परिस्थिति बहुत बलवान होती है। यह एहसास सबसे ज्यादा मुझे पत्रकारिता में आकर हुआ। तब तक नहीं, जब तक मैं पत्रकारिता की पढ़ाई कर रहा था। पढ़ाई पूरी होने के बाद घर का दवाब और दिल्ली में रहकर जैसे तैसे रूम रेंट और बाकी जरूरतों को पूरा करना। मैनें ग्रेजुएशन, मास्टर करने तक तो सोचा था कि मैं पत्रकारिता करूंगा। लेकिन एकात दो जगह इंटर्नशिप करने के बाद जो माहौल देखा, और जो मेरे बाकी फ्रेंड्स से अनुभव मिला। उससे मेरा मन दहल उठा।
सोचा नेट/जेआरएफ निकालकर या कहीं पीएचडी में दाखिला मिल जाए, तो कुछ गाड़ी ट्रैक पर आ जाए। लेकिन ये सब इतना आसान नहीं था। और सच कहूं तो हुआ भी यही। तीन साल तैयारी-तैयारी के नाम पर अपना समय बेकार किया। परिणाम वही दिखा। हर बार प्रवेश परीक्षा निकालने के बाद इंटरव्यू में भाई-भतीजावाद, सोर्स सिफारिश। ये सेंट्रल और स्टेट दोनों यूनिवर्सिटी का हाल।
उधर, घर वाले अलग नाक में दम किए हुए थे। कुछ नहीं रखा दिल्ली में और पत्रकारिता में। घर आ जाओ। बिजनेस करना। ज्यादा कमा लोगे। लेकिन मैनें एक न सुनी। एक यार दोस्त की मदद से इंडस्ट्री में नौकरी पाने के लिए मदद मांगी। नौकरी तो नहीं मिली। मिला अमर उजाला वेब में इंटर्नशिप का मौका, और दो महीने बाद काम अच्छा दिखा तो नौकरी का एक छोटा सा आश्वासन। अमर उजाला ने आदतन इंटर्नशिप के नाम पर मुझसे पेल पेलकर लोकसभा चुनाव के दौरान दिनभर, रातभर काम लिया। वहां के डेस्क इंचार्ज कहते थे। छेड़े छांट हो, सिंगल हो, लौंडे हो। क्या करोगे घर जाकर? बैठकर ‘भाषा’ एजेंसी की स्टोरी चिपकाओ। मैनें नौकरी की आस में मन लगाकर काम करता गया। दो महीने बीतने के बाद मैनें वहां के संपादक अनिल पांडेय जी और HR से इंटर्नशिप का फीडबैक लिया, और साथ में बतौर ट्रेनी नौकरी दिए जाने के संबंध में बात की। लेकिन उन्होंने मुझसे सीधा सीधा कहा, अभी आपका प्रफोमेंस कुछ खास नहीं है। अभी एक महीने और देखते हैं।
मैं टार्चर वाले इंटर्नशिप से टूट चुका था। आखिर में मैनें अमर उजाला छोड़ दिया। फिर मैं नौकरी की तलाश में जुट गया। किसी तरह एक दोस्त की मदद से मुझे ‘ईटीवी भारत’ में वकेंसी की जानकारी मिली। मैनें झंडेवालान स्थित ईटीवी भारत के आफिस में ट्रेनी कंटेंट राईटर के लिए टेस्ट दिया। टेस्ट क्लियर होने के बाद टेलिफोनिक इंटरव्यू लिया गया। मैनें वो भी अच्छे से क्लियर कर लिया। फोन पर और मेल कर के सैलरी मुझे 18 हजार बताया गया। परिस्थिति बस मैं टूट चुका था। हैदराबाद जाना नहीं चाहता था। लेकिन मन बना लिया था। आखिरकार मैंने मौका लपक लिया। लेकिन मुझे क्या पता था। यहां भी मेरे साथ धोखा होगा। ईटीवी भारत जब मैं ज्वाइन करने हैदराबाद पहुंचा, तो वहां पहुंचकर मुझे सैलरी कुछ और ही बताया गया। वहां मुझे 16000 CTC बताया गया और अकाउंट में साढे़ 14 हजार देने की बात कही गई। HR ने कहा बाकी पैसे मेडिक्लेम, पीएफ, ईएसआई और रामोजी बस सेवा के लिए कटेगा।
मैं बहुत ठगा हुआ महसूस कर रहा था। लेकिन मेरे पास कोई विकल्प नहीं था। घरवालों को नाराज भी कर के आया था। बहरहाल, मैनें आफिस ज्वाइन कर लिया। लेकिन मुझे क्या पता था। हैदराबाद में संघर्ष की ये अभी शुरुआत है। मैं आपको नीचे क्रम अनुसार यहां की संस्कृति से रूबरू कराता हूं। जिससे पढ़ने में आसानी होगी।
1 ईटीवी भारत में कंटेंट राईटर पद की नियुक्ति निकालकर पैनल का काम कराया जाता है। सीधे टीवी वालों के शब्दों में कहें तो MCR-PCR
2 जितने भी डेस्क हैं, डेस्क के शिफ्ट इंचार्ज बहुत ही गैरजिम्मेदाराना प्रवृति के हैं। अपने से जूनियर्स के साथ बात करने की बिल्कुल भी तमीज़ नहीं है। तू तड़ाक करके, मुंह झाड़-झाड़ कर बोलते हैं।
3 सब अपनी जिम्मेदारी एक दूसरे पर फेंकते हैं। ट्रेनी कंटेंट राईटर जो स्टोरी लिखता है, आखिर में शिफ्ट इंचार्ज को अप्रूव्ड करना होता है। लेकिन वो लौंडियाबाजी, तफरीबाजी और चापलूसी में काम न के बराबर करते हैं। आखिर में हम जैसे लोगों की स्टोरी फाइल नहीं हो पाती है। अगले दिन वही लोग संपादक के सामने और खुद संपादक भी हमें गालियों का भरपूर डोज़ देता है।
4 ईटीवी भारत ज्वाइन करने के एक हफ्ते बाद ही मुझे जेल जैसा फील होने लगा था। यहां खाना-खाने तक सही से नहीं दिया जाता। लंच के टाईम पर खाना खाने चले जाते हैं। तब शिफ्ट इंचार्ज कहता है, तुम किसके पूछने पर गए थे? अब बताइए भला, इंसान हगने मूतने भी यहां स्कूल की तरह पूछकर जाएगा?
