मजीठिया वेतन बोर्ड पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आ चुका है लेकिन प्रेस मालिक का फैसला नहीं आया। अब पत्रकार सुप्रीम कोर्ट में अवमानना का प्रकरण दर्ज कराना चाहते हैं जो उचित है। अवमानना का प्रकरण हर वह व्यक्ति दायर करा सकता है जो फैसले की परिधि में आता है। चूंकि सुप्रीम कोर्ट में सभी पत्रकार कोर्ट की अवमानना का प्रकरण दायर नहीं कर सकते है इसलिए बेहतर होगा कि निचली कोर्ट में निर्णयों के निष्पादन का मामला दायर करें। जिसे अंग्रेजी में एक्सक्यूशन आफ डिक्री (Execution of Decrees) कहते हैं। जिसे दायर करना बड़ा आसान है और इसमें खास बात यह है कि इसकी प्रक्रिया कोर्ट के फैसले के बाद होने वाली प्रक्रिया के समान शुरू होती है। अर्थात् यदि लेबर कोर्ट में एक्सक्यूशन आफ डिक्री लगाया जाता है तो प्रेस मालिकों को नोटिस जारी होगी, उल्लंघन करने पर आरआरसी जारी हो सकती है।
दरअसल हाईकोर्ट का निर्णय उस राज्य की सभी न्यायालय मानने को बाध्य हैं, उसी तरह सुप्रीम कोर्ट का निर्णय देश ही हर अदालत मानने को बाध्य है। चूंकि उच्चतम न्यायलय छोटी-छोटी जगहों में यह मानीटरिंग नहीं कर सकती है कि उसके आदेश का पालन हो रहा है या नहीं। ऐसी स्थिति में अधीनस्थ व निचली अदालतों का दायित्व बनता है वे निर्णय का पालन कराए।
सुप्रीम कोर्ट में अवमानना
सुप्रीम कोर्ट में अवमानना लगाने की प्रक्रिया सभी जानते हैं। परिवाद पत्र के साथ आदेश की कापी और जिस संस्थान में काम कर रहे हैं, उसका प्रमाण लगाना होता है। कंपनी द्वारा कोर्ट की अवमानना करने पर इसे सिविल अवमानना मानी जाती है और इसका उल्लंघन करने पर दोषियों की गिरफ्तारी तय है। जैसे सहारा के मालिक सुब्रत राय को हुआ। न्यायलयों की अवमानना अधिनियम 1971 की धारा 5 व उपधारा 4 के तहत कंपनी प्रबंधन व मालिकों की सहमति, मिलीभगत या आदेश की उपेक्षा साबित होने पर दोषियों की गिरफ्तारी तय है। इसके लिए दोषी कंपनी का निदेशक, प्रबंधन, कंपनी सचिव या अन्य अधिकारी है। चूंकि जर्नलिस्ट एक्ट 1955 में भी प्रशासनिक स्टाफ की परिभाषा है। इसलिए वर्तमान समय में पत्रकारों को यदि किसी अधिकारी से दुश्मनी निकालना हो तो उसे भी कटघरे में खड़े कर सकते है। इसमें प्रबंधक, संपादक या अन्य अधिकारी शामिल है। यदि निचली अदालत में मामला दायर कर रहे हैं तो निचले अधिकारी को प्रमुखता से आरोपी बनाना चाहिए जबकि यदि ऊपरी अदालत में मामला दायर कर रहे हैं तो मालिक व बड़े अधिकारियों को प्रमुख आरोपी बनाना चाहिए। अवमानना के मामले में कुछ विरोधाभाषी खबरे हैं। जैसे कुछ कानूनी जानकारों का कहना है अब सुप्रीम कोर्ट में अवमानना का मामला दायर करने से पहले हाईकोर्ट से अनुमति लेना जरूरी हो गया है। और वही दस्तावेज लगाने होते है जो सुप्रीम कोर्ट में लगाते हैं। यहां एक हफ्ते की सुनवाई चलती है जिसके बाद हाईकोर्ट सुप्रीम कोर्ट में अवमानना दायर करने की अनुमति देती है। हाईकोर्ट इस तथ्य की जांच करता है कि यह मामला अवमानना योग्य है या नहीं जबकि पहले कोई भी सीधे सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटा सकता था। लेकिन कुछ वकीलों का कहना है सुप्रीम कोर्ट में अब भी सीधे जा सकते है।
कमियां कहां
