खोदा पहाड़ निकली चुहिया वो भी मरी हुई… कुछ ऐसा ही हाल पत्रकारों के लिए गठित वेजबोर्ड मजीठिया का है। इसके पहले गठित सभी आयोग की सिफारिशें औंधे मुंह गिरी हैं। लगभग सभी में अखबार के मालिकानों ने अपनी माली हालत खस्ता होने का रोना रोकर आयोग की सिफारिशों को रद्दी की टोकरी में डलवाया है। हां यह अलग बात थी कि इस आयोग की सिफारिशों को लागू कराने के लिए अखबारकर्मियों ने आर पार की लड़ाई लड़ी है।
अब एक नजर अदालती कार्यवाही पर। संसद के दोनों सदनों से पास होने और राष्ट्रपति की मुहर लगाने के बाद जब इसने कानून का रूप ले लिया। इस कानून के विरोध में कुछ अखबार के मालिकों ने कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। झेलाऊ अदालती प्रक्रिया से गुजरने के बाद फैसला आया। फैसला लागू न होने पर बड़ी संख्या में पत्रकार और पत्रकार संगठन कोर्ट गए कि अखबारों के मालिक आपके आदेश को नहीं मान रहे हैं यानि उसकी अवमानना कर रहे हैं। अब दो साल से अधिक अवमानना का मामला चला। फैसला आया। मिला क्या “बाबा जी का ठुल्लू”।
अगर देश की सर्वोच्च अदालत को यही फैसला (पत्रकार लेबर कोर्ट जाएं, अवमानना का स्पष्ट मामला बनता नहीं) सुनाना था तो इतना ड्रामा क्यों किया जज साहब। जब अवमानना को लेकर बड़ी संख्या में पत्रकार अदालत की शरण में आये थे तब ही मामले को खारिज़ कर दिया होता। जब मामला अवमानना का बनना नहीं था तो एडिशनल एफिडेविट क्यों मांगा था। एक बात और गौर करने की है वह यह कि, सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि पत्रकार /गैर पत्रकार आयोग की संस्तुतियों के अनुसार वेतन और अन्य परिलाभ के लिए लेबर कोर्ट जाएं। मामला सुप्रीम कोर्ट में था। उसकी सलाह पर हम/मैं लेबर कोर्ट जाएं, वहां हार जाएं तो हाईकोर्ट जाएं। हाईकोर्ट में हारें तो उसके फैसले के खिलाफ फिर सुप्रीम कोर्ट जाएं।
एक सवाल केंद्र सरकार से। जब वह खुद के द्वारा गठित आयोग की सिफारिशों को लागू नही करा पाती है तो वह वेजबोर्ड का गठन ही क्यों करती है। क्या सरकार का दायित्व सिर्फ और सिर्फ वेजबोर्ड का गठन करना ही है। प्रसंगवश एनडीटीवी ने मजीठिया वेजबोर्ड पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को न केवल खबर का हिस्सा बनाया बल्कि प्राइम टाइम में उसे अलग से स्थान दिया। (एनडीटीवी इसके लिए बधाई का पात्र है।) जिन लोगों ने एनडीटीवी पर ही इसे देखा वे गद्गगद होंगे। हालांकि जाते जाते चैनल इसकी बारीकियो का चीरहरण कर गया। उसके अनुसार कोर्ट ने तिथि निर्धारित नहीं} की कि, अखबार मालिक कब तक सिफारिशों को लागू करें। यानि अखबारकर्मियों में दम है तो वे ले लें।
ध्यान देने वाली बात यह है कि, सरकार हर दस साल पर अपने कर्मचारियों के लिए वेतन आयोग का गठन करती है। आयोग की सिफारिशें केंद्रीय कर्मचारियों के लिए होती हैं। राज्य सरकारें बाध्य नहीं हैं उसे लागू करने के लिए पर देर-सबेर लागू करतीं हैं नहीं तो कर्मचारी संगठन बाध्य कर देते हैं लागू करने को। अखबारों के मालिक वेतन आयोग की संस्तुतियों के अनुसार वेतन और अन्य परिलाभ नही देते हैं तो हम उसे लागू करा भी तो नहीं पाते हैं।
अरुण श्रीवास्तव
देहरादून
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अरुण श्रीवास्तव
June 20, 2017 at 1:44 pm
मजीठिया : लो एक और तारीख
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तारीख, तारीख , तारीख । है तो यह दामिनी फिल्म का चर्चित डायलाग लेकिन हमारी न्याय प्रणाली का बदनुमा दाग है लेकिन इस बदनुमे दाग के लिए दोषी कौन है इस दाग को छुडायेगा कौन ?
