मंदिर परिसर से ही सटा हुआ दाईं तरफ एक बोर्ड लगा हुआ था- काली कमलीवाला निवास। मैं सीढ़ियों से ऊपर चढ़ गया। ऊपर दो लोग कहीं जा रहे थे जो मुझे देखकर रुक गए। बोले- रूम चाहिए? मैंने कहा- हाँ, तो कहने लगे –चार सौ रुपया लगेगा। मैंने कहा कि मैं अकेले हूँ, डोरमेट्री में भी मेरा काम चल जाएगा, वे बोले –नहीं जी अभी तो कोई भीड़ नहीं है, कमरे खाली हैं….चलिए आपको दो सौ में ही दे देते हैं, लेकिन उसकी कोई रसीद परची नहीं मिलेगी। मैंने कहा-मुझे तो रात बिताने से मतलब है, बिल वाउचर की कोई जरूरत नहीं है। उस व्यक्ति ने पैसे लेकर रूम खोल दिया। ऊपर से गंगामंदिर और गंगा जी के दिव्य दर्शन हो रहे थे। शरीर थका हुआ था। वहाँ अच्छी खासी ठंड भी थी, इसलिए बाहर जाकर भोजनालय ढ़ूँढ़ने का मन नहीं हुआ। भूख भी कुछ खास न थी। आराम करने का मन हो रहा था। मैंने कपड़े बदले और रजाई में दुबककर सो गया। पानी बहुत ठंडा था, इसलिए प्यास होने के बावजूद पिया नहीं जा रहा था।
सुबह नित्यक्रिया के बाद आठ बजे के आसपास मैं वहाँ से बाहर निकला। इतनी ठंड थी कि स्नान करने की हिम्मत नहीं हो रही थी। मैंने सोचा कि उत्तरकाशी में मौसम सामान्य है, वहीं स्नान होगा। नीचे रातवाले सज्जन एक मिट्टी के घर में बड़े हंडे में पानी गरमाते हुए मिले- कहने लगे कि नहाने का एक बाल्टी पानी 40रुपये में आएगा। पीना हो तो एकाध बोतल ले जाइए। मैंने कहा- रात में दे देते तो अच्छा था। बोले –हाँ, याद नहीं रहा।
मैंने कहा- मैं अब निकल रहा हूँ। ताला चाबी कुछ था नहीं, इसलिए सिटकिनी लगाके छोड़ दिया है। बोले –कोई बात नहीं ….जै गंगा मइया की। मैं वहाँ से नीचे उतरा। गंगा मंदिर का बाहर से ही पुनः दर्शन किया, थोड़ी देर घाट पर चहलकदमी की। सीढ़ियों के ठीक नीचे लिखा मिला – राजा भागीरथ ने गंगा को स्वर्ग से धरती पर लाने के लिए यहीं तप किया था। मन श्रद्धा से भर गया। मैंने बोतल में गंगोत्री का जल भरा और वाहन स्टैंड की ओर चल दिया। बीच में एक जगह गोमुख -18 किलोमीटर लिखा था। पूछने पर पता चला कि गोमुख जाने के लिए प्रतिदिन मात्र 150 व्यक्तियों को अनुमति है। 150 रुपये की रसीद कटती है, फिर जाने देते हैं। स्टैंड पर पहुँचा तो एक बोलेरो जीप सवारियों की प्रतीक्षा में थी। छह सवारियाँ हो गई थीं, उसे चार और लोगों की तलाश थी। यहाँ यात्री बसें, जीपें ऐसे ही चला करती हैं …कोई टाइम टेबल नहीं …सवारी होगी तो चलेंगे। करीब नौ बजे निर्धारित सीटें भरीं तो जीप स्टार्ट हुई। करीब एक बजे हम उत्तरकाशी पहुँचे।
मैं बस स्टैंड में श्रीनगर की बस के बारे में पता करने पहुँचा तो वही जानकारी मिली जो गंगोत्री में मिली थी। जानकारी में एक इजाफा यह हुआ कि शाम को ही टिकट ले लेना होगा वर्ना सुबह सीट नहीं मिलेगी, खड़े खड़े जाना होगा। खैर…एक होटल में पेटपूजा के पश्चात रात्रि विश्राम के लिए जगह ढ़ूँढ़ने निकला। काली कमली वाले संस्थान में जाने पर मैनेजर ने बताया कि हमारे नियम में है कि हम अकेले स्त्री या पुरुष को कमरा नहीं देते। मैंने कहा-गंगोत्री में तो मैं आपके ही संस्थान वाली जगह में था। वे बोले- यहाँ तो यही नियम है। दो तीन अन्य धर्मशालाओं में गया लेकिन उन लोगों ने भी रूम देने से मना कर दिया। पहले पूछते- कितने आदमी हैं…फिर बोलते – नहीं, हमारे यहाँ कमरा खाली नहीं है। एक स्थानीय सज्जन से मैंने बात की तो वे बोले- आप सरकारी वाले पंचायत धर्मशाला में चले जाइए। पहचान पत्र तो है न!मैंने कहा- हाँ, बिल्कुल है। वो बोले- तो आपको कमरा जरूर मिल जाएगा।
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Kashinath Matale
August 6, 2017 at 12:01 pm
रासबिहारी पाण्डेय
bahot hi rochak aur romanchak yatra varnan hai.
Safal Yatra ke liye Badhai.
Kashinath Matale
August 10, 2017 at 2:20 pm
2016 ke February me hamare group ke 72 log Katara/ Maa Vaishnov Devi ke darshanarth gaye the.
Dusre din hum log Shiv Khodi gupha (Katara se kariban 95 k.m. ) dekhne gaye the, vahapar bhi Pandav ke Swarg me jane ka rasta hai aisa bataya gaya tha. Aur Vahase Amarnath ke liye bhi rasta hai, parntu abhi bandh kiya hai aisi bhi jankari vahake pandit/pujari jee ne batai thi.
श्याम सिंह रावत
August 6, 2017 at 3:24 pm
इस लेखमाला में यत्र-तत्र ‘गंगोत्तरी’ को ‘गंगोत्री’, ‘यमुनोत्तरी’ को ‘यमनोत्री’ और ‘बदरीनाथ’ को ‘बद्रीनाथ’ लिखा गया है। कहीं-कहीं ‘बदरीनाथ’ को सही भी लिखा गया है।
‘गंगोत्तरी’ का आशय है जहाँ गंगा अवतरित हुई, जबकि ‘गंगोत्री’ में ‘त्री’ तीन की संख्या को प्रदर्शित करता है। जिसकी यहाँ कोई प्रासंगिकता नहीं है।
‘बदरी’ बेर को कहा जाता है। किंवदंती के अनुसार यहाँ एक बदरी-वृक्ष के नीचे भगवान विष्णु ने शिव-पार्वती को शिशु रूप में दर्शन दिये थे। इसीसे इस स्थान का नाम ‘बदरीनाथ धाम’ पड़ गया।
इसके अतिरिक्त एक और बात यह है कि पांडव केदारनाथ के रास्ते स्वर्ग नहीं गए थे। उन्होंने बदरीनाथ धाम से आगे माणा, वसुधारा होते हुए स्वर्ग जाने वाला यात्रापथ चुना था। जिसका अंतिम प्रस्थान बिंदु स्वर्गारोहणी आज भी वहाँ विद्यमान है। हालांकि विगत अनेक दशकों से वहाँ तक जाने की अनुमति किसी को नहीं दी जाती।