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सुख-दुख

हिंदी का संपादक एक रोता हुआ जीव है, जिसके जीवन का लक्ष्य अपनी नौकरी बचाना है

भारत यूरोप नहीं है, अमेरिका भी नहीं है. यहां अखबार अभी भी बढ़ रहे हैं, और यह सिलसिला रुक जाए, इसका फिलहाल कोई कारण नहीं है. इंटरनेट पर हिंदी आई ही है और अगर सब कुछ ठीक रहा तो भारत में इंटरनेट हर मुट्ठी तक नहीं भी तो ज्यादातर मुट्ठियों तक पहुंच ही जाएगा और साथ में हिंदी भी इसकी सवारी करेगी. टीवी भी भारत में बढ़ता मीडियम है. और फिर यह टेक्नोलॉजी का बाजार है. यहां कारज धीरे होत है टाइप कुछ नहीं होता. अगर सारे कोऑर्डिनेट्स सही हैं, तो एक का सौ और सौ का लाख होने में समय नहीं लगता. कुल मिलाकर प्रिंट, टीवी और वेब पर न्यूज मीडियम की हालत ठीक है. बढ़ता बाजार है. मांग बनी हुई है. समस्या बाजार में नहीं है. 

भारत यूरोप नहीं है, अमेरिका भी नहीं है. यहां अखबार अभी भी बढ़ रहे हैं, और यह सिलसिला रुक जाए, इसका फिलहाल कोई कारण नहीं है. इंटरनेट पर हिंदी आई ही है और अगर सब कुछ ठीक रहा तो भारत में इंटरनेट हर मुट्ठी तक नहीं भी तो ज्यादातर मुट्ठियों तक पहुंच ही जाएगा और साथ में हिंदी भी इसकी सवारी करेगी. टीवी भी भारत में बढ़ता मीडियम है. और फिर यह टेक्नोलॉजी का बाजार है. यहां कारज धीरे होत है टाइप कुछ नहीं होता. अगर सारे कोऑर्डिनेट्स सही हैं, तो एक का सौ और सौ का लाख होने में समय नहीं लगता. कुल मिलाकर प्रिंट, टीवी और वेब पर न्यूज मीडियम की हालत ठीक है. बढ़ता बाजार है. मांग बनी हुई है. समस्या बाजार में नहीं है. 

तो फिर हिंदी का संपादक आज ढंग का प्रोडक्ट क्यों नहीं दे पा रहा है? इंग्लिश के मीडिया प्रोडक्ट के सामने उसका प्रोडक्ट निस्तेज क्यों है? रेवेन्यू मॉडल कमजोर क्यों है? संपादक मीडिया मालिकों से यह क्यों नहीं कह पा रहा है कि मैं जागरण या भास्कर या अमर उजाला या हिंदुस्तान को देश का सबसे असरदार अखबार बना दूंगा. हिंदी का कोई संपादक यह क्लेम क्यों नहीं करता कि हमारे पास सबसे ज्यादा खबरें और सबसे ज्यादा तस्वीरें हैं और सबसे सघन स्ट्रिंगर नेटवर्क है, इसलिए मैं इंटरनेट पर अपने ब्रांड को टाइम्स ऑफ इंडिया से बड़ा और पॉपुलर न्यूज ब्रांड बना दूंगा? कॉमस्कोर पर टाइम्स ऑफ इंडिया से आगे जाने का सपना देखने में वह डरता क्यों है? हिंदी के टीवी चैनल देखकर ऐसा क्यों लगता है कि उन्हें संपादक और पत्रकार नहीं, जोकरों और विदूषकों की टोली चला रही है. इनमें से किसी को भी हिंदी के पाठक की समझदारी का भरोसा क्यों नहीं है? खबरों के नाम पर भंड़ैती और तमाशा हावी क्यों है?  कोई संपादक मालिक को यह क्यों नहीं कह रहा है कि मैं ‘समाचार’ दिखाकर आपको नंबर दूंगा.

