Abhishek Srivastava
ये जो #MeToo वाला ट्रेंड चल रहा है, थोड़ा विचलित करता है। लगे हाथ सोचा कुछ फर्स्ट हैंड कहानियां कह दी जाएं। पहली कहानी यूएनआइ समाचार एजेंसी की- वर्ष 2003। एक दिन एक एक बालिका संपादक के कमरे से निकल कर न्यूज़रूम में आई। पता चला इनटर्न है। उसे मेरे सुपुर्द कर दिया गया खबर सिखाने के लिए। चार दिन सिखाया, फिर वे नदारद हो गईं।
महीने भर बाद मिठाई का डिब्बा लेकर आईं। पता चला नौकरी पक्की हो गई है। मेरे बराबर पद और वेतन। ‘सर’ से मामला ‘अभिषेक’ पर आ गया, लेकिन ‘आप’ बचा था। चार दिन नौकरी हुई, फिर नदारद। महीने भर में एक और मिठाई का डिब्बा। पता चला आजतक में हो गया। मुझसे तिगुना वेतन और बड़ा पद। मामला ‘आप’ से ‘तुम’ पर आ गया। उलटे मेरा ट्रांसफर और महीने भर बाद दबाव में इस्तीफ़ा।
इसके बाद नवभारत टाइम्स- वर्ष 2005। रात के ड्रॉप में कैब से एक अंग्रेज़ी बालिका घर जाती थी। उसका आग्रह होता कि उसे पहले छोड़ा जाए गोकि उसका रूट बाद में लगता था। कई दिन बरदाश्त करने के बाद इसका मैंने और मेरे एक सहकर्मी ने नियम के मुताबिक प्रतिवाद किया, कि जिसका घर पहले आए उसे पहले छोड़ा जाए। अगले दिन चौथे मंजिल से बुलावा आ गया। सामने एचआर मैनेजर और बगल में उक्त बालिका। भल्ल भल्ल आंसू। बिना बताए मैं फायर कर दिया गया। मेरे सहकर्मी ने पैर पकड़ लिया, वे आज अंतरराष्ट्रीय मीडिया में बड़े पत्रकार हैं।
दैनिक भास्कर- वर्ष 2010। एक महिला आईं। मुझे जिम्मा सौंपा गया खबर लिखना सिखाने के लिए। अतीत के सबक के चलते मैंने संपादक को काफी मना किया, वे नहीं माने। चार दिन खबर सिखायी, पांचवें दिन संपादक ने केबिन में बुला लिया। सामने संपादक, बगल में बालिका। भल्ल भल्ल आंसू। मुझसे मुक्त कर के उन्हें स्वतंत्र काम दिया गया और दो हफ्ते बाद मुझे अकारण सेवामुक्त कर दिया गया।
इसके बाद बीबीसी हिंदी का न्यूज़रूम, जहां मैं दिहाड़ी करने गया- वर्ष 2012। शुरुआती हफ्ते में मैंने कुछ खबरें लिखीं। एक ख़बर पर तलब किया गया। तलब करने वाली महिला शिफ्ट इनचार्ज आइआइएमसी से मेरे बैच की एक पत्रकार। ‘कहां से पढ़े हो?’ मैं क्या जी ‘जहां से आप पढ़ी हैं, खुदाया आप ही के बैच का हूं’। आंख से अंगारे फूटे, चैम्बर में शिकायत। अगले दिन से काम दिया जाना बंद। रोस्टर भी नहीं लगा। नौवें दिन अनुबंध समाप्त।
अब बताइए, #MeToo के साथ ऐसी कहानियां चला दी जाएं या इनके लिए कोई और हैशटैग बनाया जाए?
चर्चित एक्टिविस्ट पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव की एफबी वॉल से.
विजय सिंह
October 7, 2018 at 6:49 pm
अभिषेक जी की बात से पूरी तरह सहमत हूं। एट्रोसिटी एक्ट की तरह महिलाओं के संरक्षण के लिए बने कानून का भी दुरुपयोग हो रहा है।
JITENDRA kumar
October 8, 2018 at 1:40 am
Sir bhuat badhiya content
Naseem
October 8, 2018 at 6:01 am
Bina aag ke dhuaan nahi uthta janaab.
Kyon wo sharmai nigaahein surkh angaara huin
Kuch galat andaaz se dekha to hogaa aapne
🙂
Dr. Ashok Kumar Sharma
October 8, 2018 at 7:07 am
कलेजा चाहिए खुद से जुड़े ऐसे मामलों को उठाने के लिए। बेशक कोई त्रुटि इन्होंने भी की हो मगर ये इंसान अच्छा है और पापी तो हरगिज़ नहीं। मैं भी एक किस्सा याद करता हूँ जब यूपी के इन्फॉर्मेशन डिपार्टमेंट में चालीस हजार का मोबाइल रखनेवाली एक महिला जूनियर क्लर्क को उसके स्वजातीय उपनिदेशक ने हवाई जहाज से महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और अन्य राज्यों की यात्रा कराई तथा टीएडीए भी दिलाया। उस मामले में सूचना निदेशक ने पत्रावली पर वरिष्ठों को छोड़ के उस सुंदरी क्यों चुना? ये समझ नहीं आता।
Ravi Pratap Singh
July 23, 2019 at 10:29 pm
sir Bilkul Sahi kah rahe hain aap
Deepak kumar Pandey
October 8, 2018 at 7:08 am
जिस दिन लड़कियां मीटू पर उतर आईं उस दिन कईयों के चेहरे से नकाब उतर जाएगा… क्योंकि ठरकियों की कमी नहीं है मीडिया में… कुत्ते की तरह लड़कियों के आगे-पीछे मंडराते हुए देखा जा सकता है… बड़ी हिम्मत वाली बात होती है … लड़की होने और मीडिया में नौकरी करने में… कहीं कहीं हो सकता है इस तरह की घटनाएं हो.. पर लड़कियों से ज्यादा जिम्मेदार कम से कम लड़के तो नहीं ही होते..