एक बार फिर सन्नाटे का आलम है। हर कंठ ने चुप्पी-खामोशी का उपकरण धारण कर रखा है। यह म्यूट यंत्र उन आवाजों पर भी हावी है जो कभी सर्वोच्च अदालत, वकीलों, केस करने के अगुआ लोगों और उनके समर्थकों-संग चलने वालों के हर रुख, हर कदम, हर पहल, हर चर्चा की केवल और केवल आलोचना करते रहते थे। उन्हें केवल खराबी-बुराई ही नजर आती थी-आती रही है। मीन-मेख निकालना जिनका परम कर्त्तव्य रहा है। लेकिन अंदरखाते इन केसों की सकारात्मक उपलब्धियों पर दावा जताने, अपना हक जताने, उसे पाने की चाहत रखने की मरमर भी उनके कंठों से अविरल-अनवरत फूटती रही है।
उन आवाजों का विराम तो समझ आता है जिन्होंने मजीठिया वेज अवॉर्ड पाने के लिए न जाने कितनी मुसीबतें सही-झेली हैं। न जाने कितने धक्के खाए हैं, कितने अपमान सहे हैं, कितने खर्चे किए हैं। लेकिन मौकापरस्त निंदकों की जुबान पर ताला लगना (तात्कालिक तौर पर) अनेकानेक अनुमानों के बावजूद अनुमानेतर है। बहरहाल, जिन्होंने मजीठिया पाने के लिए अपने भरसक कठोर प्रयास किए हैं और सुप्रीम कोर्ट में अवमानना के केस किए हैं, उनमें पसरी शांति सहज समझ आने वाली है। क्योंकि उनका संघर्ष एक मुकाम पर पहुंच गया है। सर्वोच्च न्यायालय ने सुनवाई पूरी कर ली है और अपना फैसला सुरक्षित रख लिया। संघर्ष करने वाले मीडिया साथी इत्मीनान की सांस ले रहे हैं। वे शांतिपूर्वक इस चिंतन में मगन हैं कि उन्हें वेज बोर्ड की संस्तुतियों के हिसाब से कितना मिलेगा। उनके अखबार मालिकान कितना और कैसे देते हैं, देते भी हैं कि नहीं, इस उधेड़-बुन में लगे हुए हैं।
वैसे निंदकों की जमात भी नए वेज स्ट्रक्चर के हिसाब से बढ़ी सेलरी पाने-लपक लेने की कम जुगत नहीं लगा रही है। वह बगैर कुछ लगाए, बगैर मेहनत मशक्कत किए, धक्के खाए, अपमान-जिल्लत झेले ज्यादा सेलरी-सुविधाएं बटोर लेने के शॉर्टकट निकाल लेने में तल्लीन है। इसके अलावा प्रिंट मीडिया मालिकों-मैनेजमेंट की जमात भी माथे पर बल डालकर उन रास्तों को निकालने-बनाने में मशगूल है जिससे उन्हें वेज बोर्ड की संस्तुतियों को उनके प्रतिष्ठानों की कुल सालाना आमदनी के अनुसार कर्मचारियों को सेलरी-बकाया-सुविधाएं न देनी पड़े। हालांकि मालिकों की कर्मचारियों को विभिन्न तरीकों से प्रताडि़त करने, नौकरी से निकालने, तबादला करने, निलंबित करने, मिल रही मौजूदा सेलरी भी न देने, गाली-गलौच, मारपीट, अपमानित इत्यादि करने की अमानवीय-शैतानी हरकतें पूर्ववत जारी हैं। उनको अभी भी लगता है कि सुप्रीम कोर्ट उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। वे सर्वोच्च न्यायपीठ को वैसे ही अंगूठा दिखाते रहेंगे जैसे वर्षों से दिखाते आ रहे हैं। इसी ढींठपने, मनबढ़ी, बेअंदाजी, बदमाशी, या कहें गुंडागर्दी का नतीजा है कि वे सुप्रीम कोर्ट का फैसला सुरक्षित हो जाने के बावजूद कर्मचारियों का उत्पीड़न जारी रखे हुए हैं।