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हाल की हिंदी फिल्मों में पत्रकार को अगर लगातार जोकर और मूर्ख की तरह दर्शाया जा रहा है, तो यह किसके प्रताप से हुआ है? पत्रकार समाज में अगर अब प्रतिष्ठित आदमी नहीं रहा, और पत्रकारिता अगर प्रतिष्ठित पेशा नहीं है, तो इसका जिम्मेदार कौन है? क्या कोई सब-एडिटर या रिपोर्टर या ट्रेनी?

वैसे क्या है हिंदी का संपादक? वह करता क्या है और क्यों करता है? दरअसल, वह एक रोता हुआ भयभीत प्राणी है, जिसे अपने काम और अपनी क्षमता और हुनर के अलावा, हर चीज से शिकायत है. वह बस किसी तरह अखबार या चैनल या साइट चलाता रहेगा. कभी कभार मैनेजमेंट के कहने पर कुछ लॉन्च कर देगा. हमेशा कम लोगों के होने और टैलेंटेड मैनपावर की कमी का रोना रोएगा. कभी कहेगा कि मालिक करने नहीं देता. जबकि मालिक बेचारा इंतजार कर रहा है कि संपादक कोई अच्छा आइडिया लेकर तो आए.

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हिंदी का संपादक कभी भी नए प्रयोग नहीं करेगा. नए रेवेन्यू स्ट्रीम खोलने की बात भी नहीं करेगा. कहेगा कि यह तो मैनेजरों का काम है. जबकि उसके दब्बूपने की असली वजह यह है कि वह डरता है. कुछ गलत हो गया तो? नौकरी चली गई तो? वह हमेशा अपनी और प्रोडक्ट की कमियों के लिए नीचे के किसी को या कई लोगों को दोषी ठहराकर अपनी पोजिशन बचाने के लिए तत्पर नजर आएगा. वह गैर-पत्रकारीय तरीके से मालिकों के लिए उपयोगी बनकर या चापलूसी करके नौकरी बचाने की कोशिश करेगा. 

वह हमेशा अपना गिरोह बनाने की कोशिश करेगा. संपादकी के पहले छह महीने मालिक को यह कहेगा कि पुराने लोगों से काम ले कर देखते हैं. फिर कहेगा, इनसे काम नहीं बनेगा. छह महीने-एक साल में पुराने के बदले नए लोग लाएगा. अपनी जाति, रिश्तेदारी, इलाके से लोग लाएगा. फिर उन्हें काम करने का मौका देने के नाम पर साल दो साल निकालेगा और फिर भी बात नहीं बनी तो और प्रपंच करके टिकने की कोशिश करेगा या निकाला जाएगा. वह बी है इसलिए सी कटेगरी के लोगों को लाएगा. क्योंकि वह खुद ए नहीं है, इसलिए ए प्लस को कभी नहीं लाएगा. एवरेज टैलेंट वालों के बीच वह खुद को आश्वस्त महसूस करेगा. उसके रोजमर्रा के जीवन में मिलने वाले 90 फीसदी से ज्यादा लोग पत्रकार ही होंगे, जिनके बीच वह खुद को अच्छा फील करेगा. वह रेवेन्यू बढ़ाने की नहीं, खर्चा घटाने की सोचेगा. टॉप लाइन ठीक किए बगैर, बॉटम लाइन सुधारने के लिए कभी रिपोर्टिंग का खर्चा घटाएगा, तो कभी मैनपावर कट करेगा, तो कभी सुविधाओं में कटोती करेगा, तो कभी लोगों की सैलरी घटाएगा.

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जब मालिक व्यूअरशिप और रीडरशिप के लिए दबाव बढ़ाएगा, तो प्रोडक्ट में गंदगी फैला देगा. वेबसाइट है तो पोर्न और सेमीपोर्न परोस देगा. चटपटे के नाम पर कूड़ा बिखेर देगा. टीवी पर है तो नागिन का बदला और कातिल हसीना टाइप कुछ कर लेगा या स्वर्ग के लिए सीढी लगा देगा. लाफ्टर चैलेंज के शॉर्ट कट में घुस जाएगा. न्यूज के नाम पर तमाशा करने लगेगा. जब इस वजह से प्रोडक्ट की ब्रांडिंग खराब होगी और विज्ञापन का रेवेन्यू प्रभावित होगा, तो अपना हाथ झाड़कर खड़ा हो जाएगा.

