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सुख-दुख

प्रसिद्धि के गुमनाम सितारेः फिल्म पत्रकार रामकृष्ण

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एक दशक का समय कोई कम तो नहीं होता लेकिन रामकृष्ण जी तो बाद के वर्षों में जैसे अतीत में ही अधिक जीते रहे। वैसे भी वह उनके जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक थी। हाल के महीनों तक जब भी उनसे भेंट हुई वे प्राय: वर्षों पुरानी बात याद दिलाते- आपने ही मुझे राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिलने की सूचना दी थी। मैं तब लखनऊ में नया ही था, हिन्दी दैनिक में नगर संवाददाता के तौर पर सांस्कृतिक-साहित्यिक खबरों में जुटा हुआ। इस काम में मेरे एक साथी भी थे, मेरे ही बराबर के पद पर तैनात। पुराने होने के कारण ज्यादातर महत्वपूर्ण आयोजन वे ही बटोर ले जाते। मेरे हिस्से वे ही चीजें आतीं जो उनसे बच जातीं और मैं उन्हीं में चमत्कार की खोज करता सिर धुनता रहता।

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एक दशक का समय कोई कम तो नहीं होता लेकिन रामकृष्ण जी तो बाद के वर्षों में जैसे अतीत में ही अधिक जीते रहे। वैसे भी वह उनके जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक थी। हाल के महीनों तक जब भी उनसे भेंट हुई वे प्राय: वर्षों पुरानी बात याद दिलाते- आपने ही मुझे राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिलने की सूचना दी थी। मैं तब लखनऊ में नया ही था, हिन्दी दैनिक में नगर संवाददाता के तौर पर सांस्कृतिक-साहित्यिक खबरों में जुटा हुआ। इस काम में मेरे एक साथी भी थे, मेरे ही बराबर के पद पर तैनात। पुराने होने के कारण ज्यादातर महत्वपूर्ण आयोजन वे ही बटोर ले जाते। मेरे हिस्से वे ही चीजें आतीं जो उनसे बच जातीं और मैं उन्हीं में चमत्कार की खोज करता सिर धुनता रहता।

राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों की खबरें उस दिन सुबह के अखबारों में छप चुकी थीं लेकिन जैसा कि होता आया है, ऐसी खबरों में पूरी सूची नहीं छापी जाती है, फिल्म, अभिनेता-अभिनेत्री, निर्देशक, गायक-संगीतकार के नाम छापकर ही समाचार पत्र पीछा छुड़ा लेते हैं। मैंने उत्सुकतावश पूरी सूची की तलाश की तो मेरी नज़र फिल्म लेखन के लिए दिए जाने वाले पुरस्कार पर गयी, जहां रामकृष्ण और उनकी पुस्तक का नाम था। मेरा रामकृष्ण जी से परिचय नहीं था लेकिन मैं जानता था कि वे लखनऊ में रहने वाले वरिष्ठ फिल्म पत्रकार है। मैंने योगेश प्रवीन जी से नम्बर लेकर उन्हें फोन किया तो पहले उन्हें विश्वास नहीं हुआ। मैंने उनसे बातचीत कर खबर बनायी जो अगले दिन पहले पृष्ठ पर प्रकाशित हुई। बाद में दूसरे अखबारों ने भी, छूटी खबर की तरह इसे प्रकाशित किया और पत्र-पत्रिकाओं में कई दिनों तक साक्षात्कारों का सिलसिला भी चलता रहा।

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बहरहाल इस पुरस्कार के बहाने जहां मेरा रामकृष्ण जी से परिचय और फिर मुलाकात हो सकी वहीं इसने एक बार फिर एक ऐसे फिल्म पत्रकार को चर्चाओं में ला दिया जो किसी समय अपने लेखन के समानान्तर दूसरी वजहों से भी न सिर्फ सुर्खियों में रहा बल्कि लोकप्रिय फिल्म कलाकारों का चहेता भी रहा।

