आमतौर पर प्रशासन का एक ही गुणधर्म, गणित और समीकरण होता है, प्रशासनिक निर्लज्जता, संस्थानिक बेहयाई और विधिसम्मत क्रूरता। कॉन्ट्रैक्ट कर्मचारी को रौंदना, उन्हें मानसिक प्रताड़ना देना अधिकारियों और प्रशासन का खास़ शौक बन गया है। खुद को भारतीय सूचना सेवाओं का अधिकारी (कुछ चुनिन्दा अधिकारी) कहलाने वाले इन लोगों के पास ना तो बात करने का सलीका, ना ही तमीज़ और ना ही तहज़ीब। भारत सरकार ने इन्हें एक खास तरह की इम्युनिटी (Administrative Immunity) से नव़ाजा है, जिसकी वजह से ये लोग उन्मादी हो गये है। जब कॉन्ट्रैक्ट कर्मचारी मानसिक तनाव में आकर बिखरता है और इस्तीफा दे देता है तो इन्हें शैतानी खुशी मिलती है। कोई इनकी दहलीज़ पर आकर इनके सामने हाथ जोड़े, नाक रगड़े और नौकरी के लिए गिड़गिड़ाये, घुटने टेके, घर, चूल्हे और बच्चों की दुहाई दे, तभी ये लोग पिघलते नहीं है। शायद इतने निर्मम राक्षस, दैत्य और शैतान भी नहीं होते होगें।
कुछ इसी तरह के हालातों से, मैं पिछले कई सालों से गुजर रहा था। आखिरकर स्थितियों से समझौता करते हुए, मुझे इलैक्ट्रॉनिक मीडिया मॉनिटरिंग सेन्टर की नौकरी छोड़कर दूसरी तलाशनी पड़ी। हर महीने मुझ पर ईएमएमसी प्रशासन द्वारा किसी ना किसी तरीके से दबाव बनाया जाता रहा। मेरे साथ ऐसा बर्ताव पिछले दो सालों से चलता रहा। मैनें अपनी आव़ाज अपने तरीके से उठायी, कई सहकर्मियों ने मुझे गलत समझा और मेरी कवायदों को निजी लड़ाई बताया। आज में उन्हीं लोगों से सवाल पूछना चाहता हूँ कि, वरिष्ठ गुजराती मॉनिटर आज़म खान के इस्तीफे पर आप लोग चुप क्यों है।
सबसे पहले तो मैं इस वाकये की बानगी से आप लोगों को रूबरू कराता हूँ। पूरा ईएमएमसी जानता है कि आज़म खान बहुत ही सुलझे हुए और स्पष्ट प्रवृत्ति के इंसान है। उनके कार्य और व्यवहार पर कोई उंगली तक नहीं उठा सकता है। दूसरी ओर ईएमएमसी का इतिहास रहा है, यहाँ पर प्रशासनिक दिशा-निर्देशों को ताक पर रखते हुए, मौखिक आदेशों (Verbal Order) पर 95 फीसदी काम करवाया जाता है। मसलन् DAVP के काम को ही लीजिए कोई कार्यालय आदेश नहीं, फिर भी EMMC की पूरी Work Force को इसमें झोंक दिया जाता है, ये बात सभी लोग जानते है कि, जब एक विभाग दूसरे विभाग कार्य करवाता है तो, उसे अतिरिक्त भुगतान होता है। आज तक यहाँ के मॉनिटरिंग कर्मियों को किसी तरह का अतिरिक्त भुगतान नहीं किया गया है।
निर्वाचन आयोग हर साल काम करवा कर निकल जाता है, मॉनिटरिंग स्टॉफ कोई अतिरिक्त भुगतान नहीं, प्रमाण-पत्र का लालच दिया जाता है, आखिर में वो भी नहीं दिया जाता है। चाय-पानी के नाम पर अगर निर्वाचन आयोग 200 रूपये प्रति कर्मचारी को देता है तो, वो यहाँ पहुँचते पहुँचते 20 रूपये में तब्दील हो जाता है। सभी लोग अच्छे से जानते है कि, ईएमएमसी Content Violation की मॉनिटरिंग के लिए बना था, यहाँ पर एक अवैध न्यूज़ रूम बना रखा है, जिसका कागज़ों पर कोई अस्तित्व नहीं है। अपने सियासी आकाओं को खुश करने के लिए सारा मसाला प्रशासन यहीं तैयार करवाता है। यहाँ पर सारा काम Verbal Orders पर होता। जब आप लोग Experience Letter लेने जायेगें तो, उसमें यहाँ का कोई जिक्र नहीं होता है।
