समरेंद्र सिंह-
नाच मेरी “बुलबुल” कि पैसा मिलेगा, कहां कदरदान हमें ऐसा मिलेगा! कुछ साल पहले की बात है। मेरे एक परिचित ने कहा कि तुम्हारा सम्मान कराना है, बोलो कब करा दें। मैंने कहा मेरा सम्मान? मैंने ऐसा क्या कर दिया भाई? उसने कहा कि तुम इतने दिन से लिख पढ़ रहे हो, तुम्हारे कुछ प्रशंसक भी हैं, हम चाहते हैं कि तुम्हारा सम्मान हो। मुझे बहुत जोर से हंसी आयी और मैंने कहा कि अरे यार चैन से जीने दो। सम्मान वगैरह में मेरा जरा भी यकीन नहीं है। ये सब फर्जी का काम लगता है। दुनिया के सबसे सम्मानित सम्मान और अवार्ड भी घोटाले से कम नहीं हैं। इसलिए तुम किसी और का सम्मान करा दो। मुझे रहने दो। कहीं भाषण देना हो तो बताओ। वो अच्छा काम है, मुफ्त में भी भाषण दे दूंगा।
दुनिया का सबसे लोकप्रिय अवार्ड नोबेल है। जिस डाइनामाइट से करोड़ों लोगों की बलि ली गई और ली जा रही है उसका अविष्कार अल्फ्रेड नोबेल ने किया था। अल्फ्रेड नोबेल को लगता था कि उसके अविष्कार से दुनिया का भला होगा और युद्धों का अंत हो जाएगा। पता नहीं कैसे – लेकिन उसे लगता था। बहुत से लोग भ्रम में जीते हैं, वो भी जीता था। फिर जब मौत मुहाने पर आयी और उसके बनाए अविष्कार से मरने वाले अनगिनत लोगों के बहते हुए लहू और उनकी चीखों ने उसे परेशान करना शुरु किया तो उसने नोबेल अवार्ड की स्थापना कर दी। उसमें एक पुरस्कार शांति के लिए भी दिया जाता है।
दुनिया के 2021 लोगों को नोबेल पुरस्कार मिल चुके हैं, उनमें 103 लोगों को शांति के लिए दिए गए हैं। दुनिया को न तो शांति मिली है और ना ही दुखों से मुक्ति। संवेदनशील लोगों के लिए जीवन दिन ब दिन कठिन होता जा रहा है। मैं भेड़ और भेड़ियों की बात नहीं कर रहा। जीवन के उनके लक्ष्य सीधे, सरल और सपाट होते हैं। दिक्कत उनको होती है जो भेड़ और भेड़ियों में से कुछ भी बनने से इनकार कर दें। इंसान बनने और होने की कोशिश में लगे रहें।
आज मैं आपसे कहूं कि आप ऐसे कितने लोगों का नाम जानते हैं जिन्हें नोबेल मिला है, तो आप 0-100 के बीच फंस जाएंगे। कितने लोगों की तस्वीर पहचानते हैं तो शायद 0-20 के बीच कहीं जवाब दे जाएं। ये मुमकिन है कि सिविल सर्विसेज की तैयारी करने वाले कुछ लोग ज्यादा विजेताओं के नाम बता दें। लेकिन आम जनता के लिए इस पुरस्कार का कोई महत्व नहीं। पढ़ने लिखने वालों की नजर में महत्व है, वो भी इतना ही कि 100 विजेताओं के नाम भी उन्हें याद नहीं होंगे। जिन्हें नाम याद होगा उनमें से ज्यादातर को ये पता नहीं होगा कि किस लिए नोबेल दिया गया। ये दुनिया के सबसे सम्मानित सम्मान का हाल है। बाकियों की क्या बात की जाए? उनकी हैसियत तो दो टके की भी नहीं है।
यहां ये भी ध्यान रखिएगा कि ये सिर्फ 100-125 साल का इतिहास है। मान लीजिए कि हजार साल तक ये दुनिया यूं ही चलती रही तो नोबेल पुरस्कार विजेताओं की संख्या 20000-25000 के बीच होगी। फिर सिविल सर्विसेज में ये सवाल पूछे जाने भी बंद कर दिए जाएंगे या फिर उन्हें सिर्फ भारतीय विजेताओं तक सीमित कर दिया जाएगा। समय की दहलीज पर 1000 साल की बिसात ही क्या है? एक तिनका, एक कतरा, एक कण – या उससे भी कम।