धर्म के मानने वाले कहते हैं ” भगवान के घर देर है अंधेर नहीं” लेकिन देर ही सबसे बडा अंधेर है।
मजीठिया अवमानना मामले में सुप्रीम कोर्ट क्षमा करियेगा माननीय लगाना भूल गया और इसे सभी कोर्ट अपनी अवमानना मानता हैं ने एक और तारीख दे दी। अब वह १४ जुलाई १६ को मामले की सुनवाई करेगा। वैसे १४ जुलाई को एक और तारीख मिल सकती है इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए क्योंकि अदालतों से न्याय नहीं सिर्फ तारीख मिलती है बस यह वकील की क्षमता/काबिलियत पर निर्भर करता है कि वह कितनी तारीख ले सकता है। कितने वादी/ परिवादी तो इस तारीख के चक्कर में खुदा को प्यारे हो गए कितने फटेहाल हो गए। खेत मेड की लडाई के लपेटे में आने वाले कितने किसानों को इन कोर्ट की तारीखों ने किसान से खेत मजदूर खेत मजदूर बना दिया है। पत्रकारों को ही लें तो न जाने कितने भूतपूर्व हो गए।
ज्यादा दूर न जाएं। अखबारों में काम करने वाले पत्रकारों व गैर पत्रकारों के लिए गठित “ताजा” वेतन आयोग को ही लें । यूपीए सरकार ने खानापूर्ति के लिए ही सही समाचारों पत्रों में कार्यरत पत्रकारों/ गैरपत्रकारों की बेहतरी के लिए रिटायर जज मजीठिया की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया। नौ दिन चले अढाई कोष की भावना कोओ चरितार्थ करते हुए आयोग ने अपनी रिपोर्ट सौंपी । सरकार ने सदन के पटल पर रखी। दोनों सदनों (लोक सभा और राज्य सभा) ने पारित किया और सरकार ने अधिसूचित। अधिसूचित होते ही जहां इसने कानून का रूप लिया वही अखबार के मालकानों ने अदालत की शरण।
अदालती प्रक्रिया में ही सालों लग गए । देश की सबसे बडी अदालत ने सबको अपने पांवों तले रौदने का दंभ भरने वाले मालिकानों के खिलाफ अपना फैसला सुनाया। मालिकानों ने एकल पीठ के फैसले को चुनौती दी। मामला ऊपरी पीठ में गया । मालिकानों ने इस पीठ के फैसले के खिलाफ भी पुनर्विचार याचिका दायर की। उसमें भी फैसला पत्रकारों के हक में आया फिर भी दंभी मालिकों ने देश की सबसे बडी अदालत के फैसले को मानने से इनकार कर दिया।
इस बार पत्रकारों और पत्रकार संगठनों ने भी हार नहीं मानी। यही नहीं नवोदित सोशल मीडिया (भडास और जनसत्ता एक्स.) भी पत्रकारों के साथ चट्टान की तरह खडा रहा। इसमें दिल्ली की वर्तमान सरकार की भूमिका को नजरांदाज नहीं किया जा सकता। पत्रकार और पत्रकार संगठन मामले की अवमानना को लेकर एक बार फिर अदालत का दरवाजा खटखटाया है। सात फरवरी २०१४ से कोर्ट की अवमानना का मामला विचाराधीन है। अवमानना के मामले में भी मालिकानों ने ” सारे घोडे खोल दिये ” लेकिन अब तक का नतीजा ” ढाक के तीन पात ” रहा।
मैं कोर्ट की निष्पक्षता , उसकी भूमिका पर सवालिया निशान नहीं खडा कर रहा हूं फिर खडा करने वाला हूं भी कौन यूं कहूं कि मेरी औकात ही क्या है?
फिर भी मजीठिया वेतन आयोग की रिपोर्ट को ध्यान में रखकर ही एक आम नागरिक की हैसियत से अदालती प्रक्रिया हताशा ही पैदा करती है। इसे न्याय के दरवाजे पर गए अन्य व्यक्ति या संस्थान के दायरे में नहीं देखना चाहिए। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि यह पहले वेतन आयोग की रिपोर्ट है जो यहां तक पहुंची है। इसके पहले की पांच आयोगों कि रिपोर्टें किस मुकाम तक पहुँच कर दम तोड दी बहुत ही कम लोगों को पता होगा। ह़ो सकता है कि सरकार पत्रकारों के वेतन के पुनरीक्षण के लिए एक और आयोग का गठन कर दे क्योंकि सरकारी कर्मचारियों के लिए समय से पहले मनमोहन सरकार ने आयोग का गठन कर दिया था । आयोग ने अपनी रिपोर्ट सौंप भी दी है। केंद्र सरकार के कर्मचारियों के साथ ही पत्रकारों के लिए आयोग का गठन किया जाता है।
अब सवाल यह नहीं उठता कि सरकार का काम सिर्फ और सिर्फ आयोग का गठन करना ही है उसे लागू कराना नहीं। माना कि अगली तारीख में फैसला अखबार में कार्यरत कर्मचारियों के हक में होता है और मालिकान उसे भी नहीं मानते हैं तो ?
अरुण श्रीवास्तव
14-3-16 को भड़ास के लिए लिखा गया था। हालांकि समझदारी का परिचय देते हुए इसे यशवंत भाई ने नहीं लगाया। इस केस को लेकर मेरा मन तभी से उचाट हो गया था।