मधुरशील (पत्रकार/लेखक)
कृषि बिल ध्वनि मत से राज्यसभा में पारित होने के बाद भड़ास पर कई विद्वानों के विचार पढ़े।सभी विचारकों ने एक स्वर से पत्रकार और मौजूदा उप सभापति राज्यसभा हरिवंश जी पर निशाना साधा है, इसे संयोग कहा जाए या दुर्योग हरिवंश जी के राज्यसभा जाने के बाद उनसे मेरी मुलाकात नहीं हो पायी और ना बात ही। जबकि मैं रांची में जब ईटीवी का प्रभारी था तब मेरी मुलाकात ,बात रोज होती थी कभी उनके घर या कार्यालय में जाकर या कभी वो आ जाते थे हमारे हिनू वाले कार्यालय में। इस मामले तब मैं भाग्यशाली माना जाता था कि मेरे कार्यालय में उनका आना जाना था।
मुझे उनका स्नेह प्राप्त था. उनके आने का बहाना था ईटीवी बिहार झारखंड पर ‘आमने-सामने’ (साक्षात्कार कार्यक्रम) प्रोग्राम जिसका एंकर बनना उन्होंने स्वीकार किया था। हफ्ते में दो दिन प्रोग्राम की शूटिंग करने के बहाने आते थे। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए यह उनका पहला अनुभव था बावजूद इसके एक दो एपिसोड के बाद उन्हे रिटेक की जरुरत नहीं पड़ी.
ये सिलसिला लम्बे समय तक चलता रहा। आउटडोर कभी हजारीबाग जाकर तत्कालीन केन्द्रीय मंत्री यववंत सिन्हा तो कभी पटना जाकर बिहार के राजनीतिक गैर राजनीतिक हस्तियों का साक्षात्कार चलता रहा। इस प्रसंग का उल्लेख यहां इसलिए कर रहा हूं ताकि उनको समझने में उनका विरोध कर रहे विद्वतजनों को सहूलियत हो।
हरिवंश जी (मैं तो जी लिखूंगा, बारबार लिखूंगा) को मैं तब से जानता हूं जब वो रविवार के सहायक सम्पादक हुआ करते थे। तब परिचय एक तरफा था,मैं उनका पाठक था। मैं उन्हें जानता था, पर वो नहीं जानते थे मुझे। लेकिन रांची पहुंचने के बाद मुझे उनके करीब रहने का अवसर मिला। कई खबरों पर प्रभात खबर और ईटीवी की टीम ने साथ काम किया।
मेरे ही नहीं मेरी टीम के सभी सदस्यों के वो आदर्श बने और आज भी हैं। वैसे तो मुझे कई नामचीन पत्रकारों के साथ काम करने का अवसर मिला पर हरिवंश जी, एनके सिंह जी, गुंजन सिन्हा जी, और प्रभात डबराल जी ये कुछ नाम हैं जो सही मायने मे बदली परिस्थितियों में भी पत्रकार हैं। छवि बेदाग है।
तो हम बात कर रहे थे हरिवंश जी की। धुन के पक्के हैं, जिस काम को करते हैं पूरे मनोयोग से करते हैं, पत्रकारिता की तो उसका लोहा मनवाया।
ईटीवी के लिए जब हमारे साथ एंकरिंग करते तो भूल जाते की किसी समूह के प्रधान संपादक भी हैं। जो भी निर्देश मिलता उसका बखूबी पालन करते। उनके चेहरे पर सदैव मुस्कान होती। शूटिंग के लिए उन्हें पहुंचने में पांच मिनट भी देर होती तो फोन कर बता देते कि “मधुर पांच मिनट देर हो जाउंगा।” जबकि हमलोग घंटे भर लेट होने पर बेशर्मी से कहते हैं इतना तो चलता है. मतलब एक पत्रकार के रुप में जो चरित्र हरिवंश जी ने जिया वो आदर्श है और एक राजनेता के रुप में जो उन्होंने किया वो भी अपने अधिकार क्षेत्र में रहकर किया। विधायी परम्परा और कार्यसंचालन नियमावली के अनुसार किया।
उच्च सदन के माननीय सांसदों ने आसन के समक्ष जाकर जो आचरण प्रस्तुत किया वो संसदीय मर्यादा के अनुकूल है क्या…. कतई नहीं। इसलिए सदन के सभापति उपराष्ट्रपति ने उन सभी आठ सांसदो को निलंबित किया।
अब देखिए क्या है कार्य संचालन नियमावली और सभापति और उपसभापति के अधिकार….