5 शिफ्ट के दौरान मोबाइल फोन सभी कर्मचारियों से जमा करा लिया जाता है। बीच में बिल्कुल भी हिलने डूलने का समय या ब्रेक नहीं दिया जाता है।
6 सबसे भद्दा यहां का माहौल। यहां जूनियर्स कर्मचारियों को स्वीपरमैन की तरह ट्रीट किया जाता है। मेरे से छह महीने पुराना एक जूनियर मुझसे तु तड़ाक और गंदी गंदी गालियों और कमेंट करके काम लेता है। यहां का मैनेजमेंट और HR कान में रूई लगाकर बैठे होते हैं।
7 यहां का इतना घुटन और घटिया वाला माहौल है कि, गंभीर रूप से बीमार होने की परिस्थिति में भी कहा जाता है, कुछ दवा खाकर आॅफिस आ जाइए।
8 मैं ईटीवी भारत के जिस डेस्क पर बतौर ट्रेनी हूं। दो महीने के यहां के अनुभव को देखकर यही लगा कि, मीडिया इंडस्ट्री के सबसे झांटू झांटू लोग, जिन्हें नोएडा दिल्ली में नौकरी नहीं मिलती है। वो यहां हैदराबाद ईटीवी भारत आ जाते हैं। जिनमें अब मैं खुद को भी शामिल कर रहा हूं।
9 यहां जो टीम में पुराने लोग हैं, आपस में एक दूसरे की वीकनेस को छुपाए रखने के लिए गुटबाजी किए हुए हैं। किसी को आगे बढ़ने नहीं देते। यहां तक की किसी को ठीक से काम सिखने या करने भी नहीं देते।
10 ईटीवी भारत के हिंदी यूनिट का इतना भयावह और गंदा माहौल है कि, देखकर लगता है। ये लोग किस जंगल से उठकर आ गए हैं। किसी को कुछ नहीं आता। खबरों में भरमार गलतियां होती हैं। बताने पर उल्टा सुनने को मिल जाता है। हमेशा बदतमीजी से पार होकर पेश आते हैं।
एक युवा पत्रकार द्वारा भेजे गए पत्र पर आधारित.
मनीष दुबे
July 23, 2019 at 9:42 pm
डिअर फलाने
वैसे नाम लिखते तो और मजा होता असल भड़ासी होते तुम. ना पता इतना लंबा लिख के नाम क्यों गुप्त रखा. शायद अभी टॉर्चर की और उम्मीद पाल रक्खी हो खुद में. नौकरी की लालसा हो मन में. की शायद कोई तुम्हे जान्ने वाला तुम्हारी करू कथा सुनकर पसीज जाए और तुम्हे बुला भेजे एक नए टॉर्चर के लिए. गुरु काबिलियत है तो ये कथाएं छोड़कर आगे बढ़ो और साबित करो खुद को जो तुमने सीख रक्खा हो. नही तो चमक दमक देख के आने वाले आते जाते रहते है. मीडिया का कथानक आज वैसा हो चला है एक पुरानी कहावत की तरह की
कनक कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय
जो खाये बौराये या जग पाए बौराये
तो भाई तब इस जुमले के अर्थ शब्द अलग थे अब के समय इसमे अपने मुताबिक चीजे वस्तुएं सेट कर समझिए फायदा होगा.
जै जै
Kushal
July 23, 2019 at 10:01 pm
Bhai sahab Maine to join hi nhi kiya etv bharat ..Mere pass unka offer letter pda hua hai..16000 pe baat hui thi. Bich me afsos hua ki kyu nhi join kiya..ab aapse ye jankar aisa lag raha hai..sahi kiya maine.
अंकुर
July 24, 2019 at 6:18 pm
बिलकुल सही दुःख है ऊपर लिखने वाले लोगों का. वैसे तो ओवर आल सारे मीडिया हाउसेस का ही बुरा हाल है. किसी भी स्ट्रिंगर या रिपोर्टर से काम तो लिया जाता है, सारे साल के 24 घंटे. लेकिन उतने पैसे नहीं दिए जाते. लेकिन ईटीवी भारत ने तो हद्द ही कर रखा है. समाज का चौथा स्तम्भ कहे जाने वाले एक पत्रकार का जितना शोषण यहाँ है. शायद ही किसी संस्थान मैं होगा.
मनोज
August 17, 2019 at 5:41 pm
अमर उजाला का भी यही हाल है।
साले पुराने लोग एक गुट बनाये है और नए लोगो को मौका नही दिया जाता है अब तो यह सालाना इन्क्रीमेंट के नाम पर 200-300 रुपये बढ़ जाते है पर ये बताइये इतने पैसे में तो बच्चे के डायपर छोड़िये 1 हफ्ते की सब्जी भी नही आएगी। तो इतनी भारी भरकम रकम लेकर हम क्या करेंगे।
साला अब तो ज़िन्दगी नरक हो गयी है।