हिंदी का संपादक बौद्धिक आलस्य करेगा, अच्छा केंटेंट नहीं जुटाएगा और कहेगा कि हिंदी का रीडर और व्यूअर तो कोई अच्छी चीज पसंद ही नहीं करता. अपने बौद्धिक आलस्य का ठीकरा वह अंग्रेजी वर्चस्व के सिर पर फोड़ देगा. कहेगा कि सारी गड़बड़ी इसलिए है क्योंकि अंग्रेजी हावी है.

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हिंदी का संपादक अपना स्किल सेट बेहतर करने की कोशिश नहीं करेगा. वह अपनी क्षमताओं को ब्रांच आउट नहीं करेगा. अगर वह नौकरी पर नहीं होगा, तो फिर कुछ भी नहीं रह जाएगा और मर जाएगा. वह पढ़ाई नहीं करेगा. रिसर्च नहीं करेगा. विज्ञापन की कॉपी लिखने की तमीज नहीं सिखेगा. वह पढ़ाने का हुनर नहीं सिखेगा. वह यूजीसी-नेट और पीएचडी के बारे में सोचेगा तक नहीं. वह सीरियल की स्क्रिप्ट या किताब लिखने को कोशिश नहीं करेगा. अनुवाद करना उसके वश में नहीं है, और इसे सीखने की कोशिश भी नहीं करेगा. डॉक्यूमेंट्री बनाना भी ऐसा ही मामला है, जिससे जाहिर है उसका कोई वास्ता नहीं होगा. इंग्लिश के कई संपादकों की तरह कॉरपोरेट कम्यूनिकेशन में जाने का हुनर भी हासिल नहीं करेगा. प्रिंट में है तो प्रिंट में और टीवी पर है तो टीवी में ही उलझा रहेगा. दूसरे मीडियम में हाथ आजमाने का जोखिम नहीं लेगा. भाषा के मामले में भी हिंदी से शुरू और हिंदी में खत्म की स्थिति में रहेगा. वह टीम को ट्रेनिंग दिए जाने और खुद ट्रेनिंग लेने, दोनों का विरोध करेगा. पान-दुकानदार की तरह हर चीज पर उसकी एक राय जरूर होगी लेकिन वह देश-दुनिया के किसी भी विषय का एक्सपर्ट नहीं होगा.

दूसरे विषय का एक्सपर्ट होना तो छोड़िए, हिंदी का संपादक अक्सर अपने प्रोफेशन की बुनियादी बातों से भी अनजान होगा. मिसाल के तौर पर, उसे नहीं मालूम होगा कि उसके काम की संवैधानिक, कानूनी और नियम संबंधी मर्यादाएं क्या हैं. वह कॉन्स्टिट्यूशनल लॉ, आईपीसी, लॉ ऑफ डिफेमेशन, रूल्स ऑफ पार्लियामेंट्री प्रिविलेज, आईटी एक्ट, केबल एक्ट, प्रेस कौंसिल के मीडिया नॉर्म इनमें से किसी भी बात का जानकार नहीं होगा और न ही अपनी टीम को इनकी ट्रेनिंग दिए जाने की व्यवस्था करेगा. इसके लिए कोई वर्कशॉप आयोजित करना उसकी कल्पना से बाहर की चीज होगी. संपादन संबंधी गलतियों को वह आसानी से विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता करार दे सकता है. कानूनी झमेले में कभी मामला फंसा, तो किसी रिपोर्टर या डेस्क के किसी कर्मचारी के नाम उसका दोष मढ़कर वह खुद को बचा लेने की कोशिश करेगा. या फिर मामले को मैनेज करने में जुट जाएगा. रिपोर्टर या डेस्क जो कुछ अच्छा करेगा, उसका श्रेय संपादक ले लेगा, लेकिन गलती उसकी कभी नहीं होगी. उसने न कभी कोई गलती की है, न कोई गलती करेगा.  

