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साहित्य

हिन्दी भाषा की इस ऐतिहासिक उपलब्धि पर प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और मुख्यमंत्री ने औपचारिक बधाई तक नहीं दी है!

रंगनाथ सिंह-

‘हिन्दू दक्षिणपंथी’ राज में पहली बार एक हिन्दी लेखक को इंटरनेशनल बुकर पुरस्कार मिला है। ‘हिन्दू दक्षिणपंथी’ राज में ही पहली बार एक हिन्दी पत्रकार को मैग्सेसे पुरस्कार भी मिला। अगर भारत में ‘हिन्दू दक्षिणपंथी’ राज रह गया तो अगले पाँच-दस सालों में किसी हिन्दी लेखक को नोबेल भी मिल सकता है। मुझे पता है कि कई मित्रों को इन पुरस्कारों को ‘हिन्दू दक्षिणपंथी’ राज से जोड़ना अच्छा नहीं लगेगा लेकिन भाषा की राजनीति और राजनीति की भाषा पर फिलहाल बहस करने का इरादा नहीं है। इसे एक हिन्दी लेखक की ‘बाँकी चाल’ समझकर सह लें। मन हो तो इसपर पलभर सोच लें। बहस किसी और दिन कर लेंगे।

मेरे ऊपर के बयान को कृपया ‘रेत समाधि’ की निंदा न समझा जाए। किताब अलग चीज है, पुरस्कार अलग। गीतांजलि श्री की किताब को लेकर मैं सकारात्मक हूँ क्योंकि कुछ समय पहले प्रत्यक्षा जी ने अपने फेसबुक पोस्ट में इसे बेहतरीन किताब बताया था। उनकी संस्तुति पर मुझे इंटरनेशनल बुकर से ज्यादा भरोसा है। उनकी पोस्ट के बाद से ही यह उपन्यास मेरी पठन-सूची की वेटिंग-लिस्ट में है। वरना बुकर-नोबेल मिलने पर लेखकों को पढ़ने की फैशेनबल इडियाटिक इंटेलिजेंसी को मैं कई साल पहले पीछे छोड़ चुका हूँ।

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यह भी महज संयोग ही है कि आज गीतांजलि ने हिन्दी को पहला बुकर दिलाया है तो करीब 109 साल पहले 1913 में गीतांजलि ने ही भारत को पहला साहित्यिक नोबेल भी दिलाया था। रवींद्रनाथ टैगोर की ‘गीतांजलि’ बहुत अच्छी किताब है लेकिन उसे नोबेल मिलने में रवींद्रनाथ की डब्ल्यूबी येटस जैसों से यारी-दोस्ती की अहम भूमिका थी।

विघ्नसंतोषी किस्म की यह पोस्ट किताब की आलोचना के लिए नहीं लिखी जा रही। यह इसलिए लिखी जा रही है कि यही मौका है यह कहने का कि हिन्दी जन खुद पर यकीन करना सीखें। अपनी योग्यता का प्रमाणपत्र दूसरों से माँगने की प्रवृत्ति से उबरें। हिन्दी के लिए यह ऐतिहासिक क्षण है। इस ऐतिहासिक क्षण में यही कहना चाहूँगा कि हिन्दी जन अपनी हीनता ग्नन्थि से बाहर निकलें। मेरी नजर में यह एकमात्र भाषा है जिसके कुछ प्रमुख रचनाकार भी जब नहीं तब अंग्रेजी पोस्ट लिखकर हिन्दी को गरियाने में गंगा स्नान का सुख पाने का प्रयास करते हैं।

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‘गीतांजलि श्री’ और डेजी राकवेल के साथ ही समस्त हिन्दी समाज को इस पुरस्कार की हार्दिक बधाई। पाठकों से अनुरोध है कि वो याद रखें कि इसी जगह कभी लिखा था कि “विनोद कुमार शुक्ल किसी अन्य भाषा में होते तो उसके निज गौरव के प्रतीक पुरुष होते।” बुकर पुरस्कार पर ताली बजाने वाले समाज को सोचना चाहिए कि वह कितना पाखण्डी है। वह खुद अपने लेखकों का सम्मान नहीं करता लेकिन चाहता है कि उसकी भाषा को अंतरराष्ट्रीय मंच पर इनाम-इकराम मिले।

हिन्दी के हीनता-ग्रन्थि-ग्रस्त औसत दर्जे के लेखकों के बीच यह फैशन बन चुका है कि जब उठो किसी अप्रमाणिक प्रसंग को लेकर किसी समादृत लेखक का उपहास उड़ाओ, उनके लिए गाली निकालो और कुंठित अधेड़ों और अधेड़ होने की तरफ बढ़ रहे युवाओं के बीच लोकप्रिय हो जाओ। किसी दल-वाद, हित-अहित से ऊपर उठकर हिन्दी लेखकों के सम्मान के लिए बोलने वाले ढिबरी लेकर खोजने से नहीं मिलते। उम्मीद करता हूँ कि गीतांजलि श्री के अंतरराष्ट्रीय हिन्दी लेखक बन जाने के बाद इस प्रृवत्ति में थोड़ी कमी आएगी। आशा है कि इस ऐतिहासिक परिघटना के बाद कोई दुबली सी अच्छी किताब या चार अच्छे लेख या ठीकठाक कविता लिख लेने को समादृत लेखकों को गरियाने का लाइसेंस समझने वाले गुबरैलों में भी थोड़ी अक्ल आएगी।

