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सुख-दुख

गायब हुए बच्चों से मजदूरी कराई जाती है, या उन्हें सेक्स वर्कर बना दिया जाता है!

-शैलेन्द्र चौहान

असुरक्षित बचपन : बच्चे समाज का सबसे असुरक्षित हिस्सा है, वे निर्भर है। सबसे कमजोर है और उनके अपने जीवन प्रक्रिया पर उनका नियंत्रण कम है। इनमें से कुछ बच्चें अपनी सामाजिक-आर्थिक एवं सांस्कृतिक परिस्थितियों के कारण अन्य बच्चों की अपेक्षा अधिक कमजोर एवं उपेक्षित है।

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यूरोपीय इतिहास और सोच का परिणाम हमें एक विस्तारित और संरक्षित बचपन के विचार के रूप में देखने को मिला। हम संरक्षण के इस विचार के दो पहलुओं में भेद कर सकते हैं। एक था कामकाज में लगने से बच्चों को शारीरिक संरक्षण देना और दूसरा था लैंगिकता के अच्छे-बुरे ज्ञान से तथा उससे जुड़े सामाजिक प्रचलनों से बच्चों को बचाकर रखना। पहले पहलू का नतीजा बच्चों की अनिवार्यत: देखभाल किए जाने के अधिकार के रूप में सामने आया, और उनकी देखभाल सिर्फ परिवार द्वारा ही नहीं की जानी थी बल्कि राज्य द्वारा संचालित संस्थागत तंत्र द्वारा भी की जानी थी। दूसरे पहलू के परिणामस्वरूप एक धारणा बनी जिसमें बचपन को लैंगिक मामलों के बारे में भोलेपन और अज्ञान का दौर माना गया जो प्रसुप्ति (लेटेंसी1) के मनोवैज्ञानिक काल के साथ चलता था और उसे बढ़ा देता था। यूरोपीय बाल साहित्य की कई उत्कृष्ट रचनाएँ इस विचार से ओतप्रोत हैं और वे लम्बी प्रसुप्तता का मज़ा लेते बच्चों के निश्छल कारनामों को चित्रित करती हैं।

सरकारी आकड़ों के लिहाज से देश की 37.2% आबादी गरीबी रेखा के नीचे है। जो दर्शाती है कि देश में गरीबी बहुत तेजी से बढ़ रही है। यानी जितना हम सोचते हैं उससे कहीं ज्यादा बच्चे गरीबी में जीने को मजबूर हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों के मुताबिक दुनिया के कुल कुपोषित बच्चों में से 49% भारत में हैं। अर्थव्यवस्था से जुड़े तमाम बड़े बड़े दावों के बावजूद भारत में बच्चों की कुपोषण से होने वाली मौतें बढ़ती ही जा रही हैं। देश में एक सेकेण्ड के भीतर 5 साल के नीचे का एक बच्चा कुपोषण के कब्जे में आ जाता है।

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इसी तरह देश के 3.5 करोड़ बच्चे बेघर हैं जिनमें से 35000 बच्चों को ही आश्रय मिल सके हैं। इन आश्रयों में से भी बहुत सारे गैर सरकारी संगठनों द्वारा चलाये जा रहे हैं। मानवाधिकार संगठन के मुताबिक फुटपाथ पर रात बिताने वाले करीब 1 करोड़ बच्चों में से ज्यादातर को यौन-शोषण और सामूहिक हिंसा झेलनी पड़ती हैं। दिल्ली में जून 2008 से लेकर जनवरी 2009 तक 2210 बच्चे लापता हुए हैं। दिल्ली में एक दिन में औसतन 17 बच्चे गायब हो रहे हैं। गैर-सरकारी आंकड़ों के मुताबिक दुनिया में हर साल 72 लाख बच्चे गुलामी का शिकार हो रहे हैं। इनमें से एक तिहाई दक्षिण एशियाई देशों के होते हैं। गैर-सरकारी आंकड़ों के मुताबिक भारत में हर साल 45 हजार बच्चे गायब हो रहे हैं।