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वह जब तक संपादक है, तब तक है, और जब वह नौकरी में नहीं है, तो कुछ नहीं है. वह संपादक के अलावा कुछ नहीं है क्योंकि उसने कुछ और सीखने की कभी कोई कोशिश की ही नहीं है.  

तो क्या हमेशा ऐसा ही रहेगा? इस स्थिति को बदलने के दो उपाय हैं, जिसके बारे में मीडिया मालिकों को सोचना चाहिए. अगर वे चाहते हैं कि संपादक प्रयोग करें, नया सोचें, प्रोडक्ट के लिए वैल्यू क्रिएट करें, नए रेवेन्यू मॉडल बनाएं, तो पहले तो उन लोगों से बचें, जिनके लिए पत्रकारिता का मतलब सिर्फ आलेख लिखना, मंत्री के साथ दौरे करना और गिरोहबाजी-गोष्ठीबाजी करना है. संपादकों का कंपनी के राजस्व से, रेवेन्यू मॉडल से, सर्कूलेशन और व्यूअरशिप से तथा प्रोडक्ट के प्रभाव से…इन सबसे वास्ता है. एवरेज और मंदबुद्धि संपादकों को रास्ता दिखाना जरूरी है. मैनेजमेंट को संपादकों के टार्गेट फिक्स करने चाहिए और ये टार्गेट आलेख-विश्लेषण लिखने या चेहरा पोतकर एंकरिंग करने से आगे और चीजों के बारे में भी होने चाहिए. 

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दूसरा उपाय, संपादकों की सैलरी इतनी बढ़ाई जाए कि अगर वह दो साल नौकरी कर ले, तो उसमें दो साल नौकरी न करके जीने का साहस और सुविधा हो. नौकरी बचाने के लिए डरा हुआ संपादक न तो पत्रकारिता के लिए अच्छा है और न ही मीडिया इंडस्ट्री के लिए. ऐसा डरा हुआ संपादक मालिकों के लिए किसी काम का नहीं है. अपने नीचे काम करने वालों के लिए तो ऐसे संपादकों से बुरा और कुछ नहीं हो सकता, जो अपनी नौकरी बचाने के लिए दूसरों की जान लेने को हमेशा तैयार बैठा है. ऐसा संपादक पाठकों और दर्शकों के लिए भी बेकार है.

दिलीप मंडल, इंडिया टुडे के मैनेजिंग एडिटर, इकोनॉमिक टाइम्स हिंदी ऑनलाइन के संपादक तथा सीएनबीसी आवाज चैनल के एक्जीक्यूटिव प्रोड्यूशर रहे. लगभग एक दर्जन मीडिया संस्थानों में काम का अनुभव. मीडिया शिक्षण, रिसर्च और पुस्तक लेखन में सक्रिय. सूचना और प्रसारण मंत्रालय और प्रेस कौंसिल द्वारा सम्मानित. संपर्क: [email protected]

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15 Comments

15 Comments

  1. संजय रावत

    October 5, 2014 at 7:38 am

    इस मामले में हल्द्वानी का वाकिया याद आया , वो ये कि एक बार अमर उजाला में किसी लेख को लेकर कॉर्पोरेट आफिस से कुछ लोग आ धमके , जिन्होंने साफ़ साफ़ कहा — अख़बारों में अब पढ़े लिखे जहीन लोगों की कोई जरुरत नहीं है. सिर्फ मेसेंजर चाहिए .Thats All… (एक भुग्तभोगी मित्र के हवाले से )

  2. Avanish Pathak

    October 5, 2014 at 11:41 am

    मंडल साहब ज्ञान अच्छा दे लेतें हैं। ज्ञानी हैं।

  3. gaurav agrwal

    October 5, 2014 at 2:07 pm

    jaankari acchi dee gayi hain lekin mujhe nahi lagta kee aaj media industries main profesionalizm kee aavashykta hain . bhaandgiri haavi hain ilsiye aaj kee dete main media ka bura daur chal raha hain

  4. Anand Mishra

    October 5, 2014 at 5:32 pm

    I have never gone through such an insightful and thought provoking article during 10 years course of my journalistic career. Hats off to you.
    Since writer is attached with TOI group so I believe editors of same group would go through this write up.

