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गंगोत्री और केदारनाथ की यात्रा : एक संस्मरण

रासबिहारी पाण्डेय

बहुत दिनों से उत्तराखंड भ्रमण की इच्छा थी। वैसे तो उत्तराखंड को देवभूमि कहा गया है। यहाँ बहुतेरे तीर्थस्थल और ऐतिहासिक महत्त्व के दर्शनीय स्थल हैं लेकिन उन सबमें यमुनोत्री, गंगोत्री,  केदारनाथ और बदरीनाथ प्रमुख हैं। अक्सर ये यात्राएं लोग समूह में करते हैं, बसों से या छोटी गाड़ियाँ रिजर्व करके। ये बस और छोटी गाड़ियों वाले ड्राइवर यात्रियों को एक निश्चित समय देते हैं जिसके भीतर यात्रियों को लौटकर एक निश्चित स्थान पर आना होता है। मेरे एक मित्र ने बताया कि निश्चित समय होने की वजह से कभी कभी कई लोग बिना दर्शन लाभ लिए बीच रास्ते से ही लौटकर उक्त स्थान पर चले आते हैं ताकि अगली यात्रा के लिए प्रस्थान कर सकें।

<script async src="//pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js"></script> <script> (adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({ google_ad_client: "ca-pub-7095147807319647", enable_page_level_ads: true }); </script><p><span style="font-size: 12pt;"><strong>रासबिहारी पाण्डेय</strong></span></p> <p>बहुत दिनों से उत्तराखंड भ्रमण की इच्छा थी। वैसे तो उत्तराखंड को देवभूमि कहा गया है। यहाँ बहुतेरे तीर्थस्थल और ऐतिहासिक महत्त्व के दर्शनीय स्थल हैं लेकिन उन सबमें यमुनोत्री, गंगोत्री,  केदारनाथ और बदरीनाथ प्रमुख हैं। अक्सर ये यात्राएं लोग समूह में करते हैं, बसों से या छोटी गाड़ियाँ रिजर्व करके। ये बस और छोटी गाड़ियों वाले ड्राइवर यात्रियों को एक निश्चित समय देते हैं जिसके भीतर यात्रियों को लौटकर एक निश्चित स्थान पर आना होता है। मेरे एक मित्र ने बताया कि निश्चित समय होने की वजह से कभी कभी कई लोग बिना दर्शन लाभ लिए बीच रास्ते से ही लौटकर उक्त स्थान पर चले आते हैं ताकि अगली यात्रा के लिए प्रस्थान कर सकें।</p>

घोड़े वालों ने यह कहते हुए थोड़ा पीछा किया कि आइए घोड़े से जल्दी और आराम से दर्शन हो जाएँगे लेकिन मेरा रुख देखकर बिना बोले वे यह समझ गए कि यह पदयात्री है। यात्रा के लिए बनी यह पहाड़ी सड़क रेलवे स्टेशन के पुल वाली सीढ़ियों जितनी जगह में बनी थी। कहीं उससे थोड़ा कम, कहीं उससे थोड़ा अधिक। रामबाड़ा तक 8 किलोमीटर आधा रास्ता माना जाता है। आपदा के समय यहाँ भारी तबाही हुई थी और आवासीय जगहें पूरी तरह ध्वस्त हो गई थीं। पहले शुरू से आखिर तक बाईं तरफ से ही केदारनाथ तक जाने का रास्ता था लेकिन आपदा में रामबाड़ा के बाद का रास्ता पूरी तरह नष्ट हो गया। कहीं कहीं उसके अवशेष दिखाई पड़ते हैं। फिलहाल रामबाड़ा से दाईं तरफ पहाड़ काटकर नई सड़क बनी है। उस पार जाने लिए बीच में दो छोटे पुल हैं। लोग बता रहे थे कि बाईं तरफ का रास्ता काफी सुगम था।

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नया रास्ता तो फिलहाल बहुत दुर्गम है। इस सड़क पर खड़ी चढ़ाई हो गई है। लेकिन सोचनेवाली बात यह है कि वह रास्ता सैकड़ों साल से अस्तित्व में था। उसे सुगम बनाने में कई पीढ़ियों का योगदान था। एक साल के भीतर नया रास्ता बनाकर प्रशासन ने इस यात्रा को पुनः प्रारंभ करा दिया, इसके लिए तो वह धन्यवाद का पात्र है ही। 6 महीने तो इधर बर्फ ही जमी रहती है। छह महीने में 8 किलोमीटर लंबा रास्ता बना देना एक बड़ी उपलब्धि है। रास्ते में सभी प्राइवेट दुकानें हैं और उनका तर्क है कि सामान लाने में उन्हें काफी श्रम और पैसा खर्च करना पड़ता है, इसलिए वे सामान की कीमत से डेढ़ दो गुना कीमत वसूल करते हैं। सरकार चाहे तो अपने केंद्र खोलकर यात्रियों से हो रही इस लूटपाट को बंद कर सकती है। पराठा 40रुपये, सब्जी 30 रुपए, कोल्ड ड्रिंक 25 की एमआरपी वाला 50 रुपए आदि आदि। रामबाड़ा से आगे की चढ़ाई कठिन थी। पैर थक चुके थे। आनेवाले बता रहे थे कि अभी तो आधा से ज्यादे चढ़ाई बाकी है। रास्ते में जब तब हल्की बूँदाबाँदी भी शुरू हो जाती थी। दो बार तो देर तक पानी बरसता रहा। 