हां, एक चीज जरूर है कि इन शैतानी शक्लों के नीचे छुपी भीरुता-डर-खौफ की परतें-लकीरें भी छिप नहीं पा रही हैं। या कि मीडिया कारोबारी दानव इन्हें छिपा नहीं पा रहे हैं। उदाहरण है दैनिक जागरण मैनेजमेंट, हिंदुस्तान टाइम्स मैनेजमेंट और अन्य अखबारी मैनेजमेंट का विभिन्न प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों से मिलना और सुप्रीम कोर्ट के कहर से निजात दिलाने की गुहार करना। इस सिलसिले में सबसे ज्यादा राक्षसी स्वरूप राजस्थान पत्रिका और दैनिक भास्कर का है। इनके मालिकान न्याय अधिष्ठाताओं की आंखों में सरेआम धूल झोंकने से बाज नहीं आ रहे हैं। पत्रिका के मालिक की बयानबाजी-भाषणबाजी किसी से छिपी नहीं है और भास्कर का मैनेजिंग डायरेक्टर सुधीर अग्रवाल कॉस्ट कटिंग करने और डीबी कॉर्प की कमाई बढ़ाने के लिए कर्मचारियों को हड़काने-धमकाने की हरकतों में पूर्ववत संलग्न है। पिछले दिनों चंडीगढ़ इसीलिए धमका था।
बीते साढ़े तीन साल से ज्यादा समय तक सुप्रीम कोर्ट ने मजीठिया वेज अवॉर्ड से जुड़े अवमानना केसों की सुनवाई की है। इस दौरान मेरे सरीखे अनगिनत मीडिया कर्मी तकरीबन हर बार कोर्ट रूम में मौजूद रहे हैं और दोनों पक्षों के वकीलों की बहसें-दलीलें-जिरह-आर्गूमेंट-कानूनी नुक्तों के ब्योरे, उनमें निहित भावों-अर्थों की विवेचना होते देखी-सुनी है। और उसी के अनुसार अनेकानेक धारणाओं को अपने मस्तिष्क पटलों पर अंकित किया है। कर्मचारियों के वकीलों ने अपने विधिक पांडित्य का प्रदर्शन करते हुए कर्मचारियों का पक्ष बेहद मजबूती से अदालत पटल पर पेश किया और कोर्ट को सैटिस्फाई करने में में कोई कसर नहीं छोड़ी। वहीं मालिकों-मैनेजमेंट की ओर से हायर किए गए मोटी फीस लेने वाले सीनियर वकीलों ने केवल, और केवल कानूनी अड़चनों-अवरोधों को ही खड़ा करने की कोशिश की। और उनका औचित्य बताने के लिए दलीलों का आडंबर ही खड़ा करने का प्रयत्न किया। ऐसा कोई सबूत-साक्ष्य प्रस्तुत करने में उनको कामयाबी मिलती नहीं दिखी जिससे लगे कि उन्होंने अपने पक्ष में मजबूत धरातल बना लिया है। इसकी बानगी उस सीनियर वकील का कोर्ट रूम से यह बुदबुदाते हुए बाहर निकलना है कि ‘ सब गुड़ गोबर हो गया ‘।
मालिकान पक्ष की दशा-दिशा क्या रही है और क्या है, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि उन्होंने या उनकी ओर से वकील तकरीबन हर तारीख पर बदलते रहे हैं। एक से एक धुरंधर सीनियर वकील कोर्ट रूम में प्रकट और तद्नुरूप लुप्त होते रहे हैं। जहां तक याद आता है, इन वकीलों की कुल मिलाकर यही कोशिश रही है कि मामले को अनंत काल तक लटकाया जाए। लेकिन ये महानुभाव लोग भूल गए कि ये साधारण-सामान्य मुकदमें नहीं बल्कि अवमानना के हैं। सुप्रीम कोर्ट की अवमानना के। सर्वोच्च न्यायालय के आदेश का उल्लंघन करने के। यह जरूर है कि इस केस को अंतिम पड़ाव तक पहुंचने में अपेक्षा से जयादा वक्त लग गया। लेकिन हमें यह भी तो देखना-समझना चाहिए कि नौ की दहाई तक केस हैं और ज्यादातर में अलग-अलग मसले-समस्याएं हैं। इन पर विचार करना, इनकी राह की अड़चनों का निवारण करना जाहिरा तौर पर बड़ी चुनौती रही है।
