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साहित्य

अभिव्यक्ति की रचनात्मक परंपरा है ‘हस्तलिखित भित्ती पत्र-पत्रिकाएं’

“तुम जो बोलते हो मैं उसका समर्थन कभी नहीं करूंगा लेकिन तुम्हारे बोलने के अधिकार का समर्थन मैं मरते दम तक करूंगा”…. वॉल्टेयर द्वारा कहा गया यह वाक्य एक स्वस्थ समाज में अभिव्यक्ति व विरोध की उपस्थिती की अनिवार्यता को दर्शाता है।

आज जबकि सोशल नेटवर्किंग का दौर है लोगों के हाथों में टैबलेट्स, मोबाईल, गैजेट्स, लैपटॉप सहित अन्य आधुनिक उपकरणों ने संचार की गति को अत्यधिक तीव्रता प्रदान की है। मीडिया कर्न्वजेंस ने आज दैनिक समाचार पत्र  जैसे पारंपरिक मुद्रित माध्यम के किसी भी क्षेत्रीय अंक को भी लोगों के एनराइड सेट्स तक पंहुचा दिया है। मोबाईल में उपलब्ध एफएम व विविध भारती ने रेडियो को स्मृति चिन्ह के रूप में तब्दील कर दिया। माध्यम के साथ अभिव्यक्ति का स्वरूप और भाष बदलने लगी। ऐसे में यदि कोई व्यक्ति या समूह बहुत पुराने परंपरागत माध्यम द्वारा हाथ से लिखकर, पृष्ठसज्जा कर, कार्टून व कैरिकेचर बनाकर शिद्दत के साथ अलग-अलग दीवारों पर जाकर अपने विचारों को अभिव्यक्त करे तो निश्चित ही एक उत्सुकता का विषय बनता है। आखिर ये युवा ऐसा कर क्यों रहें हैं? तमाम अत्याधुनिक संचार माध्यमों को छोड़कर इस प्रकार से विचारों की अभिव्यति का क्या उद्देश्य हो सकता है?

“तुम जो बोलते हो मैं उसका समर्थन कभी नहीं करूंगा लेकिन तुम्हारे बोलने के अधिकार का समर्थन मैं मरते दम तक करूंगा”…. वॉल्टेयर द्वारा कहा गया यह वाक्य एक स्वस्थ समाज में अभिव्यक्ति व विरोध की उपस्थिती की अनिवार्यता को दर्शाता है।

आज जबकि सोशल नेटवर्किंग का दौर है लोगों के हाथों में टैबलेट्स, मोबाईल, गैजेट्स, लैपटॉप सहित अन्य आधुनिक उपकरणों ने संचार की गति को अत्यधिक तीव्रता प्रदान की है। मीडिया कर्न्वजेंस ने आज दैनिक समाचार पत्र  जैसे पारंपरिक मुद्रित माध्यम के किसी भी क्षेत्रीय अंक को भी लोगों के एनराइड सेट्स तक पंहुचा दिया है। मोबाईल में उपलब्ध एफएम व विविध भारती ने रेडियो को स्मृति चिन्ह के रूप में तब्दील कर दिया। माध्यम के साथ अभिव्यक्ति का स्वरूप और भाष बदलने लगी। ऐसे में यदि कोई व्यक्ति या समूह बहुत पुराने परंपरागत माध्यम द्वारा हाथ से लिखकर, पृष्ठसज्जा कर, कार्टून व कैरिकेचर बनाकर शिद्दत के साथ अलग-अलग दीवारों पर जाकर अपने विचारों को अभिव्यक्त करे तो निश्चित ही एक उत्सुकता का विषय बनता है। आखिर ये युवा ऐसा कर क्यों रहें हैं? तमाम अत्याधुनिक संचार माध्यमों को छोड़कर इस प्रकार से विचारों की अभिव्यति का क्या उद्देश्य हो सकता है?

ऐसे तमाम सवाल जेहन में बरबस ही उमड़ पड़तें है जब इलाहाबाद विश्वविद्यालय, पुस्कालय, छात्रावासों सहित तमाम अन्य शैक्षणिक संस्थाओं की दीवारों पर लोगों की नजर जाती है यहां पर कुछ पाक्षिक, मासिक व अन्य समयावधि के पत्र-पत्रिकाएं दिखाईं देतीं हैं। जहां एक बड़ा हिस्सा इनको नजरअंदाज करता हुआ आगे बढ़ जाता है वहीं कुछ लोग अपनी आंखे कुछ देर इस पर टिकाकर कुछ समझते नजर आते हैं। इलाहाबाद में ‘इत्यादि’, ‘संवेग’, ‘प्रतिरोध’, ‘वयम’, ‘प्रवाह’, ‘आरोही’ सहित कुछ अन्य हस्तलिखित भित्ति पत्र-पत्रिकाएं प्रमुख हैं।

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छात्रों के समूह भगत सिंह विचार मंच द्वारा प्रारंभ की गयी ‘संवेग’ राजनैतिक, सामाजिक व शिक्षा पर आधारित एक पत्रिका है। यह कई बार विवादित विषय वस्तु व इनकी प्रतियां फाड़े जाने के कारण चर्चा मे रहती है। वहीं प्रतिरोध स्त्रीयों की दशा-दिशा को बयां करती नजर आती है। ‘इत्यादि’ का प्रथम अंक वर्ष 2001 में आया। प्रवाह एवम आरोही अपनी अभिव्यक्ति अधिकांशतः काव्य रूप में करती है। वयम् इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के छात्रों द्वारा संपादित की जाने वाली एक पत्रिका है।