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उठते बैठते शाम के छह बजे तक मैं मंदाकिनी के तट पर पहुँचा। यहाँ बोर्ड टँगा था- केदारनाथ मंदिर 500 मीटर, लेकिन मंदिर यहाँ से भी दिखाई नहीं दे रहा था। मैं आश्वस्त हुआ कि अब तो पहुँच ही गया हूँ। थोड़ा विश्राम कर लूँ, फिर आगे बढ़ूँ। मंदाकिनी के तट पर बने एक शेड पर बैठ गया। सूर्यास्त होने वाला था। अब काफी ठंड लगने लगी थी। मैंने भीतर ऊनी जैकेट और ऊपर से जींस का फुल शर्ट पहना तो थोड़ी राहत मिली। यहाँ से दिख रही पहाड़ों पर जमी बर्फ काफी आकर्षक लग रही थी। बगल में बने हेलीपैड पर हर पाँच मिनट बाद हेलीकॉप्टर यात्रियों को लेकर आ जा रहे थे। कुछ देर बाद कानपुर से पधारे एक प्राध्यापक चौहान जी आकर मेरी बगल में बैठ गए। उनसे बातचीत होने लगी और जल्द ही हमदोनों एक दूसरे से घुलमिल गए। उन्होंने कहा कि वे जिस होटल में तीन मित्रों के साथ रुके हैं, उसमें एक बेड खाली है। मैं चाहूँ तो उसमें रुक सकता हूँ। मैंने सहर्ष स्वीकार कर लिया।

वे अपने साथ होटल के कमरे में ले गए जो मंदिर के बिल्कुल पास में था। थोड़ी देर विश्राम करके मैं दर्शन के निमित्त निकला। पूजा के सामान की दुकान से लाचीदाने का पैकेट लिया। वहाँ कुछ प्लास्टिक के फूल और मालाएँ रखी हुई थीं, जिन्हें कुछ लोग खरीद भी रहे थे मगर मैंने उन्हें लेना उचित नहीं समझा। पता चला कि यहाँ विशेष पूजा हेतु हेलीकॉप्टर से कुछ फूल मालाएँ आती हैं। मगर रेगुलर यात्रियों के लिए कुछ नहीं मिल पाता। एक दुकानदार ने किसी खास महीने का जिक्र करते हुए कहा कि उस समय आइए तो ब्रह्मकमल मिलेंगे जो इन्हीं पहाड़ों में खिलते हैं। रात की आरती का समय था…मंदिर में काफी भीड़ थी। वाराणसी के विश्वनाथ मंदिर में जिस तरह प्रशासन चौकस है, यहाँ ऐसा कुछ नहीं लगा। दर्शनार्थियों की रेलमपेल मची हुई थी।

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0 Comments

  1. Kashinath Matale

    August 6, 2017 at 12:01 pm

    रासबिहारी पाण्डेय
    bahot hi rochak aur romanchak yatra varnan hai.
    Safal Yatra ke liye Badhai.

  2. Kashinath Matale

    August 10, 2017 at 2:20 pm

    2016 ke February me hamare group ke 72 log Katara/ Maa Vaishnov Devi ke darshanarth gaye the.
    Dusre din hum log Shiv Khodi gupha (Katara se kariban 95 k.m. ) dekhne gaye the, vahapar bhi Pandav ke Swarg me jane ka rasta hai aisa bataya gaya tha. Aur Vahase Amarnath ke liye bhi rasta hai, parntu abhi bandh kiya hai aisi bhi jankari vahake pandit/pujari jee ne batai thi.

  3. श्याम सिंह रावत

    August 6, 2017 at 3:24 pm

    इस लेखमाला में यत्र-तत्र ‘गंगोत्तरी’ को ‘गंगोत्री’, ‘यमुनोत्तरी’ को ‘यमनोत्री’ और ‘बदरीनाथ’ को ‘बद्रीनाथ’ लिखा गया है। कहीं-कहीं ‘बदरीनाथ’ को सही भी लिखा गया है।

    ‘गंगोत्तरी’ का आशय है जहाँ गंगा अवतरित हुई, जबकि ‘गंगोत्री’ में ‘त्री’ तीन की संख्या को प्रदर्शित करता है। जिसकी यहाँ कोई प्रासंगिकता नहीं है।

    ‘बदरी’ बेर को कहा जाता है। किंवदंती के अनुसार यहाँ एक बदरी-वृक्ष के नीचे भगवान विष्णु ने शिव-पार्वती को शिशु रूप में दर्शन दिये थे। इसीसे इस स्थान का नाम ‘बदरीनाथ धाम’ पड़ गया।

    इसके अतिरिक्त एक और बात यह है कि पांडव केदारनाथ के रास्ते स्वर्ग नहीं गए थे। उन्होंने बदरीनाथ धाम से आगे माणा, वसुधारा होते हुए स्वर्ग जाने वाला यात्रापथ चुना था। जिसका अंतिम प्रस्थान बिंदु स्वर्गारोहणी आज भी वहाँ विद्यमान है। हालांकि विगत अनेक दशकों से वहाँ तक जाने की अनुमति किसी को नहीं दी जाती।

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