संविधान के अनुच्छेद 89 (2) में इसका प्रावधान किया गया है. अनुच्छेद 91(1) कहता है कि राज्यसभा के सभापति की ग़ैरमौजूदगी में उनकी हर ज़िम्मेदारी उपसभापति निर्वाह करेंगे.
अनुच्छेद 91(2) के अनुसार सदन की कार्यवाही के दौरान अगर सभापति ग़ैरमौजूद हों तो उपसभापति सदन के कामकाज से जुड़े नियमों पर फ़ैसला लेने के अधिकृत हैं.
अनुच्छेद 92(1) कहता है कि अगर सभापति या उपसभापति को पद से हटाने से जुड़ा कोई प्रस्ताव विचाराधीन हो तो वे सदन के कामकाज की अध्यक्षता नहीं करेंगे.
राज्यसभा कार्यसंचालन नियमावली कण्डिका 252 से 254 तक में ‘डिविज़न ‘ के चार अलग-अलग तरीक़ों का प्रावधान है. दो प्रक्रियाओं में सांसदों के मत दर्ज नहीं किए जाते हैं जबकि बाक़ी दो तरीक़ों में किस सांसद ने क्या वोट दिया, ये राज्यसभा के रिकॉर्ड में स्थाई रूप से दर्ज किया जाता है.
पहला तरीक़ा है ध्वनि मत, दूसरा है काउंटिंग, तीसरा है ऑटोमैटिक वोट रिकॉर्डर के ज़रिए मत विभाजन और चौथा तरीक़ा है लॉबी में जाकर पक्ष या विपक्ष में खड़े होना.
कण्डिका252 पहले दो तरीक़ों से जुड़ा हुआ है. किसी मुद्दे या विधेयक पर बहस ख़त्म हो जाने के बाद सदन की अध्यक्षता कर रहे सभापति या उपसभापति या कोई अन्य पीठासीन अधिकारी सांसदों से ये पूछते हैं कि कौन लोग इसके पक्ष में हैं और कौन विपक्ष में और इसके आधार पर सभापति अपना फ़ैसला सुनाते हैं. काउंटिंग के ज़रिए मत विभाजन का फ़ैसला पूरी तरह से सभापति के विवेक पर निर्भर करता है.
कण्डिका253 और कण्डिका 254 के अनुसार सभापति चाहें तो ऑटोमैटिक वोट रिकॉर्डर या फिर सांसदों को लॉबी में खड़ा करके उनके वोट रिकॉर्ड कर सकते हैं. कृषि विधेयक के मुद्दे पर सांसदों की माँग मत विभाजन की थी जिसे अनसुना कर दिया गया. ऐसे में ये सवाल उठता है कि क्या सभापति सांसदों की माँग मानने के लिए बाध्य हैं?
सांसदों की माँग मानने के लिए सभापति बाध्य नहीं हैं. सदन के कामकाज से जुड़े नियम उनके विशेषाधिकार के तहत आते हैं। प्रायः देखा गया है कि महत्वपूर्ण मुद्दों और विधेयकों पर ध्वनि मत से सदन का फ़ैसला सामने आता है और सांसद जब मत विभाजन की माँग करते हैं तो सभापति को इस पर फ़ैसला करना होता है.
विधायी कार्यों के जानकार प्रोफेसर चंचल कुमार सिंह की माने तो (चंचल जी की ये प्रतिक्रिया इस मामले के सुर्खियों में आने के बाद कई समाचार माध्यमों में आयी है) ज्यादातर मौक़ों पर मत विभाजन की माँग करते हैं. विपक्षी ख़ेमे में भले ही चंद लोग हैं लेकिन फिर भी वे मत विभाजन की माँग करते हैं. सदन के कामकाज से जुड़े नियमों में इस बारे में कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है कि किस मुद्दे पर मत विभाजन कराया जाएगा और किस पर नहीं.”