मुम्बई के अपने कई मित्रों से पता चलता है कि अमुक फिल्म पत्रकार कि फिल्म नगरी में किस प्रकार पैठ है, फलां को कलाकार घर बुलाते हैं.. आदि आदि। 22-23 वर्षों से तक पत्रकारिता की घास छीलते हुए साथियों के लिए गर्व करने लायक मेरे पास ऐसे किसी फिल्म कलाकार का नाम नहीं है जिनके बारे में मैं उनसे कह सकूं कि वह मुझे भीड़ में भी पहचान सकता है। कलाकार बस इतना ही कह कर रह जाते हैं कि आपसे कई बार मिल चुका है, आपका चेहरा पहचाना हुआ है..। एक समय अनुपम खेर से थोड़ी पहचान बढ़ने वाली थी लेकिन मेरी एक खबर को लेकर वे इतने नाराज थे कि उसे रोकने के लिए कई लोगों को फोन किया। खैर, ये कहानी फिर कभी।

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मैं तो ये बताना चाहता था कि करीब 50 साल पहले रामकृष्ण लखनऊ में रहने वाले ऐसे फिल्म पत्रकार थे जिन्हें उस दौर के तमाम चर्चित फिल्मकार, निर्देशक, संवाद लेखक, गीतकार, संगीतकार न सिर्फ अच्छी तरह जानते-पहचानते थे बल्कि रामकृष्ण जी उनसे अधिकार के साथ बहुत कुछ कह सकते थे। इसकी एक बड़ी वजह थी। वे उस दौर में लखनऊ में होने वाले फिल्म पुरस्कारों के केन्द्र में थे। इस समारोह के लिए उन्होंने उत्तर प्रदेश फिल्म पत्रकार संघ का गठन कर रखा। इस समारोह की बड़ी प्रतिष्ठा थी और लखनऊ से लेकर मुम्बई तक इसको व्यापक कवरेज मिलती थी। यही वजह थी कि बड़े बड़े कलाकार समारोह में आने के लिए, पुरस्कार पाने के लिए लालायित रहते थे। ऐसे बड़े फिल्म समारोहों में भाग लेने के लिए राजनेताओं, नौकरशाहों, व्यापारियों तथा अन्य दूसरे लोगों में भी काफी उत्सकुता रहती थी। मजे की बात यह थी कि ऐसे समारोह के पीछे कोई बड़ा आर्थिक सम्बल नहीं था लेकिन रामकृष्ण जी इसे बड़ी भव्यता के साथ वर्षों तक आयोजित करते रहे और बड़े-बड़े कलाकारों को बुलाते रहे। रामकृष्ण जी की जिस पुस्तक ‘फिल्मी जगत में अर्धशती का रोमांच’ को राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला है वह ऐसे ही समारोहों के विवरण से भरी हुई है। एक सन्दर्भ देखिए-

‘खोसला समिति की संस्तुतियों के परिणामस्वरूप श्लीलता और अश्लीलता के प्रश्न को लेकर उन दिनों न केवल बुद्धिजीवी समाज बल्कि सामान्य जनमानस के मध्य भी जो चर्चा-परिचर्चा शुरू हुई थी, उसने इस विषय को सहज ही राष्ट्रीय महत्व का प्रश्न बना डाला था। साथ ही वह शायद पहला अवसर था, जब देश के फिल्म और साहित्य दोनों क्षेत्रों के मूर्धन्य कलाकृति एक साथ किसी मंच पर उपस्थित होकर उस ज्वलन्त समस्या पर अपने विचार प्रकट करने में समर्थ रहे हों। गोष्ठी के अध्यक्ष थे-सुप्रसिद्ध कथाकार यशपाल और उसका सभारम्भ किया था पृथ्वीराज कपूर ने। साहित्य और पत्रकारिता के क्षेत्र से जिन लोगों ने उस विचार गोष्ठी में अपना योगदान किया था, उसमें अमृतलाल नागर, भवानीप्रसाद मिश्र, डॉ. शम्भुनाथ सिंह, श्रीलाल शुक्ल, कान्तिचन्द्र सोनरेक्सा, ठाकुर प्रसाद सिंह तथा पायनियर के सम्पादक डॉ. सुरेन्द्रनाथ घोष के नाम उल्लेखनीय हैं। फिल्म संसार से सम्बन्धित जो व्यक्ति गोष्ठी में उपस्थित थे, उनमें पृथ्वीराज जी के अतिरिक्त ख्वाजा अहमद अब्बास, सलिल चौधरी, माला सिन्हा, याकूब हसन रिजवी, प्रेम चोपड़ा, हसरत जयपुरी, सुजीत कुमार, परसिस खम्बाटा, सुरेश निगम और जलाल आगा प्रमुख माने जा सकते हैं। इनके अतिरिक्त वरिष्ठ आई.सी.एस. अधिकारी तथा संस्कृत के उद्भट विद्वान डॉ. जनार्दन दत्त शुक्ल, उत्तर प्रदेश सरकार के गृहसचिव और सुप्रसिद्ध गणितज्ञ अशोक कुमार मुस्तफी तथा प्रदेश के सूचना एवं जनसम्पर्क निदेशक महेश प्रसाद ने भी गोष्ठी में भाग लिया था। ‘

