Prabhat Dabral : आज के माहौल में जब भी अखबार उठाओ (टीवी चैनल नहीं देखता) तो इमरजेंसी की याद ताज़ा हो जाती है. कई खबरें जो सोशल मीडिया में वाइरल हो रही होती हैं, अख़बारों से नदारद होती हैं. जो सिर्फ अखबार पढ़ते हैं औऱ एनडीटीवी नहीं देखते उन्हें पता ही नहीं चलेगा कि हमारे एक पत्रकार को मैग्सेसे पुरस्कार मिला है, उन्हें ये ज़रूर पता होगा कि स्वामी चिन्मयानद पर एक लड़की रेप का इलज़ाम लगा रही है जो झूठा हो सकता है. इमरजेंसी में ज़्यादातर बड़े अखबार, जिनका बड़ा लक्ष्य पैसा कमाना है ऐसी ही टेढ़ी मेढ़ी ख़बरें देते थे ताकि सरकार की नज़र टेढ़ी न हो – विज्ञापन मिलते रहें. फिर भी कई पत्रकार चुपचाप कुछ न कुछ खेल कर ही देते थे. मगर आज ये पोस्ट ऐसे बहादुर पत्रकारों पर नहीं उन पत्र-पत्रिकाओं पर है जिन्होंने विज्ञापनों की चिंता नहीं की. डट कर खड़े रहे.
इमरजेंसी में इंडियन एक्सप्रेस की जाबांजी का सबको पता है. आज कुछ औऱ ऐसे ही किस्से जिन्हे याद रखा चाहिए.
नेशनल हेराल्ड : कांग्रेस का अखबार था. इसके सम्पादकगण कांग्रेस समर्थक थे, इसलिए इमरजेंसी का भी समर्थन कर रहे थे. लेकिन जब संजय गांधी के नेतृत्व में दिल्ली में एक गैर संवैधानिक सत्ता केंद्र की धमाचौकड़ी शुरू हुयी तो इस अखबार ने झुकने से इंकार कर दिया. यहाँ तक की हेराल्ड औऱ उसके सहयोगी अखबार कौमी आवाज ने वो विज्ञापन तक छापने से इंकार कर दिया जिनमे संजय की तस्वीर लगी हो. नेशनल हेराल्ड के संपादक थे एम् चलपति राव. उन्हें सलाम.
पेट्रियट: वामपंथी रुझान वाला अंग्रेजी दैनिक जिसकी चेयरपर्सन थीं अरुणा आसफअली. कांग्रेस के बहुत करीब थीं. संजय गांधी की ऐसी टेढ़ी नज़र पडी कि उनके विज्ञापन तो बंद हुए ही बैंकों ने भी दबाब बनाकर अरुणा जी की जान आफत में कर दी. अखबार की माली हालत इतनी ख़राब हो गयी कि इमरजेंसी हटने कि बाद भी नहीं सम्भली औऱ अखबार के ही कुछ कलाकार पत्रकारों ने इसे बंद करा दिया.
जनयुग: पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस द्वारा प्रकाशित इस वामपंथी दैनिक को सरकारी विज्ञापन वैसे ही कम मिलते थे जो संजय लगभग बंद करा दिए. और जब इस अखबार ने इमरजेंसी की ज़्यादतियों की ख़बरें छापना बंद नहीं कीं तो हर दूसरे दिन इसकी बिजली कटनी शुरू हो गयी. लेकिन ज़्यादतियों की खबरें छपनी बंद नहीं हुईं. बाद में इमरजेंसी हटने के बाद जब उत्तरप्रदेश की जनता पार्टी की सरकार ने इमरजेंसी की ज़्यादतियों पर एक किताब प्रकाशित की तो उसमे ज़्यादातर खबरें जनयुग की ही थीं. इमरजेंसी की वित्तीय चोट के चलते ये अखबार भी दो -चार साल में दम तोड़ गया.
मेनस्ट्रीम: मूर्धन्य पत्रकार निखिल चक्रवर्ती की ये पत्रिका भी संजय गांधी के गिरोह की धमाचौकड़ी के खिलाफ आवाज़ उठाने के कारण सरकारी कोप का शिकार हुयी. सारे विज्ञापन बंद हो गए. निखिल दा ने इसका प्रकाशन बंद करते हुए अपने सम्पादकीय में लिखा कि “ अभी बेहद सर्द हवायें चल रही हैं. लेकिन बसंत भी दूर नहीं है. और बसंत के पहले प्रस्फुटन के साथ ही मेनस्ट्रीम आपके हाथ में होगा”. ऐसा हुआ भी.
एक एजेंसी थी आईपीए. इसने भी चाकरी करने के स्थान पर ताला लगाना बेहतर समझा. ये सब वो संस्थान थे जो शुरू में इमरजेंसी का समर्थन नहीं तो विरोध तो नहीं ही कर रहे थे. आरएसएस/ जनसंघ से जुड़े अखबार मदरलैंड, ऑर्गनाइज़र वगैरह तो पहले ही दिन बंद कर दिए गए थे. आज जब पत्रकारिता से जुड़े ज़्यादातर संस्थान सत्ता की चाकरी में प्राणप्रण से लगे हैं तो अपन को लगा पुरानी वाली इमरजेंसी को याद कर लेना चाहिए.
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१९७५ में सिक्किम के भारत में विलय के विरोध में यशस्वी संपादक बी जी वर्गीज़ ने हिंदुस्तान टाइम्स में जो सम्पादकीय लिखा था उसकी आख़री दो लाइनें बड़ी दिलचस्प थीं : “और हाँ, देशवासियों अब तुम्हें रोटी मांगने की कतई कोई ज़रुरत नहीं रही, हम तुम्हारे लिए सिक्किम ले आये हैं.”
इस सम्पादकीय के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा जी के दबाब में हिंदुस्तान टाइम्स के मालिक के के बिड़ला ने वर्गीज़ को नौकरी से निकाल दिया था.
इस टिप्पणी को आप अगर बची-खुची ३७० को हटाने के हालिया फैसले से जोड़कर देखना चाहें तो आपकी मर्ज़ी, हमें तो ये टिप्पणी दिलचस्प लगी इसलिए लिख दी. इतना और याद रखियेगा कि सिक्किम के भारत में विलय जैसा अत्यधिक लोकप्रिय कदम उठाकर देशभर में वाहवाही लूटने के बावजूद इंदिरा जी की मुश्किलें दूर नहीं हुईं और विलय के दो माह बाद ही उन्हें अपनी कुर्सी बचाने के लिए इमरजेंसी लगानी पड़ी. इतिहास ने बार बार यही बताया है कि तानाशाहों की लोकप्रियता क्षणभंगुर होती है
कई न्यूज चैनलों-अखबारों के संपादक रहे वरिष्ठ पत्रकार प्रभात डबराल की एफबी वॉल से.
Komal sharma
September 14, 2019 at 6:46 am
डबराल जी इसलिए बोल रहे हैं क्योंकि परिस्थितियां अनुकूल नहीं है, जिस दिन हो जाएगी, मीडिया अपने आप ठीक हो जाएगी, अब जनता समझ चुकी है.