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सांसद बनने के बाद हरिवंशजी ने क्या किया?

Nirala Bidesia : सांसद हरिवंशजी को आप कितना जानते हैं? परसो जब एनडीए की ओर से हरिवंशजी को राज्यसभा के उपसभापति का उम्मीदवार बनाने की घोषणा हुई तो कुछ साथियों के सवाल थे कि उन्होंने सांसद रहते किया क्या है? यह पोस्ट उनके लिए ही है. इसका प्रतिप्रश्न यह है कि सांसद बनने के बाद कभी हरिवंशजी से मुलाकात हुई है आपकी? बतौर सांसद काम क्या किया है उन्होंने, इसके जवाब पर आने से पहले एक छोटी—सी दूसरी बात कर लेते हैं.

राज्यसभा सांसद बनने के बाद अगर कभी बात-मुलाकात हुई होती आपके आधे सवाल खत्म हो गये होते. एक विधायक को देखे हैं? विधायक छोड़िए न, आयोग वगैरह का अध्यक्ष बनने के बाद किसी नेता को देखे हैं. आगे-पीछे कितने बॉडीगार्ड चाहिए होते हैं उन्हें? कितनी सुविधाएं चाहिए होती है? अचानक से कितना परिवर्तन आता है? अगर सांसद बनने के बाद हरिवंश से कभी मिले होंगे तो जानते होंगे कि जैसे प्रभात खबर में प्रधान संपादक रहते हुए हरिवंश थे, वैसे ही सांसद बनने के बाद हैं. वही गाड़ी, वही ड्राइवर, वही लोग. उसी तरह से घर में जाने पर खुद से नाश्ता-पानी कराना. उसी तरह से उनकी पत्नी का खुद सब्जी खरीदने जाना. उसी तरह से हरिवंशजी का खुद पैदल जाकर सैलून में दाढ़ी बनवाना. पटना जाने पर किराये के टैक्सीवाले को फोन कर बुलाना, उसकी सेवा लेना. इकोनॉमी क्लास से चलना.

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पहले की तरह ही अपने गांव में नेवता-हकारी पूरा करने जाने पर चार-चार दिन बेतहाशा गर्मी में रहना, अपनी सुविधा के लिए छपरा या बलिया के सर्किट हाउस में नहीं चले जाना. उसी तरह से लोगों को फोन करना. कोई बॉडीगार्ड नहीं. सिर्फ अंशकालिक बॉडीगार्ड, जिसकी सेवा भी महीने में अधिक से अधिक दो-चार दिन लेते होंगे या वह भी नहीं. वह भी तब, जब सड़क मार्ग से कहीं दूर जाना हो तो आगे ड्राइवर प्रकाश के साथ बैठने के लिए. सांसद बनने के बाद एक पीए की दरकार थी. उनकी ओर से बात आयी कि कोई भी एक युवा साथी, जो तकनीक फ्रेंडली हो, जिसकी भाषा अच्छी हो, जिसके लिखने-पढ़ने में रुचि हो. कोई हो, कहीं को हो, बस शर्त इतनी ही हो कि उसकी समझदारी हो.

हरिवंश

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आजकल सांसद अपने ही बाल—बच्चों को, रिश्तेदारों को पीए बनाकर पैसा घर में रखते हैं. एक प्रसंग सुनाता हूं. यह पहले भी साझा किया था. सांसद बनने के बाद एक बार बनारस गये. सबेरे उनकी इच्छा हुई कि विश्वनाथ मंदिर जायेंगे. वे चाहते तो आसानी से एसपी वगैरह को फोन करवाते, सारा इंतजाम हो जाता. उन्होंने मुझसे पूछा कि कोई है क्या निराला परिचित उधर, ज्यादा कोई सुविधा तो नहीं चाहिए बस, अगर बहुत लंबी लाइन होगी तो सिर्फ दरवाजे तक जाकर दर्शन कर के निकल जायेंगे, ट्रेन पकड़ लेंगे. मैंने कहा कि बात कर लेते हैं एसपी से. उनका कहना था कि नहीं क्या एसपी वगैरह को फोन करोगे, झूठमूठ का प्रोटोकॉल का चक्कर होगा, कोई निजी हो तो देख लो नहीं तो कोई बात नहीं. अपने साथी उत्पल को फोन किया, उत्पल लेकर गये, दर्शन करवायें, लौट गयें. बनारस से लौटते हुए भभुआ—चांद के एक गांव में गाड़ी मुड़वा दिये. वहां उनका फुफुहारा है. गाड़ी पहुंची. गाड़ी से उतरे. गांव के एक चरवाहा ने देखा. नंगे बदन गमछी पहन भैंस लेकर जाते हुए. वह रास्ता में जाते हुए हरिवंशजी के पीछे चुपके से आकर अपनी हाथों से आंख को बंद कर दिया. बुझौनी की तरह पूछने लगा कि बतावअ के हईं?

कुछ देर तक हरिवंशजी हाथ पकड़ समझने की कोशिश करते रहे और फिर नाम बता दिये. वह हाथ हटा लिया आंख से, खुश हो गया. बोलने लगा कि मरदे तु तो 30 साल बाद हाथ छू के, आवाज से पहचान लेलअ. का तो सांसद बन गईल बाड़अ. इस प्रसंग को बताने का मतलब यह नहीं कि उनके कामों में यह गिना रहा हूं. कामों पर आता हूं लेकिन यह एक प्रसंग इसलिए बताया कि अब के समय में नेता बनकर, सांसद बनकर इतना साधारण बने रहना, आम आदमी की तरह ही बिना डर—भय के रहना, आम आदमी की तरह ही कतार में लगने का अभ्यास बनाये रखना अपने आप में एक काम होता है. ना उम्मीदी के दौर से गुजर रहे राजनीति में एक उम्मीद जगाता है. कुछ कुतर्क करेंगे कि यह सब तो दिखाने के लिए होता है. दिखाने के लिए होता तो वे भी एक सोशल मीडिया मैनेजर रखते और ऐसी चीजों की तसवीर डालते. सांसद बनने के बाद सबसे पहले अपनी पूरी संपत्ति सार्वजनिक किये. अखबार में छापकर. यह तो एक प्रसंग था. ऐसे अनेकानेक प्रसंग हैं राज्यसभा सांसद बनने के बाद से.

