Yashwant Singh : गोरखपुर में आयोजित कंटेंट मानेटाइजेशन की वर्कशाप से बनारस जाने के लिए गोरखपुर रेलवे स्टेशन पर ट्रेन पकड़ने से पहले एक अजीब दृश्य देखा. एक युवक डस्टबिन में दोनों हाथ डाले मूंगफली बीन-बीन कर खा रहा था. मोबाइल कैमरा आन किया और रिकार्ड करने लगा. मोबाइल कैमरा आन रखते हुए ही उसके नजदीक गए, आहिस्ते से ताकि वह जान न सके कि उसकी रिकार्डिंग हो रही है. देखा तो डस्टबिन में बाकी सारा अखाद्य कूड़ा एक तरफ कर कर के यह युवक सिर्फ मूंगफली के छिलकों के बीच बची साबूत मूंगफली को खोज रहा है और मिलते ही उसे चबा रहा है. (वीडियो देखने के लिए नीचे दिया गया पहला वीडियो लिंक क्लिक करें)
तुम्हारी इस दशा के लिए हम सब पापी हैं दोस्त, हम सब अलग-अलग चुपके-चुपके भोगेंगे, शायद यही हमारा पश्चाताप है, शायद यही हमारी नियति है.
बीच बीच में वह मूंगफली के छिलके खा रहा है. वीडियो बनाते हुए मन में तरह तरह के भावुक किस्म के भाव आ रहे थे. कैसा देश है अपना. कहां लोग भूखे जी रहे हैं और कहां सफाई अभियान चल रहा है. पहले सबका पेट तो भरो यार. भरे पेट वाला सफाई और स्वास्थ्य का महत्व खुद समझ जाता है. जब पेट खाली हो तो उसे सफाई और गंदगी में फर्क समझ नहीं आता क्योंकि उसे खाना चाहिए और खाना अगर गंदगी के बीच छिपा हो तो वह उसे खोजकर खाएगा भले ही उस संक्रमित खाने से वह बीमार पड़ जाए या मर जाए. पहला वीडियो बनाकर रुका और देखता रहा. फिर जी नहीं माना. वह लड़का लगातार खाता जा रहा था.
दुबारा वीडियो बनाना शुरू किया. अगल बगल के लोग मेरे वीडियो बनाने से थोड़े चौकन्ने हुए. इसलिए नहीं कि कोई युवक कूड़ेदान से कुछ बीन बीन कर खा रहा है. इसलिए कि कूड़े से बीन बीन कर खाते हुए को कोई ठीक ठाक दिखने वाला शख्स रिकार्ड क्यों कर रहा है. दबे कुचले गरीब खाना बीनते युवक की फिल्म बनाते मुझे देख लोग चौकन्ने हुए और एक बच्चा चला आया देखने कि आखिर अंकल डस्टबिन पर फोकस कर क्या चीज शूट कर रहे हैं या कि यह युवक डस्टबिन से क्या खा रहा है. (यह वीडियो देखने के लिए नीचे दिया गया दूसरा वीडियो लिंक क्लिक करें)
दूसरी फिल्म बनाने के बाद मैंने अपने मिडिल क्लास मन की एक न सुनी और ट्रेन खुलने से पहले की लग रही आवाज के बीच दौड़ पड़ा नजदीकी दुकान पर. वहां पैटीज नमकीन बिस्कट फ्रूटी आदि मिले जिसे फटाफट खरीदकर लाया और कूड़े में बीन कर खा रहे युवक को देने लगा. आश्चर्य ये कि उस लड़ने ने पहले तो लेने से मना करते हुए मुझे इगनोर किया. बाद में जब मैंने जिद की तो उसने हाथ में लेकर मेरे दिए खाद्य पदार्थ को कूड़े में तिरस्कार से डाल दिया और मूंगफली के छिलके बीन बीन खाने लगा. (यह वीडियो देखने के लिए नीचे दिया गया तीसरा वीडियो लिंक क्लिक करें)
अगल बगल खड़े कुछ गरीब किस्म के लोग बोलने लगे कि ये ऐसा ही है, दिया हुआ नहीं खाता है. मुझे जाने क्यों मंटो की कहानी याद आ गई ‘खोल दो’. कहीं ऐसा तो नहीं कि इस युवक को यकीन ही न हो कि उसे कोई ठीकठाक खाना खाने को दे सकता है. इसीलिए वह दिए जा रहे पदार्थ को कूड़ा मानकर कूड़ेदान में डाल देता हो. यानि उसे लगा हो कि कोई उसे कूड़ा दे रहा हो कूड़ेदान में डालने के लिए. मैं सिर से पैर तक झनझना गया. किस मुल्क में रहता हूं भगवान. दलालों चोरों हरामियों शोषकों के रूप में मौजूद हमारे देश के पूंजीपती व्यापारी नेता अफसर पत्रकार सबके सब दोनों हाथ से लूटे जा रहे हैं जिसके कारण देश की बहुत बड़ी आबादी सामाजिक और आर्थिक रूप से अपना हक पाने से बेदखल है जिस कारण वह भुखमरी की तरफ जाने को मजबूर है.
