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सुख-दुख

गंगोत्री और केदारनाथ की यात्रा : एक संस्मरण

रासबिहारी पाण्डेय

बहुत दिनों से उत्तराखंड भ्रमण की इच्छा थी। वैसे तो उत्तराखंड को देवभूमि कहा गया है। यहाँ बहुतेरे तीर्थस्थल और ऐतिहासिक महत्त्व के दर्शनीय स्थल हैं लेकिन उन सबमें यमुनोत्री, गंगोत्री,  केदारनाथ और बदरीनाथ प्रमुख हैं। अक्सर ये यात्राएं लोग समूह में करते हैं, बसों से या छोटी गाड़ियाँ रिजर्व करके। ये बस और छोटी गाड़ियों वाले ड्राइवर यात्रियों को एक निश्चित समय देते हैं जिसके भीतर यात्रियों को लौटकर एक निश्चित स्थान पर आना होता है। मेरे एक मित्र ने बताया कि निश्चित समय होने की वजह से कभी कभी कई लोग बिना दर्शन लाभ लिए बीच रास्ते से ही लौटकर उक्त स्थान पर चले आते हैं ताकि अगली यात्रा के लिए प्रस्थान कर सकें।

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मैं थोड़ी देर बाद वहाँ से निकला तो बगल में माइक पर आवाज आ रही थी- भंडारे में सभी भक्तों का स्वागत है। कृपया प्रसाद छोड़े नहीं, उतना ही लें जितना खा सकते हैं। मैं भी लाइन में लग गया। दस लोग मेरे आगे रहे होंगे। पूड़ी, सब्जी, दाल-चावल सब कुछ बड़ा स्वादिष्ट और एक अच्छी थाली में मिला था। थोड़ा अलग खड़े होकर खा चुकने के बाद बगल के नल पर थाली धोया और उसे जमाकर वापस होटल में आ गया। थोड़ी देर तक चौहान जी और उनके मित्रों से बातें होती रहीं, फिर कब नींद ने अपने आगोश में ले लिया पता ही नहीं चला। सुबह चार बजे के आसपास नींद खुली। मंदिर से रह रह कर घंटियों की आवाज आ रही थी। मैं नित्यक्रिया से निवृत्त हुआ। ठंड इतनी अधिक थी कि स्नान करने की हिम्मत नहीं हो रही थी। मैंने एक मंत्र का पाठ किया-

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ऊँ अपवित्रो पवित्रो वा सर्वावस्थांगतोपि वा
यःस्मरेत् पुंडरीकाक्षःस बाह्यभ्यंतरः शुचि।

संक्षेप में इसका अर्थ यह है कि अपवित्र या पवित्र किसी भी अवस्था में जो कोई भी कमल के समान नेत्र वाले भगवान विष्णु का स्मरण कर लेता है, वह बाहर भीतर से शुद्ध हो जाता है। इस श्लोक का पाठ करके मैंने केदारनाथ मंदिर में प्रवेश किया। रात में अत्यधिक भीड़ के कारण ज्योतिर्लिंग स्पष्ट नहीं दिख रहा था। सुबह सब कुछ स्पष्ट दिख रहा था। मंदिर दो भागों में है। पहले भाग में नंदी,  पांडवों तथा कुंती और द्रौपदी की मूर्तियाँ लगी थीं और दूसरे भाग में सिर्फ भगवान शिव का ज्योतिर्लिंग। रुद्राष्टक का पाठ करके भगवान शिव को नमन करते हुए मैं बाहर निकला और मंदिर के पीछे की तरफ उस चट्टान के दर्शन किए जिसके आ जाने की वजह से मंदिर को कोई हानि नहीं हुई। लोग अब इस चट्टान की भी पूजा करने लगे हैं।

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पीछे हिमालय पर्वतमाला थी जिस पर जमी बर्फ से उसकी शोभा कई गुना और बढ़ रही थी। लग रहा था भगवान शिव की विशाल जटाओं में गंगा की उज्जवल तरंगें प्रवाहित हो रही हों। यहीं से पाण्डवों ने स्वर्गारोहण किया था। युधिष्ठिर को छोड़कर चारों भाई और द्रौपदी यहीं कहीं बर्फ में विलीन हो गए थे। अकेले युधिष्ठिर स्वर्ग तक पहुँचे थे। उनके साथ कुत्ते के स्वरूप में स्वयं धर्मराज चल रहे थे। स्वर्ग के द्वार पर जब युधिष्ठिर से यह कहा गया कि आप अकेले ही भीतर आ सकते हैं, यह कुत्ता नहीं आ सकता तो उन्होंने भीतर जाने से मना कर दिया और कहा कि जो प्राणी उनके साथ इतनी कठिनता से यहाँ तक आया है, उसे लिए बिना वे स्वर्ग के भीतर प्रवेश नहीं करेंगे। कहते हैं कि उनका यह तर्क सुनकर कुत्ता का वेश धारण करनेवाले धर्मराज ने अपना असली स्वरूप दिखाया और ससम्मान स्वर्ग के भीतर ले गए। केदारनाथ से संबंधित और भी बहुत सारी यादें मन में उमड़ घुमड़ रही थीं। वातावरण इतना अच्छा लग रहा था कि वहाँ से स्वयं को अलग करने की इच्छा ही नहीं हो रही थी लेकिन …..गृह कारज नाना जंजाला, चेतना ने मन को झकझोर कर कहा कि तुम यहाँ तीर्थ दर्शन और पर्यटन के निमित्त आए हो, बैरागी बनने की जरूरत नहीं है। रश्मिरथी की पंक्ति याद आई- क्रिया को छोड़ चिंतन में फँसेगा, उलट कर काल तुझको ही ग्रसेगा….। उर्दू का एक शेर भी जेह्न में कौंधा-

