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जब प्रेस मालिक अपने हित के लिए एक हो सकते हैं तो हम पत्रकार क्यों नहीं एकजुट हो सकते

: मजीठिया वेतनमान संघर्ष – मालिकों ने कुछ शिष्य पत्रकारों को दूसरे पत्रकारों का खून चूसने के लिए छोड़ रखा है : फूट डालो और शासन करो की नीति सुनकर सामान्यतः अंग्रेजों की याद आती है लेकिन यही परंपरा पत्रकारिता में भी है। दरअसल मजीठिया वेतनमान न देने के लिए प्रेस मालिक इस तरह जाल बिछाकर रखे हैं कि कुछ विश्वासपात्र लोगों को अच्छा वेतन और पद देकर कुछ पत्रकारों को अपने साथियों का ही खून चूसने के लिए छोड़ देते हैं। हालांकि फूट डालो और शासन करो नीति में चम्मचों व चंपादकों का भी शोषण होता है लेकिन वर्षों से बंद आंखे धीरे-धीरे खुलती है।

: मजीठिया वेतनमान संघर्ष – मालिकों ने कुछ शिष्य पत्रकारों को दूसरे पत्रकारों का खून चूसने के लिए छोड़ रखा है : फूट डालो और शासन करो की नीति सुनकर सामान्यतः अंग्रेजों की याद आती है लेकिन यही परंपरा पत्रकारिता में भी है। दरअसल मजीठिया वेतनमान न देने के लिए प्रेस मालिक इस तरह जाल बिछाकर रखे हैं कि कुछ विश्वासपात्र लोगों को अच्छा वेतन और पद देकर कुछ पत्रकारों को अपने साथियों का ही खून चूसने के लिए छोड़ देते हैं। हालांकि फूट डालो और शासन करो नीति में चम्मचों व चंपादकों का भी शोषण होता है लेकिन वर्षों से बंद आंखे धीरे-धीरे खुलती है।

मालिक आपका तभी तक इज्जत करेगा जब तक आप उसे पैसा कमाकर दे रहे हैं या लाभ के आदमी हैं। उसके बाद वह आपको नहीं जानता, चाहें जो भी उपलब्धि हो। जब मालिक अपने लाभ के लिए एक रुपए का समझौता नहीं कर सकता तो पत्रकार साथी अपनी खुशियां, अपना हक क्यों लुटा रहे हैं।

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पत्रकार और पत्रकारिता
इतिहास गवाह है कि पत्रकार और पत्रकारिता का महत्व अपनी जगह पर है, यह कभी कम होने वालाा नहीं। चाहे वह वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट हो, सेंसरशिप हो या इंदिरा गांधी का आपतकाल हो। सभी प्रेस के आगे झुके हैं तो मालिक क्या चीज है। पत्रकार अपनी ही चापलूस बिरादरी से हारे हैं। पत्रकारों से उझलने वालों का बुरा हाल ही हुआ है, चाहे वह सुब्रत राय हो, राजएक्सप्रेस के मालिक अरूण शहलोत हो, फाइन टाइम्स के मालिक अशोक गेहानी हो या कोई हो। पत्रकारों को तुच्छ समझने पर इन ठेकेदारों का बुरा हश्र हुआ। आज ये लोग भरी सभा में खुद को भले ही पत्रकार कहें लेकिन इनकी इज्जत करने वाला कुछ चापलूसों को छोड़कर और कोई नहीं।

हम क्या करें?
पत्रकार साथियों से कहना चाहूंगा कि आप चाहे संपादक हों या पत्रकार, मजीठिया वेतन बोर्ड को लेकर एक हो जाएं क्योंकि आप ही मालिकों के आंख-कान हैं। यदि उन्हें यह कहेंगे कि सर हम किसी को नहीं निकाल सकते, यह नियम खिलाफ है, हम जिसे आज नौकरी से निकालें, वह कल कोर्ट से कंपन्सेसन एक्ट 1923 के तहत अंतरिम राहत पाकर फिर नौकरी पर आ जाएगा और औद्योगिक विवाद अधिनियम की धारा 25 एफ के तहत केस अलग से चलेगा। उसे आज नहीं तो कल इंसाफ मिलेगा और फैसला श्रमिक के ही पक्ष में होगा तो कंपनी चलाने के लिए किसी से अनावश्यक विवाद क्यों लें। जब सभी की मांगे लीगल है तो अनावश्यक परेशानी मोल क्यों लें। पत्रकार आपस में एक दूसरे को नौकरी से निकलवाने, प्रताडि़त करने और छोटा-बड़ा समझना छोड़ देंगे तभी पत्रकारों के लिए अच्छे दिन आएंगे। संस्थान के अंदर कोई भी साथी हो, नाम के अंत में जी लगाए। संस्थान के अंदर हम ही अपने साथियों से ऐसी बात करेंगे तो सुनने वाला वैसा ही उच्चारण करेगा। संस्थान के बाहर फिर जैसा चाहे वैसी बात करें।

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सब एक हों
जब प्रेस मालिक अपने हित के लिए एक हो सकते हैं तो पत्रकार क्यों नहीं एकजुट हो सकते? मालिकों की दुश्मनी तभी तक आपस में होती है जब तक एक-दूसरे को व्यवसाय में घाटा उन्हीं के कारण हो रहा हो। लेकिन यदि दोनों के लाभ की बात हो तो वे सब भूलकर एक हो जाते हैं। मजीठिया वेतनमान के हिसाब से ना सिर्फ पत्रकारों को 10 गुना कम वेतन मिल रहा अपितु संपादकों को भी 5 गुना कम वेतन मिल रहा है। ऐसे में एकता की शक्ति, हड़ताल, काम बंद, कोर्ट ही मालिकों को गिड़गिड़ाने पर मजबूर कर सकता है। यह याद रखें कि प्रेस मालिक धमकी देने में बड़े आगे होते हैं लेकिन धंधे में घाटा बिल्कुल पसंद नहीं करते।

माहेश्वरी मिश्रा
वरिष्ठ पत्रकार
[email protected]

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0 Comments

  1. मणिकांत मयंक

    February 24, 2015 at 6:20 pm

    बिल्कुल गलत बात। मैं हिसार का चीफ रिपोर्टर था पर जब मजीठिया के लिए मुंह खोला तो मेरी जगह सोढी को बैठा दिया गया, जो कि सीनियर सब है। और अब*****सौंच वाला गेम चल रहा है। मेरी तनख्वाह कम थी पर फील्ड की दलाली से बात बन जाती थी लेकिन अब क्या करूं। इतने दिनों से तेल लगाकर नौकरी और साहिबी चलाई..काम करने की आदत थी नहीं, तो कुत्तई कैसे छोड़ सकता हूं। मार ले बेटा मुदित जितनी मारनी हो उफ तक नहीं करूंगा आखिर कभी तो दिन बहुरेंगे। इसी उम्मीद के साथ कोर्ट भी नहीं गया।

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