इन वीडियोज को यूट्यूब पर अपलोड तो कर दिया था अगले ही एक दो दिन बाद लेकिन इस पर लिखने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था. क्या लिखूं. वही दुख दरिद्रता दयनीयता दासत्व दैन्यता की कहानी. वही शोषण उत्पीड़न लूट स्वार्थ की पुरानी कहानी. वही बाजारू इकानामी के जरिए अमीरों के बीच पूंजी केंद्रीकरण की पुरानी कहानी. वही बेहद स्वार्थी और लिजलिजे दोगले मिडिल क्लास की कहानी. सच में अब बार बार लगता है कि कैसे हम सब अपनी आंखों से ये सब देखने के बाद भी बड़े आराम से अपने मजबूत सीमेंट ईंटों से बनी सुंदर दीवारों में सुख से जी पाते हैं. मैं दिल से कह रहा हूं तुम सब जो सुंदर सफल सुंगधित दिखते हो, असल में अपने अपने अंधेरे में बेहद बौने घटिया दुखी निकम्मे तिरस्कृत और श्रापित हो. हे इस देश सिस्टम के चारों स्तंभों समेत समाज के सभी गतिमान अंगों-प्रत्यंगों, झांकना अपने अंदर. तुम्हें अगर अपने मुल्क के ढेर सारे लोगों के इस हाल पर विचलन नहीं होता तो याद रखना, तुम्हें ऐसे कष्टदायी मुश्किल दिन प्रकृति द्वारा प्रदत्त किए जाएंगे कि न तुम सह सकोगे न तुम रो सकोगे. याद रखना. तीनों वीडियो लिंक नीचे दिए जा रहे हैं. हर एक को धैर्य से देखिए अंत तक.
https://www.youtube.com/watch?v=BJSw_fHVU34
https://www.youtube.com/watch?v=WoFd8zy57EE
https://www.youtube.com/watch?v=GgBh7vmcx9Y
मैं गोरखपुर से बनारस वाली ट्रेन के एसी डिब्बे में सवार तो हो गया लेकिन पूरे रास्ते कूड़ेदान से मूंगफली के छिलके बीनकर खाने वाले बेहद गरीब और अनाथ युवक के बारे में सोच सोच कर उबलता रहा. मन करता जा कर उतर कर देख लूं कि मेरा दिया वह खा रहा है या नहीं. आशंका यह भी हो रही थी कि कहीं उसे दिया गया खाद्य सामग्री कोई दूसरा फर्जी और उचक्का छाप गरीब न छीन ले उड़े. पर यह खयाल भी मुझे शर्म से गड़ा देता कि अरे बेटा यशवंत, तुमने कोई साल भर की खाद्य सामग्री तो उसे दे नहीं दी कि लोग लूटने लगेंगे और उसका खाद्य सामाग्री का अंत हो जाएगा और तुम्हारा प्रयास निरर्थक हो जाएगा.तुमने बस अपने तात्कालिक मिडिल क्लास भावावेग को तुष्ट करने के लिए और इसी बहाने एक खबर / एक फेसबुक पोस्ट / कुछ वीडियो बना लिए, मानेटाइज करने के लिए / वाहवाही पाने के लिए.
