जे सुशील-
बिहार में शराबबंदी कानून को लेकर इस समय जिन लोगों के पेट में मरोड़ उठ रही है वो लोग तब कहां थे जब ये नियम लागू हुआ था. दो दिन से देख रहा हूं कुछ इंजीनियर एक बोतल शराब के साथ गिरफ्तार हुए तो बहुत दर्द हो रहा है क्योंकि वो कुलीन घरानों के मध्यवर्गीय लोग हैं. हर कोई एक बोतल एक बोतल की बात कर रहा है.
कानून में एक बोतल और चार बोतल का मसला नहीं होता है. कानून एक पैग पर भी लग सकता है. इसलिए ये वाहियात तर्क है. ये तर्क और भी वाहियात और वर्गभेदी है कि पकड़े गए लोग इंजीनियर थे. कमरे के अंदर पी रहे थे. क्या कानून इंजीनियर और पढ़े लिखों के लिए अलग है और गांव के गरीब लोगों के लिए अलग है. बिल्कुल नहीं. पढ़े लिखे लोगों को तो और कड़ी सजा मिले कि उन्हें पता था कि वो कानून का उल्लंघन कर रहे हैं. न केवल पीना बल्कि राज्य में अवैध तरीके से शराब लाना भी अपराध की श्रेणी में है.
अब व्यापक बात- दुनिया में किसी भी नशे को प्रतिबंध के ज़रिए रोका नहीं जा सका है. गुजरात में शराब का अवैध धंधा बिल्कुल संगठित रूप से कई सालों से चल रहा है. जिसको जितना हिस्सा जाना है वो जाता रहता है. सरकार भी मस्त है. अधिकारी भी और शराब बेचने वाले भी और पीने वाले भी.
बिहार में शराब बेचने वाले छोटे छोटे माफिया हर गांव घर में मिल रहे हैं. ये सर्वविदित है. इनको मिलने वाला पैसा कहां जाता है ये भी अब किसी से छुपा हुआ नहीं है. ऐसे प्रतिबंध का क्या मतलब है.
लोग ये तर्क दे सकते हैं कि औरतें खुश हैं कि शराब नहीं मिलती है तो घर उजड़ना कम हुए हैं. लेकिन इसके पीछे कारण देखिए. आकड़ा निकाल कर देखिए कि शराबबंदी के पहले के पांच सालों में शराब के ठिकानों के कितने लाइसेंस सरकार ने दिए हैं. शराब खराब चीज है. इसकी बिक्री में नियंत्रण होना चाहिए. पहले बिहार झारखंड में शराब के लाइसेंस कम दिए जाते थे ताकि नियंत्रण हो. एक जिले में चार पांच लेकिन पिछले दस साल में बिहार में गांव गांव में लाइसेंस बांटे गए.
मेरे कुछ परिचित जिनकी आय मध्यवर्गीय थी वो तक शराब बेचने के बारे में गंभीरता से सोचने लगे थे. जाहिर है कि कुकुरमुत्तों से अधिक तेजी से शराब की दुकानें पूरे बिहार में खुलीं. राजस्व मिला सरकार को. अगर इसे नियंत्रित किया जाता तो शायद औरतों को आवाज़ उठाने की ज़रूरत नहीं पड़ती.
बिहार में अब भी शराब बिक रही है. अवैध तरीके से. राजस्व से अधिक पैसा आ रहा है जो सरकार को न जाकर दबंग राजनेताओं को, पुलिस को, और कुछ लोगों के अनुसार चुनाव लड़ने के लिए पार्टियों के खाते में जा रहा है.
एक पैरेलल अर्थव्यवस्था खड़ी हो गई है. मुद्दा शराब नहीं है. मुद्दा शराब के नियंत्रण का है. नशा करने वाला नशा कर ही लेगा. सरकार का काम नियंत्रण करना है. पैरेलल इकोनोमी खड़ी करना नहीं है. जिसके पास पैसा है गुजरात में वो कार से दमन दीव जाकर पी लेता है. बिहार वाला बनारस जाकर पी लेगा या झारखंड जाकर वीकेंड मना ले रहा है.
इंजीनियर गिरफ्तार हुए हैं ठीक हुआ है. शादी में शराब का लाइसेंस दे दीजिए. पार्टियों में दे दीजिए. ये हो सकता है. लेकिन सरकार को प्रतिबंध लगाकर मनमानी करनी है. कानून का दुरूपयोग होता ही है. हर कानून का. पहले गरीब लोग पकड़ में आते थे तो किसी को दिक्कत नहीं थी. अब मध्यवर्गीय नौजवान पकड़े गए हैं. कानून बदलन चाहिए.
हर जिले में एक दो शराब की दुकानें हों. नियंत्रित बिक्री हो शराब की. ये पागलपन बंद हो नशे पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने का.
फिलहाल मैं आज ब्रांडी लेकर आया हूं. ठंड बढ़ गई है. हीटिंग चलाने का मन नहीं है. शरीर गरम रहना चाहिए. आखिर शराब भी तो अनाज का ही बना है.
इस पोस्ट पर बहस मत करो. जिसे बहस करने का मन है दो पैग लगा लो यानी कि थोड़ी थोड़ी पिया करो…..
नोट- अमेरिका में अगर कोई ड्रग्स के नशे में पाया जाता है तो उसे अस्पताल ले जाते हैं. गिरफ्तार नहीं करते. ड्रग्स बेचते हुए पकड़े जाने पर गिरफ्तारी होती है और सजा भी. ड्रग्स लेते हुए पाए गए तो गिरफ्तार नहीं किया जाता. बेचने वाले को पकड़ा जाता है.