बहरहाल, चालू नए साल में जिस तरह से तारीख पड़ने के लाले पड़ गए थे, उसी तरह से एक झटके में सुनवाई भी पूरी हो गई और जजमेंट रिजर्व हो गया। इसमें भी हमारे वरिष्ठ वकीलों और कई मीडिया साथियों की भूमिका-कोशिश-प्रयास रहा है। फिर तारीख लगनी शुरू हुई और लगातार दो तारीखों में ही फैसले के मुकाम तक पहुंच गए अवमानना के समस्त केस। बात फैसले तक पहुंची तो अनुमानों, उम्मीदों, अटकलों, बतंगड़ों की एक तरह से आंधी चल पड़ी है। जितने मुंह उतनी टीका-टिप्पणी, कयास, पूर्वाभास। तरह-तरह के ख्याली-स्वप्निल पुलाव-पकवान, लजीज डिसेज। यह स्वाभाविक भी है। आज के जो हालात हैं, महंगाई का जो आलम है, मिलने-पाने वाली पगार-सेलरी-मजदूरी का जो निम्न–बेहद कम स्तर है, मतलब गुजारे के सामानों के आसमान से भी ऊंचे दामों की बनिस्बत मिलने वाली सेलरी का जो स्तर है, वह तो चीख-चीख कर कहता है कि हम मीडिया कर्मियों को मजीठिया वेज बोर्ड से संस्तुत सेलरी-सुविधा एवं सारा बकाया हर हाल में मिलना ही चाहिए। अपने मीडिया प्रॉडक्ट को बेतहाशा ऊंचे दामों पर बेचने और विज्ञापनों से अकूत कमाई करने वाले मीडिया मालिकों को हमारा हक देने के लिए मजबूर कर दिया जाना चाहिए।
इसका तरीका क्या होता है, कैसे-किस तरह हम मीडिया कर्मचारियों को हमारा वास्तविक हक मिलता है, यह सब न्याय मंदिर में तय होना है। इस बारे में, जैसा कि अनेक प्रतिक्रियाएं, टीका-टिप्पणियां पढ़ने-सुनने को मिली हैं, उनका मेरी समझ से कोई औचित्य नहीं है। फैसले का कोई फार्मेट नहीं बनाया जा सकता, बनाना भी नहीं चाहिए। क्योंकि अब तक का हमारा जो अनुभव है वह यह है कि हम कोर्ट रूम में अपने साथ अनुमानों का पुलिंदा लेकर जाते थे, पर वहां बहुधा अचंभित करने वाली सकारात्मक बातें-चीजें होती थीं। और हम नई सोच, नए विचारणीय सवाल लेकर बाहर निकलते थे।
बहरहाल, समर वैकेशन के बाद फैसला आ जाएगा, यह अनुमान तो सबका है। पर स्वरूप क्या होगा, इस पर अनुमान लगा पाना कम से कम मेरे जैसों के वश की बात नहीं है। हां, यह जरूर है कि फैसला होगा तो अचंभित करने वाला, हैरान करने वाला, सोचने-चिंतन करने पर विवश करने वाला। और बन जाएगा लाजवाब नजीर। अरे भई, एक दशक से ज्यादा हो गया इस वेज बोर्ड को बने। अभी तक लागू नहीं हो पाया। ऐसे में नए वेज बोर्ड को लेकर क्या होगा, इस पर मंथन करते रहिए ! जय मजीठिया !
भूपेंद्र प्रतिबद्ध
चंडीगढ़
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9417556066
मंगेश विश्वासराव
May 19, 2017 at 11:51 am
फिक्र ना करो, जीत हमारी ही होगी.
रवीन्द्र अग्रवाल
May 20, 2017 at 8:45 am
अचंभित करने वाला भी होगा और भविष्य तय करने वाला भी। इस लडाई में कइयों की नौकरी जा चुकी है और कई गंवाने की कगार पर हैं।