जाने कितने तरह के और कैसे कैसे अच्छे बुरे घृणित आध्यात्मिक भाव विचार आते रहे लेकिन यह सच है कि मैं बनारस पहुंचने तक अबनार्मल असमान्य बना रहा. कई बार यह भी लगा कि मुझे बनारस जाने की जगह कहीं भी इस ट्रेन से यूं ही उतर जाना चाहिए और बिना प्लान बिना सोच बिना मंजिल बिना विचार जीते जाना चाहिए, शायद यही मेरा पश्चाताप हो. शायद इसी से मुझे मुक्ति मिले. शायद…. !!!!!! पर ऐसा कर न सका. बस यही आखिर में उस युवक से मन ही मन मुखातिब होकर यह कहता रहा, कहता रहा, कहता रहा… कि तुम्हारी इस दशा के लिए हम सब पापी हैं दोस्त, हम सब अलग-अलग चुपके-चुपके भोगेंगे, शायद यही हमारा पश्चाताप है, शायद यही हमारी नियति है.
भड़ास के एडिटर यशवंत सिंह के फेसबुक वॉल से. संपर्क: [email protected]
यशवंत का लिखा ये भी पढ़ सकते हैं…
ashok
May 29, 2015 at 4:35 am
शाबास, काफी अच्छा है।
Harish Singh
May 29, 2015 at 6:26 am
hmmm yahi niyti hai
रत्ना राजश्री
May 29, 2015 at 6:26 am
Omg behaf dardnaak aap usey kahin le jate koi kaam wagara. Ek ke help se aage shyad kuch dukh kam hota . Veryyy sad
Sanjaya Kumar Singh
May 29, 2015 at 6:27 am
हो सकता है। उसे यकीन ही ना हुआ हो कि कोई उसे खाने की चीजें दे भी सकता है।
Amrita Maurya
May 29, 2015 at 6:44 am
Parun Sharma yashwantji yah aapka sabse best aur touchy article he, par vishay dekhke dukh bhi hota he.
Sharad Bajpai
May 29, 2015 at 6:47 am
THAKUR JE RAM RAM ‘. DELHI MAY ‘CHATAR PUR METRO SAY UTAR KAR JONA PUR VILLAGE KE TAXI JAHA KHADE HOTE HAI WAHA BHE DEKH LEJEY WAHA MAINAY ‘DELHI’ POLICE’ SAY KAHA TO WHO BOLAY PAGLA HAI TO MAINAY KAHA HOSPITAL MAY DIKHA TO BOLAY TIME NAHI HAI….,
Asif Ansari
May 29, 2015 at 6:48 am
दुखद
Virendra Rai
May 29, 2015 at 6:50 am
आपने भावुक कर दिया ।आपकी संवेदना के लिये साधुवाद ।
Rakesh Singhmpa
May 29, 2015 at 6:52 am
बेशक, यह हमारा पश्चचाताप हो सकता है!!!!!
पर नियति कैसे ?
Saroj Singh
May 29, 2015 at 6:54 am
ओह्ह विडम्बना है
Suresh Lal
May 29, 2015 at 6:56 am
hame va hamare samaj ko ,hamare desh va iske khewanharon ko mansik upchaar ki aavshyakta hai isme koi do raay nahin.lekin yuwak bhi mansik rog ka shikar lagta hai ,bhukha vyakti khane ko kude me nahin fekenga. halaanki halaat to badtar hi hain nimn varg do vakt ki roti ke liye apni haddiyan galaane ko majboor hai,swaasthy va shiksha to bahut door ki baaten hain.