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कुछ महीने पहले एक अग्रज से हिन्दी की हालत को लेकर हुई टेलीफोनिक चर्चा में कहा था कि मुझे यकीन है कि एक बड़ी किताब हिन्दी की जड़ता तोड़ देगी। वह अच्छी किताब कब आएगी, नहीं पता लेकिन एक अच्छा पुरस्कार हिन्दी को लेकर लोगों के नजरिए में कितना बदलाव ला सकता है, हम सब इसके साक्षी बनने जा रहे हैं।

और हाँ, हिन्दी मीडिया ध्यान दे, गीतांजली नहीं गीतांजलि…अपनी ही लेखिका का नाम गलत लिखना कुफ्र है। गीतांजलि श्री और डेजी राकवेल को फिर से हार्दिक बधाई।

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सुबह की पोस्ट में मैंने लिखा कि “हिन्दू दक्षिणपंथी राज में पहली बार….” हिन्दी को बुकर और मैग्सेसे मिला है। कुछ वोक किस्म के पत्रकार-प्रोफेसर उसे ‘मोदी है तो मुमकिन है’ से जोड़ने लगे। हिन्दी बौद्धिक समाज में ऐसे कुछ लोग दशकों से सक्रिय हैं जिनका मगज दस बाई बारह से ज्यादा वितान के कथन को समेट नहीं पाता। ऐसे लोगों को एक-एक दाना निकिया कर समझाना पड़ता है जिसमें आदमी थक जाता है। पाठकों से कहना चाहूँगा कि यह पोस्ट मैं कतई नहीं लिखना चाहता था। मुझे जो लिखना था उस एक पैरा में लिख दिया था। कहा भी था कि बहस कभी और कर लेंगे लेंगे लेकिन कुछ लोग नहीं माने तो नहीं माने।

गीतांजलि श्री के उपन्यास का मुख्य प्लॉट क्या है? रवींद्र त्रिपाठी द्वारा लिखी समीक्षा के अनुसार यह एक बुजुर्ग महिला चन्द्रप्रभा देवी की कहानी है। उन्होंने बिस्तर पकड़ रखा है। बेटी-बहू वाले घर की खटर-पटर के बीच जिन्दगी बसर हो रही है। अचानक एक दिन उनकी लाइफ यूटर्न ले लेती है। खटिया छोड़ वो अपनी बेटी के पास चली जाती हैं। वहाँ एक किन्नर से भी उनकी दोस्त हो जाती है। कहानी का बड़ा यूटर्न बाद में आता है। चन्द्रप्रभा देवी तय करती हैं कि उन्हें पाकिस्तान जाना है। क्यों? क्योंकि उनका अपना पहला प्यार-पति अनवर याद आता है। उन्हें मरना भी वहीं है। बँटवारे में हिन्दुस्तान आने से पहले चंदा का अनवर से कानूनन ब्याह हुआ था। त्रिपाठी जी के अनुसार, 1870 में ऐसा कोई कानून था जिसके हवाले से इस थीम को ठोस आधार दिया गया है। इसी के साथ गीतांजलि श्री की पिछली किताबों का विषय भी ध्यान रखें। उनकी सबसे चर्चित किताब ‘हमारा शहर उस बरस’ साम्प्रदायिक राजनीति का सृजनात्मक प्रतिवाद है।

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अब हम आते हैं रवीश कुमार की किताब पर। रवीश कुमार हम जैसों के प्रिय ब्लॉगर और रिपोर्टर रहे हैं। मीडिया के चर्चित नामों में वो पहले हैं जिन्होंने अपने ट्विटर पर लिख रखा था कि ‘अंग्रेजी नहीं आती।’ संयोग देखिए कि 2019 में उनको मैग्सेसे मिलने से एक साल पहले 2018 में उनकी पहली इंग्लिश किताब ‘फ्री वायस’ आयी। उस किताब का हिन्दी संस्करण- बोलना ही है – तब आया जब मैग्सेसे पुरस्कार की घोषणा हुई।

रवीश कुमार के ‘फ्री वायस’ की थीम क्या है, शायद यह बताने की जरूरत नहीं है। सुना है कि भारत में हिंदुत्ववादी राजनीति के वर्चस्व काल में ‘फ्री वायस’ की दशा-दिशा पर इस पुस्तक में विवेचना की गयी है लेकिन यहाँ मुद्दा मीडिया विमर्श नहीं है बल्कि हिन्दी पत्रकार और लेखक को अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिलना है।

