Arvind Shesh : लोग कहते हैं कि गांव-गांव तक अखबार पहुंचने का फायदा हुआ है, तो हुआ ही होगा! लेकिन आज की एक खबर से इसे समझना चाहता हूं। प्रभात खबर के सीतामढ़ी संस्करण में एक खबर यह छपी कि सीतामढ़ी में एक ईवीएम में किसी भी बटन के दबाने से वोट फूल (कमल) छाप यानी भाजपा को जा रहे थे। सीतामढ़ी संस्करण का ई-पेपर प्रभात खबर के वेबसाइट पर नहीं है। मैंने सीतामढ़ी के सटे हुए शहर मुजफ्फरपुर संस्करण को खंगाला। उसमें मुझे कहीं यह खबर नहीं मिली। इसके बाद पटना या दूसरे संस्करणों में इसके होने की गुंजाइश कितनी थी!
यानी एक खबर जो सीतामढ़ी संस्करण में है, वह उसके सटे हुए जिले मुजफ्फरपुर तक में नहीं है। इसी तरह अगर दिल्ली या पटना या देश के किसी और शहर में ‘आतंकी बम-विस्फोट’ के बराबर कोई घटना होगी, तब यह खबर सीतामढ़ी के लोगों को अखबार में पढ़ने को मिलेगी, नहीं तो वे अपने पड़ोस के गांव में भैंस मर जाने पर मुआवजा की खबरें पढ़ें।
खबरों को स्थानीयता में समेटने का कितना बड़ा नुकसान हुआ है, इसका आकलन इस हवा में नहीं किया जा रहा है कि गांव-गांव में अखबार पहुंच गया। लेकिन गांव-गांव में अखबार किसी मेहरबानी या मिशन के तहत नहीं पहुंचा है, वह कमाई के लिए पहुंचा है। जिस तरह बेहद अहम खबरें किसी खास शहर या कस्बे के पन्ने में सिमट कर रह जा रही है, यह सहज नहीं है। कोई मीडिया और समाज का अध्येता इस पर एक अध्ययन कर सकता है। बहुत अहम बातें निकलेंगी शायद…!
दरअसल, मेरे खयाल से ईवीएम में किसी भी बटन को दबाने पर वोट भाजपा को जाना एक बेहद महत्वपूर्ण खबर थी और उसको राष्ट्रीय खबर होना चाहिए था। सत्ता की तकदीर तय करने वाले जिस ईवीएम को पवित्र मतदान का औजार बताया जा रहा है, वह ठीक नहीं है। डेढ़ साल के भीतर उत्तर प्रदेश के पंचायत चुनावों में सारे नतीजे उलट-पुलट हो गए। ये पंचायत चुनाव बैलेट पेपर पर हुए, ईवीएम से नहीं…!
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“सीतामढ़ी विधानसभा क्षेत्र के बूथ नंबर- 15 से शिकायत मिली कि कोई भी बटन दबाने पर वोट फूल (कमल) छाप पर ही बज रहा है।” प्रभात खबर, सीतामढ़ी संस्करण के पेज-2 पर दो कॉलम की छोटी खबर में एक लाइन में निपटा दी गई खबर किसी को सामान्य लग सकती है। लेकिन क्या यह इतना ही हल्की खबर है। केवल सीतामढ़ी के कई जगहों से “ईवीएम खराब होने” की खबरें आईं, लेकिन यह खबर बीच में नहीं दिख सकने लायक एक लाइन में। खैर, यह तो मीडिया में बैठी भाजपा का मामला है।
लेकिन चुनाव आयोग…! वह कौन-सा तांत्रिक इस मशीन में घुसा हुआ था कि कोई भी बटन दबाया जाए, वोट भाजपा को पड़ रहे थे। अगर ‘ईवीएम खराब’ होता तो ऐसा होता कि बटन दबाइए कोई, और वोट पड़े किसी को। लेकिन हर वोट फूल (कमल) को पड़ रहे थे। क्या यह चमत्कार है? रिपोर्टर और सब-एडिटर की बेवकूफी से किसी तरह छप सकी यह खबर मेरा सीधा आरोप है कि ईवीएम को तैयार करने वाला तंत्र किसी का बहाल किया गया खिलाड़ी है। बाकी “ईवीएम खराब” होने का मतलब भी यही समझा जाए कि कोई भी बटन, वोट भाजपा को। ईवीएम का मालिक अगर सिर्फ इकतीस प्रतिशत मशीनों में भी यह घपला करा दे तो बाकी विरोधी दल जमीनी वोट से जीतने के बावजूद नतीजे में हवा में उड़ जाएंगे।
पिछले साल असम से, और भी खबरें आईं थीं कि किसी भी बटन को दबाने से वोट भाजपा को ही पड़ रहे थे। 2009 में भारत में खुद लालकृष्ण आडवाणी भी इसके खिलाफ थे। दुनिया में खुद अमेरिका सहित कई देशों ने ईवीएम की घपलेबाजी की वजह से इससे वोट डालने पर पाबंदी लगा कर बैलेट पेपर को फिर से अमल में ला दिया। लेकिन भारत में यह ईवीएम किसकी सत्ता का औजार बना हुआ है…!
इसके बावजूद अभी नतीजा आना बाकी है। अभी तक की वोटिंग के हिसाब से भाजपा बुरी तरह से हारेगी। इसके बाद खुद भाजपाइयों को भी ईवीएम हटाओ के नारे के साथ इस पर आंदोलन छेड़ देना चाहिए। अब यह दलील मत दीजिएगा कि दिल्ली में भाजपा क्यों हारी। दिल्ली के नतीजे को आज भी मैं अस्वाभाविक मानता हूं। सातों लोकसभा सीटों पर भाजपा और विधानसभा सीटों पर लगभग सौ प्रतिशत पर भाजपा हारी, वह भी कुछ महीनों के अंतराल में। यह अपने आप में महान तथ्य है।
नोट- भाजपा के एक बड़े नेता जॉय बनर्जी ने हाल ही में कहा कि “चुनाव आयोग हमारे कंट्रोल में है!”
पत्रकार अरविंद शेष के फेसबुक वॉल से.
dk sarma
November 5, 2015 at 4:27 am
prabhat khabar ke sitamarhi karayalay me bina rupya diye press release nahi chhapta, ek mukhiya jee se maine puchha akhbar me apke bare me badiya khabar dekaha panchayatnam me -unhone kha 300 rupya dekar aap bhi jo chahe likhba lijiye