अध्ययन कहते हैं कि गायब हुए बच्चों से मजदूरी कराई जाती है, या उन्हें सेक्स वर्कर बना दिया जाता है। हालांकि केंद्र सरकार उन राज्य सरकारों के प्रति नाराजगी जताती रही है, जो केंद्र की समेकित बाल संरक्षण योजना पर हस्ताक्षर तो चुके हैं मगर उसके बाद से अपने यहां बाल संरक्षण आयोग का गठन तक नहीं कर सके हैं। कुपोषण, असुरक्षा जैसी तमाम समस्याओं की मार झेलते भारतीय बच्चों की एक बड़ी समस्या अनेक कारणों से की जाने वाली मजदूरी भी है। बाल अधिकारों से जुड़ी अनेक अंतरराष्ट्रीय संधियों का हस्ताक्षरकर्त्ता होने के बावजूद भारत बाल मजदूरों का गढ़ बन चुका है। पूरी दुनिया में 24.6 करोड़ बाल मजदूर हैं, जबकि केंद्र सरकार के अनुसार देश में 1.7 करोड़ बाल मजदूर हैं जिनमें से 12 लाख खतरनाक उघोगों में काम करते हैं। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के बाल मजदूरी से जुड़े आकड़ों के मुताबिक सेक्स इंडस्ट्री में खासतौर से लड़कियों की तस्करी विभिन्न यौन गतिविधियों के लिए हो रही है। इसी तरह घरेलू मजदूरी में भी लड़कियों की संख्या सबसे ज्यादा होती है।

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तस्करी और लापता बच्चों के बीच गहरे रिश्ते का खुलासा एनएचआरसी की रिसर्च रिपोर्ट (2004) भी करती है जिसमें कहा गया है कि भारत में हर साल 30 हजार से ज्यादा बच्चों के लापता होने के मामले दर्ज होते हैं। इनमें से एक-तिहाई का पता नहीं चलता है. दक्षिण एशिया में दुनिया के किसी अन्य हिस्से के मुकाबले सर्वाधिक बाल-विवाह भारत में होते हैं. भारत में 20 से 24 साल की शादीशुदा औरतों में से 44.5% (करीब आधी) औरतें ऐसी हैं जिनकी शादियां 18 साल के पहले हुईं हैं। इन 20 से 24 साल की शादीशुदा औरतों में से 22% (करीब एक चौथाई) औरतें ऐसी हैं जो 18 साल के पहले मां बनीं हैं। इन कम उम्र की लड़कियों से 73% (सबसे ज्यादा) बच्चे पैदा हुए हैं। फिलहाल इन बच्चों में 67% (आधे से बहुत ज्यादा) कुपोषण के शिकार हैं। स्वास्थ्य विशेषज्ञों के मुताबिक बाल-विवाह बच्चियों का जीवन बर्बाद कर रहा है। देश में बच्चों का लिंग अनुपात 976:1000 है, जो कुल लिंग अनुपात 992:1000 के मुकाबले बहुत कम है।

शिक्षा के लिहाज से तो बच्चों की हालात कुछ ज्य़ादा ही पतली है. देश की 40% बस्तियों में तो स्कूल ही नहीं हैं। 48% बच्चे प्राथमिक स्कूलों से दूर हैं. 6 से 14 साल की कुल लड़कियों में से 50% लड़कियां तो स्कूल से ड्राप-आऊट हो जाती हैं।
इन सबके बाबजूद पिछले बजट में बच्चों के हकों से जुड़े कई शब्दों से लेकर ‘सर्व शिक्षा अभियान’ और ‘मिड डे मिल’ जैसे योजनाओं को अपेक्षित जगह नहीं दी गई। कुल बजट में 25% की बढ़ोतरी तो की गई है मगर बच्चों की शिक्षा पर महज 10% की ही बढ़ोतरी हुई। यानी आमतौर पर बढ़ोतरी दर में से बच्चों की शिक्षा में 15% की कमी हुई।

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जहां बाल-कल्याण की विभिन्न योजनाएं असफल होती दिख रही हैं, वहीं बच्चों के कल्याण के लिए बजट (2009-10) में राशि का प्रावधान अपेक्षित अनुपात में घोषित नहीं किया जाता है। जरूरतमंद बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य और सुरक्षा को अनदेखा किया गया है। अमेरिका, इंग्लैंड और फ्रांस में कुल बजट का 6-7% हिस्सा सार्वजनिक शिक्षा और स्वास्थ्य पर खर्च किया जाता है, मगर भारत में कुल बजट का मात्र 3% शिक्षा और सिर्फ 1% स्वास्थ्य पर खर्च होता है। अगर भारत सरकार यह दावा करती है कि वह बाल कल्याण और सुरक्षा के लिए प्रयासरत है तो उसे इस सवाल का जवाब भी देना होगा कि आखिर स्वास्थ्य की दृष्टि से भारत अपने से भी गरीब कहे जाने वाले पिछड़े देशों से भी पीछे क्यों खड़ा है?

संपर्क: 34/242, सेक्‍टर-3, प्रतापनगर, जयपुर-302033
मो. 7838897877

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