हमारे देश में नोबेल, ऑस्कर और सरकारी सम्मानों को छोड़ दिया जाए तो एक अवार्ड की खूब चर्चा होती है। वो है मैगसेसे (मैगसायसाय) अवार्ड। इसे देने वाली कंपनियों का नाम है – रॉकफेलर और फोर्ड। अमेरिकी खूफिया संगठन सीआईए से इनका संबंध रहा है। इन दोनों के हाथ लाखों बेगुनाहों के लहू से सने हुए हैं। लेकिन हमारे यहां के बुद्धिजीवी और समाज सेवक अमेरिकी कंपनियों के इस अवार्ड को माथे पर चिपका कर घूमते हैं। भारत के बुद्धिजीवियों की इतनी ही हैसियत है। इनकी वफादारी किसी कंपनी, किसी पंटर, किसी भांट के यहां गिरवी है। जहां बुद्धिजीवी ऐसे हों, वो मुल्क कैसा होगा? ठीक ऐसा ही होगा, जिसमें हम जी रहे हैं।
दुनिया के अब तक के सबसे प्रखर बुद्धिजीवियों में से एक का नाम ज्यां पॉल सार्त्र है। फ्रांस के दार्शनिक और साहित्यकार सार्त्र ने अस्तित्ववाद का सिद्धांत दिया था। सार्त्र को 1964 में नोबेल पुरस्कार देने की घोषणा की गई। सार्त्र ने ये कहते हुए उसे लेने से मना कर दिया कि उन्हें डर है कि इससे कहीं उनके विचार प्रभावित न होने लगें।
सब सार्त्र नहीं हो सकते। लेकिन सब भांट बन जाएं, ये भी कहां तक उचित है? एक दो टके के सम्मान को माथे पर चिपका कर कहने लगे कि काम को सम्मान मिला है, कहां तक उचित है? एक जूते से भी कम कीमत चुका कर अवार्ड खरीदने लगें, ये कहां तक मर्यादित है? लाखों लोगों के लहू से सने हुए सम्मान को छाती पर चिपका कर मानवता का राग अलापने लगें – ये कितना खूबसूरत है? सब कुछ गंदा, भद्दा और अश्लील लगता है।
खैर, दोस्तों की मेरी सूची में जिन-जिन को ENBA अवार्ड मिला, उन सभी को बधाई। जो खरीद सके, उन्हें भी बधाई। जिन्हें नहीं मिला या जो नहीं खरीद सके, वो निराश नहीं हों। एक खांची सम्मान हैं, ये मौका फिर मिलेगा। जिन्होंने खरीदने से इनकार कर दिया, उनसे बस इतना ही कहना है कि वो ऐसे ही मस्त और मजबूत बने रहें।
ऐसा सम्मान मिलने से कोई फर्क नहीं पड़ता। इंडियन एक्सप्रेस वाले रामनाथ गोयनका सम्मान में फिर भी थोड़े पैसे मिलते हैं। उनसे आप एक टीवी, एक छोटा फ्रिज और एक वाशिंग मशीन खरीद सकते हैं ताकि चड्ढी और बनियान धोने से बच जाएं। इस ENBA अवार्ड में तो वो भी नहीं मिलता। खाने और दारू के लिए भी लाइन लगानी पड़ती है। जितना बच सकते हैं, बचे रहिए। अनुराग बत्रा को मानना पड़ेगा। बड़े बड़े संपादकों और पत्रकारों को भी थाली पकड़ा कर लाइन में लगा दिया।
ओह! “क्रांतिकारियों” के लिए ये स्वर्णिम काल है! बोल के लब आजाद हैं तेरे! बोल जबां अब तक तेरी है, तेरा सुतवां जिस्म है तेरा, बोल कि जां अब तक तेरी है!… ला पिला दे साकिया, पैमाना पैमाने के बाद!
(नोट – ऊपर हेडर में “बुलबुल” की जगह संपादक पढ़िए। मैं सोच रहा हूं कि हमारे गोल-मटोल, तोंदूमल संपादक लोग (उदाहरण के लिए अनुराग बत्रा और सुप्रिय प्रसाद) नाचते हुए कितना अद्भुत लगेंगे! ऊपर से पूरी बांह की लाल टी-शर्ट पहना दी जाए तो कहर ही बरपा देंगे!)
आशीष
May 2, 2022 at 3:17 pm
अपना सम्मान अपने मन में होना चाहिए और अपनी नजरों में होना चाहिए
फिर टिकी अन्य सम्मान की क्या जरूरत ये सब तो सिर्फ औपचारिकता है