राहुल देव : बेटी के जन्मदिन पर अंग्रेजी में लिखना कई मित्रों को अखरा है। अधिकांश को अगर बुरा नहीं लगा तो कम से कम आश्चर्य तो जरूर हुआ होगा। हालांकि वात्सल्य की भाषा पर सफाई देना कोई जरूरी नहीं किंतु चूंकि मैं स्वयं बहुत हिंदी-हिंदी करता हूं और अनावश्यक अंग्रेजी पर दूसरों को टोकता हूं तो स्पष्टीकरण बनता है।
बात यह है कि द्विभाषी हूं। अंग्रेजी से इश्क जैसा लगाव है। हिन्दी, अंग्रेजी दोनों में सोचता हूं और जहां जरूरत लगती है वहां अंग्रेजी में बात करता हूं, लिखता हूं। कई बार सघन अनुभूति के क्षण में विचार प्रवाह जिस भाषा में चल पड़ता है उसको बीच में रोक कर अपनी दूसरी भाषा में करना शायद उतना जरूरी नहीं जितना उस क्षण और भाव में, अनुभूति में बह रहे मन को निर्बाध बहते जाने देना। ज़ाहिर है उसकी अभिव्यक्ति को भी।
हिन्दी अपना जीवन है, भारतीय भाषाओं के बारे में चिन्ता और चिन्तन अपना जुनून। इसके साथ ही अंग्रेजी पढ़ना-लिखना-बरतना और उससे लगाव मुझे कतई विरोधाभासी नहीं लगता। किसी भी एक भाषा के सौंदर्य और सामर्थ्य से सघन परिचय हमें हर दूसरी भाषा में ये गुण देखने पहचानने की क्षमता देता है। हर भाषा सुंदर है।
अपनी लड़ाई अंग्रेजी से नहीं भारत में अंग्रेजी के आधिपत्य और वर्चस्व से है जो सारी भारतीय भाषा के अस्तित्व, गरिमा, प्रतिष्ठा और भविष्य के लिए खतरा बना हुआ है। सच्चाई तो यह है कि भाषा के बारे में अगर अंग्रेजी में न पढ़ा होता, अंग्रेजी में भाषा पर किए गए अपार लेखन और विमर्श से परिचय न होता तो हिंदी और भारतीय भाषाओं के बारे में उस तरह से सोचने और उनको देखने की क्षमता विकसित नहीं होती जैसी हो सकी है।
तो जिस भाषा से आपको ज्ञान, समझ और दृष्टि मिली हो, नए परिप्रेक्ष्य मिले हों उसमें सहज अभिव्यक्ति करना उतना असहज और असाधारण नहीं है जितना शायद एकभाषी लोगों को लग सकता है। आपत्तिजनक तो बिल्कुल ही नहीं।
वरिष्ठ पत्रकार राहुल देव की एफबी वॉल से.
कुछ प्रतिक्रियाएं देखें-
Udbhrant Sharma : बढ़िया। मगर जब आप अपने किसी मित्र को आकस्मिक रूप से अंग्रेज़ी का कोई शब्द मुँह से निकल जाने पर टोकते हैं तो क्यों नहीं सोचते कि उसका दोनों भाषाओं व साहित्य का अध्ययन होने के कारण आप जैसी ही मनःस्थिति हुई होगी?
Dayanand Pandey : वैसे भी आप अंगरेजी के आदमी हैं, यह बात शायद लोग नहीं जानते। मुझे याद है कि लखनऊ में आप पायनियर में ही थे, स्वतंत्र भारत में नहीं। फिर भी हिंदी के प्रति आप का अनुराग चिर-परिचित है। भाषाएं वैसे भी आपस में बहने हैं। नदियों की तरह आपस में मिलती हुई ही बड़ी होती हैं। हिंदी, उर्दू, अंगरेजी आदि का विवाद व्यर्थ है। भाषा भी रूचि का विषय है। रजनीश पहले हिंदी में प्रवचन देते थे। पर जब उन के क्लाइंट अंगरेजी वाले हो गए तो अंगरेजी में प्रवचन देने लगे। स्पष्ट है कि बेटी अंगरेजी के ज़्यादा करीब होगी तो आप ने अंगरेजी में लिखा। स्वाभाविक बात है।
Praveen Kumar : दोगला चरित्र हम भारतीयों का सबसे ख़ास गुण है। आप कोई अपवाद नहीं हैं। हमारा तथ्य व सत्य में उतना भरोसा नहीं है जितना ढोंग व पाखंड में है। यह मुल्क सैंकड़ों साल यूँ तो ग़ुलाम नहीं रहा। कुछ तो ख़ास बात होगी हमारे पूर्वजों में? वही ख़ास बात हममें है। नया क्या है यहाँ? सब वही सड़ी-गली सोच है। इस सोच के चलते ही हिंदी आज दोयम दर्जे की भाषा बन कर रह गई है।
Hasan Jawed : अपनी बात है। जैसे मनवाना चाहें। मान लेते हैं। वैसे पोस्ट पढ़ कर मुझे भी ख्याल आया था, हिंदी में खाने वाले अंग्रेजी में हवा छोड़ते हैं। ये सर्वविदित है
Sanjaya Kumar Singh : मैंने पढ़ा था और यही माना कि बिटिया के लिए लिखा गया है और उस भाषा में है जो उसके लिए आसान है। आपके हिंदी-हिंदी करने का संबंध इससे नहीं होना चाहिए। मैं भाषण अंग्रेजी में नहीं देता (दूंगा) पर जिसे हिन्दी आती ही नहीं है उससे संवाद करना हो (किसी कारण से) तो अंग्रेजी में कर लूंगा (आखिर अंग्रेजी आती या सीखी किसलिए है)।
Alok Joshi : न जाने क्यों, मगर ये जो लंबी सफाई आपने यहाँ लिखकर दी है, वो अंग्रेज़ी की लंबी पोस्ट देखने के तुरंत बाद स्वत: ही मेरे मन में आ गई थी, क़रीब क़रीब ऐसी ही।