संविधान का अनुच्छेद 121 कहता है कि संसद में महाभियोग के प्रस्ताव को छोड़कर किसी हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के जज के कामकाज पर कोई चर्चा नहीं होगी. इसके साथ ही अनुच्छेद 122 में ये प्रावधान है कि संसद के कामकाज की वैधता को प्रक्रियाओं की कथित अनियमितताओं के आधार पर अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती है। कई मामलो को कोर्ट में लाया भी जा सकता है।
अब जबकि ध्वनिमत से किसी भी बिल विधेयक को पारित कराना सभापति और उप सभापति के अधिकार क्षेत्र में है, कार्यसंचालन नियमावली के अनुरुप है फिर हाय तौबा क्यों, हंगामा है क्यों बरपा.
तो भाई साहब सदन की गरिमा, मर्यादा ताक पर रख कर जिन माननीयों ने आसन के सामने आकर जो आचरण किया उसपर कोई बोल ही नहीं रहा, बस एक ही रट हरिवंश जी अब वो वाले हरिवंश जी नहीं रहे।
आप सदन की मर्यादा तार तार कर दो और सदन को चलाने वाले को डराने का काम करो तो ठीक और कोई संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों का अनुपालन करे तो बुरा। यही लोकतंत्र है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सबको है, तो मैं भी लगे हाथ थोड़ी देर के लिए स्वतंत्र हो लिया और भावना व्यक्त कर दिया।
Shailendra
September 23, 2020 at 4:40 pm
अब जबकि ध्वनिमत से किसी भी बिल विधेयक को पारित कराना सभापति और उप सभापति के अधिकार क्षेत्र में है, कार्यसंचालन नियमावली के अनुरुप है फिर हाय तौबा इसलिए है की उस वक़्त राज्यसभा टीवी की ध्वनि बंद कर दी गयी थी। तो बाहर वालो को पता कैसे चलेगा की विधेयक के पक्ष में ध्वनि अधिक थी या विपक्ष में। इतना कानून का ज्ञान आप दे दिए तो अब थोड़ा “राज्य के निति निर्देशक तत्त्व” भी पढ़ लीजिये। अपने अधिकार क्षेत्र में सारे राज्यपाल भी काम करते है फिर भी बार बार बहुमत साबित करने का मुद्दा सुप्रीम कोर्ट क्यों चला जाता है। और कोर्ट ने हमेशा फ्लोर टेस्ट के निर्देश भी दिए है जो राज्यपाल के निर्देशों से अलग रहे है चाहे वो कर्नाटक हो या महाराष्ट्र।
Dharmveer
September 23, 2020 at 9:34 pm
मधुरशील जी ने ज्ञान अपनी जेब से नहीं दिया है महोदय। संसद के दोनों सदन लोकसभा राज्य सभा को चलाने के लिए कार्यसंचालन नियमावली हमारे संविधान विशेषज्ञों द्वारा बनाई गई है। सदन के सदस्यों को यह छुट नहीं है कि सभापति ,उपसभापति ,अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के सामने जाकर अमर्यादित आचरण करे।और विधेयक की प्रति फाड़े।
रह गयी बात कोर्ट जाने की तो रोका किसने है,जाइए…. विधायिका और न्यायपालिका की सीमाओं को लेकर विवाद गहराते रहे हैं….
खुरपेंची
September 24, 2020 at 2:10 pm
वाह रे चाटुकारिता। हरिवंशव के हाथ में नहीं है कि आपको राज्यसभा का सदस्य बनवा देंगे। इसके लिए आपको मोदी-शाह की तेल-मालिश करनी पड़ेगी। एन के सिंह को भी अच्छे से जानता हूँ। साधना चैनल का हेड रहते रमन सिंह के पीआर की तरह काम करते रहे। मेरे पास प्रमाण है।