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मेरी राय में वैश्विक इंग्लिश समाज कहीं न कहीं यह महसूस करने लगा है कि इंडिया के बौद्धिक परिवेश को मैनेज करने के लिए इंडियन इंग्लिश नाकाफी साबित हुई है। कई दशकों से भारत की कल्चरल इंडस्ट्री पर इंडियन इंग्लिश के सहारे उनका कंट्रोल बना हुआ था। कुछ लोग भूल गये हैं कि अरुंधति राय के पहले उपन्यास ‘गॉड ऑफ स्माल थिंग्स’ को जब बुकर मिला तो कुछ लोगों ने उनपर कम्युनिस्ट विरोधी उपन्यास लिखने का आरोप लगाया था। उसके बाद वो इंडियन कम्युनिस्टों की प्रिय लेखिका के रूप में स्थापित हुईं। पहले नॉवेल के बाद अरुंधति ने करीब दो दशक तक नॉन-फिक्शन लिखा। करीब दो दशक बाद उनका दूसरा उपन्यास आया जिसकी बुनाई में कुछ धागे वही हैं जिनका इस्तेमाल गीतांजलि श्री ने किया है।

यह छिपी बात नहीं है कि भारत की राजनीतिक सत्ता इंग्लिशवादियों के हाथ से फिसलकर हिन्दीवादियों के हाथ में निर्णायक रूप से जा चुकी है। इंग्लिशवादियों के मक्का-मदीना कैम्ब्रिज में राहुल गांधी की चर्चा में भी यह अंडरटोन है। भारतीय वामपंथ और कांग्रेस की सैद्धान्तिकी की भाषा इंग्लिश रही है। सारा ज्ञान पहले इंग्लिश में अवतरित होता था जिसे हिन्दी में उल्था करके जनता तक पहुँचाया जाता था। अब अरुंधति राय, प्रताप भानु मेहता, रामचंद्र गुहा इत्यादि से वही वर्ग प्रभावित होता है जो या तो वोट नहीं देता या फिर उसके वोट से देश की राजनीतिक सत्ता की कान पर जूँ नहीं रेंगता।

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जिनके वोट से सत्ता को फर्क पड़ता है उसकी बहुसंख्यक आबादी अब भी हिन्दी-भाषी है। अब यह साफ है कि अब वाया इंग्लिश भारत से संवाद करने से बात नहीं बनेगी। अब सीधे हिन्दी में बात करनी होगी। याद रखें अब पी विजयन, शशि थरूर और पी चिदम्बरम जैसे भी हिन्दी में ट्वीट करने लगे हैं। सबसे प्रबल हिन्दी विरोधी डीएमके मुखिया स्टालिन हिन्दी सोशलमीडिया इन्फ्लुएंसर से अपना प्रचार-प्रसार करा रहे हैं। यही वजह है कि अब हिन्दी बुद्धिजीवियों का कद और किरदार अरुंधति, मेहता और गुहा जैसा होना होगा। कहना न होगा, मैग्सेसे, बुकर और नोबेल जैसे पुरस्कारों के विजेता रातोंरात अपने देश में बड़े पब्लिक इन्फ्लुएंसर बन जाते हैं।

जिन लोगों को लगता है कि यह पुरस्कार अराजनीतिक हैं उन्हें सोचना चाहिए कि क्या यह महज संयोग है कि हिन्दी के प्रबल हिमायती माने जाने वाले प्रधानमंत्री, देश के गृहमंत्री और यूपी के मुख्यमंत्री इत्यादि ने हिन्दी भाषा की इस ऐतिहासिक उपलब्धि पर औपचारिक बधाई तक नहीं दी है!

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अरुंधति रॉय का पहला नॉवेल भी काफी अच्छा था। गीतांजलि श्री का उपन्यास भी अच्छा होगा। लेकिन अच्छी चीजों की कद्र सियासी मौसम के हिसाब से बदलती रहती है। साहित्य के क्षेत्र में यह फितरत पुरानी है। साहित्य के लिए पहला नोबेल पुरस्कार लियो तोल्सतोय के जीते जी एक अल्पज्ञात लेखक को दिया गया था। लियो तोल्सतोय का कद तब (और अब भी) क्या था यह सभी सुधी पाठक जानते हैं। तोल्सतोय की जगह जिन महाशय को पहला साहित्य नोबेल दिया गया उनका नाम आज दुनिया के शीर्ष 1000 हजार सर्वकालिक लेखकों में भी शायद न शुमार हो।

उम्मीद है कि अब यह स्पष्ट हो गया होगा कि मेरी राय में ‘हिन्दी दक्षिणपंथी राज में….’ हिन्दी वालों को अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार क्यों मिल रहे हैं। अब भी न समझ में आया तो मुझे इस बयान के लिए क्षमा कर दें।

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1 Comment

1 Comment

  1. Ramchandra Prasad

    June 7, 2022 at 6:41 am

    Very good. आपने पुरस्कारों की राजनीति और निहितार्थ को उधेड कर रख दिया ।

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