग के साथ उम्मीद से कहीं बेहतर थे। उसी तरह मिस्टर खन्ना के बेटे और बेटी की भूमिका में अंकित दास और यासमीन सिद्दिकी के अभिनय में दोनों पात्रों की ठीकठाक छवियाँ दिखती हैं, और खुद मिस्टर खन्ना बने गिरिजेश व्यास में किरदार का अभिजात और उसका वजन भी देखने लायक था। लेकिन बाकी बची दोनों भूमिकाओं के बारे में यही बात नहीं कही जा सकती। मिसेज खन्ना बनीं शीतल अरोड़ा को तो खासकर अपनी एक्टिंग पर काफी काम करने की जरूरत है। कई दफे सीक्वेंस से उलट उनका मुस्कुराता चेहरा दृश्य में खलल पैदा करता है। इन कुछ त्रुटियों के बावजूद कथानक का तनाव जिस तरह निरंतर सघन होते हुए मुकाम पर पहुँचता है, वह निर्देशक की उपलब्धि है।

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