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छोटी—छोटी बातें, जिसके मायने बड़े होते हैं, वरना आजकल तो किसी समीति का सदस्य बनने के बाद ही अकड़, पैंतरा सब घंटों में बदल जाता है. अब आते हैं काम पर. काम का पूरा ब्यौरा यहां नहीं दिया जा सकता. संसद में उनकी बात, उनकी उपस्थिति, उनके लिखित सवाल, मौखिक सवाल आदि का ब्यौरा यहां नहीं दिया जा सकता. लंबा हो जाएगा. दो—तीन समितियों के सदस्य हैं, उन समितियों के लिए किये गये उनके काम, उनकी बैठक में नियमित उपस्थि​ति, उसके लिए प्वाइंटवाइज लगातार रिपोर्ट बनाना, उसे भेजना, अपने सुझाव को बिंदुवार देना. एक सांसद के तौर पर जब उनको गांव का चयन करना था तो उनकी पहली शर्त थी कि अपने रिश्तेदारों का, करीबियों का गांव तो नहीं ही चाहिए, एकदम से ऐसा गांव चाहिए, जिसे वे नहीं जानते. जिसका दूर—दूर तक उनसे लेना—देना नहीं हो. ऐसी जगह हो, जहां से उनका भविष्य में भी कोई राजनीतिक मतलब नहीं हो.

पहली पसंद बोधगया के इलाके में किसी गांव की थी. सुजाता के गावं बकरौर पर बात हुई लेकिन उसे हरि मांझी पहले से चय​नित किये हुए थे. फिर ऐसे ही एक दिन बात निकल गयी भवानी दयाल संन्यासी की. गांधी के अनन्य लोग. दक्षिण अफ्रीका के अप्रवासी जो बाद में आकर अपने गांव में ही रहे और गांव में अपने समय में अनेकानेक प्रयोग किये. कृषि स्कूल खोलने से लेकर तमाम तरह के प्रयोग. संन्यासीजी के गांव का चयन हुआ. संन्यासीजी के बारे में पढ़ने के बाद उन्होंने तय किया. सासाराम संसदीय क्षेत्र में आता है यह इलाका जो आरक्षित संसदीय सीट है. उसके बाद सांसद फंड की बात रही तो यह बहुत पहले से तय था कि हरिवंशजी संसदीय फंड से कोई नली—गली नहीं बनवायेंगे. मुखिया से लेकर मुख्यमंत्री तक नली-गली ही बनवा रहे हों तो कुछ लोगों को दूसरे काम भी करने चाहिए.

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सांसद बनते ही इन्होंने तय किया कि सारे फंड का उपयोग किसी संस्थान को खड़ा करने में करेंगे, नये तरीके का संस्थान. उन्होंने अपने फंड को बिहार में दो स्ंस्थानों की स्थापना के लिए बिहार सरकार को दे दिया. एक आर्यभट्ट विश्वविद्यालय में नदी अध्ययन सह संधान केंद्र और दूसरा आईआईटी पटना में इनडेंजर्ड लैंग्वेज सेंटर का विकास. बिहार में नदियां वरदान भी है, अभिशाप भी. नदी को लेकर देश में ही कोई बेहतर केंद्र नहीं है, बिहार में तो अब तक नहीं ही था. नदियों का वैज्ञानिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक अध्ययन हो, उससे संबंधित पढ़ाई हो इसके लिए वह केंद्र खुल रहा है. यह अलग बात है कि इस बात का ना तो ढिंढोरा हरिवंशजी ने पीटा और ना ही ​मीडिया में इसे बताया गया.

बातें अभी और भी है. विस्तार से बात होगी. फिलहाल तो यह पहला पोस्ट उनकी जिज्ञासा को शांत करने के लिए, जिन्होंने पूछा था कि सांसद बनने के बाद हरिवंशजी ने क्या किया?

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बिहार के वरिष्ठ पत्रकार और रंगकर्मी निराला बिदेसिया की एफबी वॉल से.


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1 Comment

1 Comment

  1. पदम पति शर्मा

    August 9, 2018 at 12:51 pm

    बस एक ही नयी बात हुई कि राजनीति मे आने के बाद हमारे पत्रकार साथी हरिबंश अब हरिबंश नारायण सिह हो गये. गुप्ता हो गये आशुतोष तो सिह हो गये चंचल. यह जातिवाद राजनीति का अभिशाप ही है.
    खैर मै हरिबंश भाई को जितना जानता हू सूफी पत्रकारिता के सिरमौर है और वही उनके अखबार प्रभात खबर मे भी प्रतिबिम्बित होता भी था. इस अखबार मे मुझे कभी कभार जब भी लिखने का मौका मिला हमेशा गौरव बोध हुआ.
    केजरी एण्ड कंपनी को सीखना चाहिए हरिबंश भाई से कि शुचिता की राजनीति क्या होती है. आभार निराला जी कि आपने उन पर लिखा

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