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सुख-दुख

सतर्क रहेंगे तो बात सर्जरी तक नहीं पहुंचेगी

उमेश कुमार सिंह

वह जमाना बहुत पीछे छूट चुका है जब गर्दन दर्द, पीठ दर्द, कमर दर्द हो या स्लिप्ड डिस्क जैसी समस्याओं को वृद्धावस्था का लक्षण माना जाता था और जवानी का मतलब था बेपरवाही से उछलते-कूदते जीवन कट जाना। अब 25-30 की उम्र वाले लोग भी कमर पकड़े नजर आ जाते हैं या फिर पीठ दर्द से परेशान रहा करते हैं। दुनिया भर में हुए बहुत सारे अध्ययनों से यह बात पता चली है कि विश्व में हर आठवां आदमी पीठ के दर्द अथवा स्लिप्ड डिस्क की वजह से होने वाले दर्द का शिकार है।

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स्लिप्ड डिस्क की समस्या का हमारी शारीरिक क्रियाओं से संबंध होता है और उठने, बैठने, झुकने की अपनी गलत आदत की वजह से हम इसके चंगुल में फंस जाते हैं। एक झटके से उठना, बैठना सही नहीं होता और कभी भी हमारे शरीर के लिए समस्याएं खड़ी कर सकता है। इसके अलावा ऐसी कोई दुर्घटना जिससे रीढ़ की हड्डी पर प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष दबाव पड़ा हो, तेज चोट लगी हो, स्लिप्ड डिस्क का कारण बन जाया करती है। कभी-कभी गलत तरीके से अथवा अपनी क्षमता से बहुत अधिक वजन उठा लेने से भी यह समस्या उत्पन्न हो सकती है।

स्लिप्ड डिस्क की परेशानी पैदा होने के बाद तंत्रिका पर प्रभाव पड़ता है जिससे पीठ, गर्दन और शरीर के निचले हिस्से में बहुत तेज दर्द होता है। कोई-कोई मरीज शरीर के प्रभावित होने वाले अंगों के सुन्न हो जाने की भी शिकायत करता है। धीरे-धीरे पैरालिसिस की स्थिति आ जाने का खतरा भी रहा करता है। कई बार शरीर का निचला हिस्सा कमजोर पड़ जाता है, जिससे मरीज खुद से अपने पैरों पर नहीं खड़ा हो पाता है। खांसते समय अथवा टहलते हुए भयंकर दर्द होता है। कभी-कभी मरीज अर्द्ध बेहोशी की स्थिति में चला जाया करता है और कई मरीज नियमित रूप से बेहोशी के दौरे पड़ने की भी शिकायत करते हैं।

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नई दिल्ली स्थित सर गंगाराम अस्पताल के न्यूरो एंड स्पाइन डिपाटमेंट के डायरेक्टर डा. सतनाम सिंह छाबड़ा का कहना है कि स्लिप्ड डिस्क का एक बहुत बड़ा कारण बढ़ती हुई उम्र भी है जब डिस्क में विकार आने लगते हैं और उसमें लोच नहीं रह जाती। कई बार दुर्घटना में चोट लगने से भी यह समस्या उत्पन्न हो जाती है। एक और बात उल्लेखनीय है कि 20 प्रतिशत स्लिप्ड डिस्क के मामले ऐसे होते हैं जिनमें मरीज को किसी भी तरह के खतरे का संकेत ही नहीं मिलता और वह जान ही नहीं पाता कि उसके डिस्क के साथ किसी तरह की समस्या उत्पन्न हो गई है। यह एक खतरनाक स्थिति है क्योंकि जब तक रोग का पता चलता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है और जो समस्या हल्के-फुल्के इलाज से ठीक हो सकती थी उसमें बहुत सारी परेशानियां उठानी पड़ती हैं। इस बीमारी को स्लिप्ड डिस्क का जो नाम दिया गया है उससे रोग की सही प्रकृति स्पष्ट नहीं होती क्योंकि वास्तव में डिस्क अपनी जगह से खिसकता नहीं है बल्कि रीढ़ की हड्डी की ओर उभर आता है. अक्सर ही गले या पीठ के दर्द को हल्के में लिया जाता है, कभी बढ़ती हुई उम्र तो कभी थकावट और कमजोरी के नाम पर। कई बार इन कारणों से दर्द होता भी है।