खैर वापस लौटते है आज़म खान की बात पर, मेरे इस्तीफे के बाद आज़म खान दूसरे शख्स है, जिनकी पीठ प्रशासन के चाबुक से छलनी हुई है। मौखिक आदेश पर उन्हें शास्त्री भवन भेज दिया जाता है, ताकि सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की निकम्मी Work Force के छूटे कामों को करवाया जा सके, यानि कि भर्ती Monitoring के काम के लिए और वास्तव में काम करवाया जा रहा है LDC, UDC और MTS वाला। कुल मिलाकर Labour Law की धज्ज़ियां उड़ाई गयी। ईएमएमसी प्रशासन कहता है कि, वहाँ पर काम करने वालों के कमी है, इसीलिए वहाँ ईएमएमसी से लोगों को भेजा जा रहा है। अगर वहाँ पर कल को साफ-कर्मियों की कमी रहेगी तो भी ईएमएमसी प्रशासन वहाँ पर अपने Monitor को भेज देगा। वहाँ का माहौल आज़म भाई को बेहद प्रतिकूल लगा। काम करने की दशायें बेहद दोयम दर्जें की थी। दूसरी ओर वहाँ की अंडर सेक्रेटरी मगरूरियत से भरी हुई, कुल मिलाकर एक तो करेला ऊपर से नीम चढ़ा।
काश! IIMC में उन्हें ट्रैनिंग के दौरान बात करने का सलीका और तहजीब सिखायी गयी होती। हालातों को भांपते हुए, आज़म भाई ने कई दफ़ा ई-मेल करके ईएमएमसी प्रशासन से दरख्वास्त की, उन्हें वापस सूचना भवन बुला लिया जाये लेकिन ईएमएमसी में वहीं ढ़ाक के तीन पात वाली बात, प्रशासन की कोई जवाबदेही और जिम्मेदारी नहीं। उन्हें उनकी ई-मेल्स् का कोई उत्त्तर नहीं मिला। आखिरकर वो दिन आ ही गया, जिसका अंदेशा पहले से ही आज़म भाई को था।
आजम पर काम को लेकर लापरवाही का गलत आरोप लगाया गया, कामचोरी का तमगा उन पर लगाया गया। सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की निकम्मी Work Force के सामने उनके स्वाभिमान को तार-तार किया गया। मोहतरमा अंडर सेक्रेटरी की बदतमीजी का आलम तो देखिये एक कॉन्ट्रैक्ट कर्मचारी को देख लेने की धमकी सबके सामने दे रही थी। आज़म भाई ने बेहद शालीनता का परिचय दिया और शांत बने रहे। और वापस ईएमएमसी सूचना भवन चले आये, यहाँ पर भी उनके साथ वैसा ही रवैया बरता गया। इस मामले को लेकर आश्वासनों के गोल पोस्ट को बार-बार ईएमएमसी प्रशासन द्वारा बदला गया। आखिर में ईएमएमसी के सहायक निदेशक ने कह ही दिया, हमें ऊपर से बहुत दबाव है तुम्हें निकालने का। थक-हारकर आज़म भाई को इस्तीफा देना पड़ा।
हक के लिए उठी आव़ाजों को दबाने में, अधिकारी अपनी पूरी ताकत लगा देते है। इनकी ताकत पता नहीं तब कहाँ चली जाती है, जब हम लोग वेतन-वृद्धि की बात करते है, सामाजिक सुरक्षा की बात करते है, कार्यालय में बेहतर माहौल की बात करते है। मैं ईएमएमसी के उस मॉनिटरिंग स्टॉफ से भी सवाल पूछना चाहता हूँ कि, जिन्हें लगता है कि बातचीत से सारा मसला हल हो जायेगा।
अगर आप लोग यूँ ही प्रशासन की गोदी में बैठे रहे तो, राजन और आज़म के बाद अगला नंबर आपका लगने वाला है। कुछ तो इस कार्यालय में बौद्धिक मृत्यु को प्राप्त हो चुके है, उनका जमीर मर चुका है, उनसे हक की आवाज़ बुलन्द करने की उम्मीद करना बेमानी है। मैं हर बार कहता हूँ कि, ये जो अधिकारियों की जमात है ना, ये किसी के सगे नहीं होते है। इस कार्यालय में कुछ लोग है जो खुद को प्रखर प्रबुद्ध पत्रकार, बुद्धिजीवी और संपादक समझते है, लेकिन बात जब हक-हुकूक की होती है, तो इनकी बुद्धि पंगु हो जाती है। घिग्गी बंध जाती है। सारी पत्रकारिता घास चरने चली जाती है। बात आपके स्वाभिमान और अस्तित्व की है, या तो गधों की तरह यूं ही चुपचाप सहते रहो या फिर अपने हक के लिए लड़ाई लड़ो। कम से कम अपने जमीर से समझौता तो न करो। अपने अधिकार हासिल करो ताकि कम से कम आईने में खुद से नज़रे तो मिला पाओ। वैसे तो मुझे उम्मीद कम है कि, मेरी बात आप लोगों के समझ में आये। देखते है ईएमएमसी प्रशासन अगला राजन और आज़म किसे बनाता है।
“उसूलों पे जहाँ आँच आये, वहां टकराना ज़रूरी है।
जो ज़िन्दा हों तो, फिर जिन्दा नज़र आना ज़रूरी है। ”
राजन झा
पूर्व ईएमएमसी कर्मचारी
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