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जब तक नहीं मिले थे, न मिलने का था मलाल, अब ये मलाल है कि तमन्ना निकल गई। 

जो कुछ बहुत मुश्किल से मिलता है, उससे मोह हो ही जाता है। लेकिन समय का तकाजा था कि अब वापस लौटा जाए । जहाँ चढ़ने में बारह घंटे लग गए थे, उतरने में उसका आधा ही समय लगा।  रास्ते में एक घोड़ा मरा हुआ मिला जिसके मुँह पर बोरा डाला हुआ था बाद में मैंने हिंदुस्तान के हरिद्वार संस्करण में पढ़ा कि 3मई से 16 जून तक 300 घोड़ों और खच्चरों की मृत्यु हो चुकी है। तीर्थ के नाम पर या आजीविका के नाम पर इन बेजुबान जानवरों से ज्यादती देखकर मुझे अपार पीड़ा हुई। घोड़े से जानेवाले कुछ लोग गिरकर जख्मी भी हो जाया करते हैं क्योंकि पूरे समय तक घोड़े पर ठीक से बैठे रहने में कुछ लोगों से असावधानी हो ही जाती है। कभी कभी घोड़े भी फिसल जाते हैं। एक औरत को मैंने घोड़े से गिरते हुए स्वयं देखा। जो घोड़े मरते होंगे, उन पर बैठे लोगों का क्या हस्र होता होगा, इसकी कल्पना ही की जा सकती है।  हेलीकॉप्टर से आने जाने के लिए ऑनलाइन बुकिंग लेनी होती है। अगर वहाँ जाकर हेलीकॉप्टर की सेवा चाहते हैं तो एजेंटों को अतिरिक्त पैसे का भुगतान करके ही इस सेवा का लाभ लिया जा सकता है।

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0 Comments

  1. Kashinath Matale

    August 6, 2017 at 12:01 pm

    रासबिहारी पाण्डेय
    bahot hi rochak aur romanchak yatra varnan hai.
    Safal Yatra ke liye Badhai.

  2. Kashinath Matale

    August 10, 2017 at 2:20 pm

    2016 ke February me hamare group ke 72 log Katara/ Maa Vaishnov Devi ke darshanarth gaye the.
    Dusre din hum log Shiv Khodi gupha (Katara se kariban 95 k.m. ) dekhne gaye the, vahapar bhi Pandav ke Swarg me jane ka rasta hai aisa bataya gaya tha. Aur Vahase Amarnath ke liye bhi rasta hai, parntu abhi bandh kiya hai aisi bhi jankari vahake pandit/pujari jee ne batai thi.

  3. श्याम सिंह रावत

    August 6, 2017 at 3:24 pm

    इस लेखमाला में यत्र-तत्र ‘गंगोत्तरी’ को ‘गंगोत्री’, ‘यमुनोत्तरी’ को ‘यमनोत्री’ और ‘बदरीनाथ’ को ‘बद्रीनाथ’ लिखा गया है। कहीं-कहीं ‘बदरीनाथ’ को सही भी लिखा गया है।

    ‘गंगोत्तरी’ का आशय है जहाँ गंगा अवतरित हुई, जबकि ‘गंगोत्री’ में ‘त्री’ तीन की संख्या को प्रदर्शित करता है। जिसकी यहाँ कोई प्रासंगिकता नहीं है।

    ‘बदरी’ बेर को कहा जाता है। किंवदंती के अनुसार यहाँ एक बदरी-वृक्ष के नीचे भगवान विष्णु ने शिव-पार्वती को शिशु रूप में दर्शन दिये थे। इसीसे इस स्थान का नाम ‘बदरीनाथ धाम’ पड़ गया।

    इसके अतिरिक्त एक और बात यह है कि पांडव केदारनाथ के रास्ते स्वर्ग नहीं गए थे। उन्होंने बदरीनाथ धाम से आगे माणा, वसुधारा होते हुए स्वर्ग जाने वाला यात्रापथ चुना था। जिसका अंतिम प्रस्थान बिंदु स्वर्गारोहणी आज भी वहाँ विद्यमान है। हालांकि विगत अनेक दशकों से वहाँ तक जाने की अनुमति किसी को नहीं दी जाती।

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