अब भी पत्रकार साथी वकील के सहयोग से नोटिस भेज देते हैं जो समय नष्ट करने के बराबर है। यदि निर्णयों के निष्पादन का प्रकरण लगा रहे हैं तो परिवाद पत्र में जरूरी विवरण के साथ अपना पूरा काम करके तैयार रखें। जैसे आपका कुल कितना वेतन बन रहा है जिसे कंपनी नहीं दे रही है। आर्थिक व मानसिक क्षतिपूर्ति की कितनी मांग कर रहे हैं। ब्याज की राशि कितनी मांग रहे हैं। जुर्माने की मांग कितनी कर रहे हैं। सभी को जोड़कर क्लेम करें। ऐसा नहीं कि आप कोर्ट और मालिक पर वेतन गणना करने की जिम्मेदारी छोड़ दें। अब किसी के पास इतना समय नहीं कि आपका काम करे या माथा पच्ची करे। ऐसे में मामला लंबा खिंच सकता है। दूसरी गलती यहां होती है कंपनी या पद के नाम से परिवाद तो लगाते हैं लेकिन किसी का नाम नहीं लिखते। नाम जरूर लिखें नहीं तो सभी निश्चिंत हो जाएंगे कि नाम किसी का नहीं है। गुजरात के साथियों ने हाईकोर्ट में जो मामला लगाया है उससे उन्हें न्याय तो मिल जाएगा लेकिन उन्होंने औद्योगिक विवाद अधिनियम के तहत परिवाद लगाया है जो कर्मचारियों की प्रताड़ना से संबंधित है। खैर हाईकोर्ट की फटकार से दैनिक भास्कर प्रबंधन के होश उड़ जाएंगे।
अधिनियम व अधिकार
संक्षिप्त में चर्चा करें तो औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947 कर्मचारियों की अवैधानिक पदमुक्ति, कर्मचारी को प्रताडि़त करने आदि का अधिकार देती है। जबकि कर्मकार प्रतिकार अधिनियम 1923 कर्मचारियों पर कंपनी के नुकासन होने के कारण जुर्माने पर रोक लगाती है। वेतन भुगतान अधिनियम 1936 यह सुनिश्चित करती है कि हर माह की 6 तरीख तक कर्मचारियों को वेतन मिल जाना चाहिए नहीं तो 10 गुना जुर्माना (धारा 15/3 के तहत) और वेतन देरी से मिलने, कटौती करने, वेतन ना देने का प्रकरण इसी एक्ट के तहत दर्ज होता है। जर्नलिस्ट एक्ट पत्रकारों के वेतन भत्ते, कार्य का समय, नौकरी से निकालने की प्रक्रिया में जटिलता, 3 साल में ग्रेज्युटी भुगतान आदि को परिभाषित करती है। अन्य अधिनियम नाम से ही परिभाषित है। जैसे क्रिमिनल केसों में आईपीसी और सीआरपीसी है एक यह बताता कि उक्त कृत्य अपराध है जबकि दूसरा अपराध पर दंड को परिभाषित करता है। इसी तरह लेबर कोर्ट में होता है। जैसे जर्नलिस्ट एक्ट के तहत कोई केस लगता है तो वेतन भुगतान के लिए सहयोगी अधिनियम वेतन भुगतान का, बोनस के लिए बोनस अधिनियम का, गे्रज्युटी के लिए गे्रज्युटी अधिनियम का आदि का सहायोग लेना पड़ेगा।
दरअसल कुछ साथ लेबर आफिस व कोर्ट में अंतर समझ नहीं पाते। यह उसी के समान है जैसे थाना और न्यायालय। थाना से कोई केस न्यायालय जाता है तो इसका मतलब यह होता है उसकी पीडि़त की पैरवी थाना के माध्यम से शासन कर रहा है। वश यही काम लेबर और लेबर कोर्ट का है। यदि लेबर आफिस के माध्यम से कोई केस लगता है तो लेबर को परेशान होने की जरूरत नहीं पूरा खर्च शासन उठाएंगी चाहे मामला हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट तक जाए। लेकिन यदि खुद लगाए है तो खुद कोर्ट का खर्च वहन करना पड़ेगा जो ज्यादा खर्चीला या पेचीदा नहीं होता।
महेश्वरी प्रसाद मिश्र
पत्रकार
ये भी पढ़ें…
वर्तमान समय पत्रकारों के लिए अघोषित आपातकाल के समान है
xxx
कुमार
July 24, 2014 at 5:44 am
महेश्वरीजी अापको कोटी-कोटी धन्यवाद । अाप की तरह सभी लोगों को अपनी तरफ से यथासंभव जो भी प्रयास मदद के बन पड़े करके लोगोंकी हौसलाअफजाई करनी चाहिए।इससे लोगों का ड़र कम होगा अौर लोगों को अपने हक्क़ के साथ साथ उनके साथ कर्तव्यों का भी पता चलेगा। मैं अहमदाबाद से हुं अौर अापने गुजरात के केस का उल्लेख कीया है इससे यह बात फलित होती है की अाप मजीठीया के मुद्दे पर पेनी नज़र रख रहे है। अब यह जरुरी है की हम लोगों को इस मुद्दे पर सोने न दे अौर इस लड़ाई को जारी रखें।