डा. सतनाम सिंह छाबड़ा का कहना है कि लेकिन अगर दर्द इतना बढ़ जाए कि चलना-फिरना मुश्किल हो जाए तब चिकित्सक की सलाह ले ही लेनी चाहिए। अगर गले या पीठ दर्द के साथ शरीर सुन्न होने लगे या कमजोरी महसूस होने लगे, पेशाब पर नियंत्रण न रह जाए या फिर बुखार, पेट दर्द या सीने में भी दर्द होने लगे तो डॉक्टर से मशविरा लेने में बिल्कुल भी देर नहीं करनी चाहिए। अगर किसी दुर्घटना में रीढ़ पर चोट लगे या बहुत ऊंचाई से नीचे गिरने के बाद गर्दन या पीठ में तेज दर्द होने लगे तब भी चिकित्सक की सलाह लेने में देर नहीं करनी चाहिए। हो सकता है कि स्लिप्ड डिस्क की समस्या पैदा हो गई हो तोदेर होने पर स्थिति और भी बदतर हो सकती है। अक्सर ही चिकित्सक बेड रेस्ट की सलाह दिया करते हैं। कुछ सप्ताह के बेड रेस्ट के बाद धीरे-धीरे सामान्य दिनचर्या की ओर लौटने की सलाह दी जाती है। अगर चोट लगने के कारण दर्द हो रहा हो तो पहले ठंडे पैक से सेंकने के बाद फिर गर्म सिकाई करनी चाहिए। अगर दर्द की वजह चोट नहीं हो तो गर्म सिकाई से शुरूआत की जा सकती है।

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शल्य चिकित्सा तब अनिवार्य हो जाती है जब तंत्रिका के दब जाने के संकेत मिलने लगते हैं। अन्य इलाजों से अगर हालत न सुधरे तो ऑपरेशन का विकल्प ही रह जाता है। सर्जरी का उद्देश्य डिस्क के बाहर आ गए हिस्से को अलग करना होता है। इसे डिसेक्टॉमी कहते हैं जिसे विभिन्न तरीके से अंजाम दिया जा सकता है। ओपेन डिसेक्टॉमी वह प्रक्रिया है जिसके अंतर्गत स्लिप्ड डिस्क के एक भाग अथवा खिसक गए संपूर्ण डिस्क को ही हटा दिया जाता है। इसमें स्पाइन में चीरा लगाकर डिस्क को हटाया जाता है. प्रोसथेटिक इंटरवर्टिब्रल डिस्क स्थानांतरण के अंतर्गत स्लिप्ड डिस्क की जगह लेने के लिए मरीज के पीठ में कृत्रिम डिस्क डाला जाता है। यह प्रक्रिया जेनरल एनेसथिसिया के अधीन पूरी की जाती है। मरीज बेहोशी की स्थिति में होने के कारण दर्द महसूस नहीं करता।

डा. सतनाम सिंह छाबड़ा का कहना है कि लेकिन सर्जरी की सबसे बेहतर और न्यूनतम परेशानी पैदा करने वाली प्रक्रिया है इंडोस्कोपिक लेजर डिसेक्टॉमी. इस शल्य चिकित्सा के अंतर्गत स्पाइन तक पहुंच कायम करने के लिए एक बहुत ही छोटा चीरा लगाया जाता है। डिस्क को देखने के लिए इंडोस्कोप की सहायता ली जाती है। यह एक पतली, लंबी ओर लोचदार नली होती है जिसके एक किनारे पर प्रकाश स्रोत और कैमरा लगा होता है। एनेस्थिसिया लोकल हो अथवा जनरल यह इस बात पर निर्भर करेगा कि स्लिप्ड डिस्क आपके स्पाइन में कहां है। चीरा लगाकर इंडोस्कोप से देखते हुए उस तंत्रिका को हटादिया जाता है जिसके कारण दर्द हो रहा था। इसके बाद लेजर की सहायता से खिसक गए डिस्क को हटा दिया जाता है। भयंकर दर्द से आराम दिलाने वाली इस प्रक्रिया के साथ सबसे बड़ी सुविधा की बात यह है कि इसमें मरीज को बिल्कुल भी दर्द का एहसास नहीं होता और रोग का अंत हो जाया करता है।

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एक अन्य अध्ययन के अनुसार औसतन सात सप्ताह बाद लोग अपनी स्वाभाविक दिनचर्या फिर से शुरू करने लायक हो गए और उन्हेें स्लिप्ड डिस्क से संबंधित परेशानी फिर कभी भी नहीं हुई। हां, एक बार यह समस्या पैदा हो जाने के बाद अपने चिकित्सक के नियमित संपर्क में रहना बहुत जरूरी होता है। स्लिप्ड डिस्क के खतरे को बढ़ाने में अधिक धूम्रपान, नियमित व्यायाम के अभाव तथा भरपूर पोषण के अभाव की भी भूमिका हो सकती है। जरूरत से ज्यादा शारीरिक परिश्रम भी कई बार रीढ़ की हड्डी को दबाव में ले आया करता है। हमेशा ही इस बात को याद रखिए कि आप जो व्यायाम कर रहे हैं वह बहुत जटिल न हो और आपकी पीठ पर बहुत दबाव न डाले। बहुत लंबे समय तक बैठे रहने से भी यह दर्द बढ़ सकता है। इस मामले में बहुत कम ऐसा होता है जब शल्य चिकित्सा ही एकमात्र इलाज रह जाता हो। लेकिन जब आराम, दवा और व्यायाम से काम न चले तो सर्जरी का सहारा लेना पड़ता हैं।

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