लोग इन पत्र-पत्रिकाओं के प्रति अलग-अलग प्रकार की धारणा रखते हैं। हिन्दी के प्रवक्ता रामायण राम मानते हैं कि यह एक सकारात्मक कदम है। यह छात्र-छात्राओं सहित तमाम लोगों को अभिव्यक्ति का मंच प्रदान करता है तथा उनकी रचनात्मकता को बढ़ावा देता है। उनका कहना है कि जब वह इलाहाबाद आये थे तब यह गिनी चुनी ही थी परन्तु इनकी संख्या मे उत्तरोत्तर वृद्धी हो रही है जो कि एक अच्छा संकेत कहा जा सकता है। छात्र संदीप का कहना है कि आज के समय में जब लोगों के पास फेसबुक, ट्विटर जैसी सोशल नेटवर्किंग साइट्स व ब्लॉग हैं, ऐसे में इस प्रकार की पत्र-पत्रिकाएं श्रम व समय की बर्बादी ही कही जा सकती हैं क्यों कि ज्यादातर लोग इन्हे रूककर पढ़ने की जहमत नहीं उठाना चाहते हैं।
 
वहीं ‘वयम्’ पत्रिका की संपादिका साक्षी कहती हैं कि जिस प्रकार तमाम न्यूज चैनल्स आने के बावजूद मु़द्रित माध्यमों का महत्व कम नहीं हुआ बल्की समाचार पत्र-पत्रिकाओं की संख्या व पाठक वर्ग मे इज़ाफा हुआ उसी प्रकार से हस्तलिखित भित्ती पत्र-पत्रिकाओं का अपना महत्व बना हुआ है। क्येां कि हम लोग यह कार्य बिना किसी व्यावसायिक लाभ की दृष्टी से एक मिशन के तौर पर करते हैं इसलिए हम पर उनकी तरह सर्कुलेशन व टीआरपी बढ़ाने जैसा दबाव नहीं रहता है। हमारा उद्देश्य तो बस बेबाकी से बिना पहचान छुपाए अपनी बात लोगों तक पंहुचाना है जिसमें हम सफल हो रहें हैं।

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‘संवेग’ की संपादकीय टीम का कहना है कि यह काफी व सृजनशीलता का कार्य होता है। इसकी लंबाई व चौड़ाई एक दैनिक समाचार पत्र के फुल पेज के बराबर होती है। हम लोग इसे हाथ से लिखते हैं तथा शहर इलाहाबाद विश्वविद्यालय के सभी विभागों शहर के सभी शैक्षणिक संस्थाओं, पुस्तकालयों, छात्रावासों व अन्य प्रमुख स्थानेां पर रातभर जागकर चिपकाने जातें हैं। जब हमारे कार्य की सराहना होती है तब हममे नयी ऊर्जा व उत्साह का संचार होता है। जब कुछ अराजक लोग इसकी प्रतियां फाड़ते है या विरोध करते हैं तब भी हमें खुशी होती है क्योंकि इससे हमें पता चलता है कि हमारे कार्य का कहीं न कहीं प्रभाव पड़ रहा है।

दीवारों को प्राक्एतिहासिक काल से ही अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में देखा जाता रहा है। अजंता, एलोरा, एलीफेण्टा, भीमबेटका सहित अनेक स्थानों पर हमें भित्ती चित्र व लेख प्राप्त हुए हैं, सम्राट अशोक के काल की अधिकतर सूचनाएं भी हमें शिलालेखों व भित्ती लेखेां से ही मिली हैं। वर्तमान में दीवारों पर पोस्टर और स्टीकर आदि लगाना यह दर्शाता है कि आज भी दीवारें अभिव्यक्ति के लिए उपयोगी हैं। ऐसे में इन हस्तलिखित भित्ती पत्र-पत्रिकाओं के महत्व को नकारा नहीं जा सकता। हां इसे सफल बनाने के लिए न्यू मीडिया के वर्तमान समय में इनकी विषयवस्तु को प्रभावशाली व पृष्ठसज्जा को सृजनशीलता द्वारा आकर्षक बनाये रखना एक बड़ी चुनौती कही जा सकती है।

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सक्षम द्विवेदी

एमए पत्रकारिता व जनसंचार,
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद।
पता-20 नया कटरा दिलकुशा  पार्क,
इलाहाबाद।

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0 Comments

  1. Anonymous

    June 27, 2014 at 8:20 am

    “तुम जो बोलते हो मैं उसका समर्थन कभी नहीं करूंगा लेकिन तुम्हारे बोलने के अधिकार का समर्थन मैं मरते दम तक करूंगा”
    “I disapprove of what you say, but I will defend to the death your right to say it.”

    This phrase was written by Evelyn Beatrice Hall and not by Voltaire (By mistake this quote is very often attributed to Voltaire). She wrote this phrase in her biography of Voltaire entitled The Friends of Voltaire.

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