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हमने कई सितारों के बारे में पढ़ा-सुना है कि एक दौर में लोकप्रियता की बुलन्दियों पर रहने के बावजूद बाद के वर्ष किस प्रकार गुमनामी में बीते, आर्थिक संकटों से जूझते और उनकी किसी ने खोज-खबर नहीं ली। सितारों के ऐसे चहेते पत्रकार से मिलने के बाद उन्हें भी मैंने बहुत हद तक ऐसा ही पाया। अमीनाबाद की मारवाड़ी गली के जिस जर्जर मकान में वे रहते थे उसका अपना महत्व है। प्रख्यात कथाकार-उपन्यासकार प्रेमचंद ने जीवन का कुछ समय इसी भवन में बिताया है लेकिन यही मकान रामकृष्ण जी के लिए मुसीबत भी बन गया। सम्पत्ति के पारिवारिक विवाद में उनकी पत्नी पर प्राणघातक हमला हुआ। वे इसकी मरम्मत भी नहीं करा पाते थे और यह किसी हॉरर फिल्म में दिखाए जाने वाले खण्डहर की तरह दिखता है। बाद में इसे बेचने की उनकी कोशिश भी परवान नहीं चढ़ सकी। उन्होंने हरिद्वार-ऋषिकेश के एकान्त में बसने की इच्छा भी यशवन्त व्यास सहित अपने कुछ पत्रकार मित्रों को बताई थी।

इस जर्जर मकान में व्हील चेअर पर एक कमरे से दूसरे कमरे में जाते हुए उन्हें काफी असुविधा होती थी लेकिन जब भी किसी पत्रकार ने उनसे कुछ पुराने चित्र मांगे उन्होंने देने का भरसक प्रयास किया। अक्सर जब पत्नी बाहर जातीं तो बाहर से ताला लगा जातीं। एक बार ऐसे ही ताला लगे होने पर जब मैंने उन्हें फोन किया तो उन्होंने मुझे अन्दर से चाभी दी थी। मेरे पास फिल्म कलाकारों के ऐसे कितने ही चित्र उनके दिए हुए अभी भी हैं, जिन्हें लौटाने में एक पत्रकार का लालच अक्सर आड़े आता रहा हालांकि उन्होंने उलाहना भी नहीं दिया। कई बीमारियों और पारिवारिक विवादों से जूझते हुए लेखन के स्तर पर वे बराबर सक्रिय रहे। उनके संस्मरण के स्तम्भ छपते थे। किताबें भी खूब आईं लेकिन उनकी शायद ही कोई खोज-खबर लेता था। उनसे मिलने वाले बहुत कम थे। फिल्मों से जुड़े संस्मरणों का खजाना था उनके पास। इनमें से काफी कुछ उन्होंने किताबों और पत्र-पत्रिकाओं में सहेज दिया है लेकिन अभी भी बहुत कुछ ऐसा था जो उनके साथ ही चला गया।

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(पत्रकार और कवि आलोक पराड़कर की फेसबुक वाल से। वरिष्ठ फिल्म पत्रकार रामकृष्ण का गुरुवार को निधन हो गया।)

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0 Comments

  1. ​श्याम माथुर ​

    July 5, 2014 at 4:25 am

    आलोकजी को साधुवाद कि उन्होंने गुमनामी में गुजरे एक फिल्म पत्रकार पर कलम चलायी। मौजूदा दौर में फिल्मी सितारों के पी आर ओ की चमचागिरी करने और इसे ही फिल्म पत्रकारिता समझने वाले पत्रकारों को रामकृष्ण की ज़िन्दगी से ज़रूर प्रेरणा लेनी चाहिए।

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