Jagdish Singh
May 29, 2015 at 6:58 am
Beautifully described. There r two aspects of this sad affair. One is the age old timeless corruption and second is the massive over population. Both have to be fought vehemently and with full vigour. Ignoring any of the two is fatal.
अमर अरोरा
May 29, 2015 at 7:06 am
किसी भी स्टेशन पर जाओ तो ये नजारे आम बात है।
Shristhi Raj Sinha
May 29, 2015 at 7:08 am
Kabhi ushae 3 time khana aur 3 hazar ka vatan pa rakh ka dekhiae wo mana kar dega.
Saurabh Mishra
May 29, 2015 at 7:10 am
सर जी आप जैसे लोगो की कमी है …बाकी इस दुनिया के रखवालो को कौन समझाए कि उनके एसी कमरे के बहार भी दुनिया है ।
Arun Khare
May 29, 2015 at 7:15 am
यशवंत भाई आपने अपना काम कर दिया । इस संसार में सब की अपनी अपनी भूमिकाएं तय हैं । हम पत्रकारों की यही भूमिका है। आगे की भूमिका शुरू होती है समाज और समाज सेवक की या सरकार की । हां यह स्थिति मध्यवर्ग के चैतन्य लोगों के लिए निसंदेह पीडादायक है क्यों कि हम ऐसी स्थितियों की अनदेखी नहीं कर सकते । उच्च वर्ग आमतौर पर ऐसे अहसास से इसलिए नहीं गुजरता कि वह इसे देखना ही नहीं चाहता उसकी जीवन शैली में ऐसे दृश्यों व सोच का कोई स्थान नहीं होता जो उसे उसके तय रास्ते से जरा सा भी विचलित कर सके ।
बनारस धर्म की नगरी है जहाँ दानियों की भीड पुण्य कमाने आती है यदि वहां यह हाल है तो देश के अन्य भागों का अंदाजा लगाना सचमुच तकलीफ देने वाला है ।
Ankit Singhal
May 29, 2015 at 7:17 am
जब भी खाना खाने बैठता हूँ तो ये सोच कर भोजन करता हूँ कि मैं उतना ही खाऊंगा जितनी मुझे भूख है मन में यही ख़याल आता है कि इसे खराब नहीं होने दूंगा क्योंकि इसकी एहमियत बहुत है अपनी इस आदत पर घमंड करता हूँ। इस वीडियो को देखकर यही कहूँगा कि आखिर इस तथाकथित विकास से हमे आखिर क्या हासिल हो रहा है जिस देश में ऐसे उदाहारण आज भी मौजूद हो लोग खाने के निवाले के लिए तरस रहे हैं और पीएम् साहब ढिढोरा पिटते फिर रहे हो कि इंडिया ऐसा और इंडिया वैसा। तो लगता है कि हम आज भी लोगो की भूख का निवारण नहीं कर पाए है और सुपर पावर होने की बात करते हैँ। आखिर क्या सच है ये सवाल हमेशा मन में एक सवाल ही बनकर रह जाता है। हम सुपर पावर देश बनेंगे या फिर सुपर भुखमरी लोगों का देश
SK Mukherjee
May 29, 2015 at 7:19 am
निम्म मध्यमवर्ग और मध्यम मध्यमवर्ग के सिर पर रखी एक ‘अद्रश्य गठरी’ उसे रोक देती है . वह भी चाहता है आपकी तरह दौडके कुछ कर दे. पर वह कर नही पाता. वह आप जैसा सोच-लिख भी तो नही पाता. बस कोसता है- “कहां गया वह, जो इन गरीबो के नाम पर 21 रुपय का चंदा ले गया था परसो.” ” कहां है तमाम सामाजिक संगठन.” “कहां है इनकी सेवा का दंभ भरने वाले.” ……. फिर वो अपने ‘अद्रश्य गठरी’ के बारे में सोचने लगता हैं. जिसमें उसके परिवार की, उसके खुद की रोजमर्रा की जरुरते बंधी पड़ी हैं.