  5. Sonu Shrivastav

    October 5, 2014 at 8:17 pm

    First time ever, I have gone such an insightful article…I request that All Hindi newspapers’s editors should read this article and improve themselves…otherwise Hindi print media will be kept sulking…nobody is going to help them. And hats off to the author, who has dared to write honestly….

  6. Dilip C Mandal

    October 6, 2014 at 5:19 am

    निस्संदेह यह आत्मनिरीक्षण का समय है. शुक्रिया दोस्तों, आप सबकी प्रतिक्रिया के लिए और उन ई-मेल के लिए भी, जो मुझे इस आर्टिकल के संबंध में मिले. भारतीय पत्रकारिता के बारे में निर्णायक कुछ कहने का समय बेशक नहीं आया है, लेकिन संपादक नाम की संस्था की निर्मम समीक्षा का समय यह जरूर है. एक बार फिर से आभार.

  7. अनिल गलगली

    October 6, 2014 at 6:04 am

    सच और उसकी गहराई लेख में बार बार आक्रोशित होती नजर आ रही है।

  8. Pankul Sharma

    October 6, 2014 at 4:00 pm

    hats off sir for such a wonderful article. i’m victim of such an editor and now feeling well after leaving Hindi Patrkarita.

  9. Dr.Abbhigyat

    October 8, 2014 at 10:28 am

    nice

  10. dayalchand yadav

    October 8, 2014 at 11:25 am

    guru, sahi likha. aaj mouth marketing havi hai.aksar achche artical ka sray bade patrkar le letehain.

  11. ranjit rathor

    May 12, 2015 at 2:30 pm

    sampadak ki hi bat nahi karen..unhe to bahut milta hai phir v kam padta hai…kyonki unhe atyadhik ki adat lag gayi hai..ab ksha khadi dhari sampasak rahe…kis muh se kahte ptrakar ho apni awaj utha nahi pate..aaj v saikro patrakar majduron se v kam pate..aise me beiman banna niyati hai …kam se kam we sampadako se to jyada imandar hai roti bhar hi beimani karte hai.aap ke kejriwail ne uthaya use media sunna chahiye kyonki we dudh ke dhule to bilkul nahi..jaberdast rup se maile hai

  12. शैलेंद्र गुप्ता शैली

    June 16, 2015 at 9:51 am

    दिलीप मण्डल जी , अति दुर्भाग्यवश आपके लेख में रोते हुए बहुतायत में पाये जाने वाले जीव अथार्थ हिन्दी संपादक का आमना सामना अति विलंब से हुआ ।ऐसी प्रजातियों से ही पत्रकारिता का महानाश हो रहा है । इन जीव को मालिकों की चाटुकारिता पदक से सम्मानित होना चाहिए । इन गिरोह बंद जीव को उम्दा पत्रकार नहीं बल्कि अपने लिए रेविन्यू मोडेल की जरूरत है

    • sohan singh

      May 30, 2018 at 1:59 pm

      mandalji aap ki jankari bahut achi hai. itna acha lekh likhne ke lie congratulation.

  13. vijay srivastava

    May 29, 2018 at 9:32 am

    सर, बेहतरीन आलेख है. संपादकों की योग्यता अब मालिक कम ही तय करते हैं. उन्हें तो मीडिया हाउस के नाम पर अपने धंधे चलाने के लिये एक रक्षा कवच चाहिये. संपादकों की योग्यता अब कॉरपोरेट सेक्टर के उनके मैनेजर तय करते हैं. आप समझ सकते हैं कि जब मैनेजर संपादक को रखने का काम करने लगें तो संपादक भी “मैनेज करने वाला” ही मिलेगा न.
    आपकी दूसरी बात कि हिंदी में अच्छे कंटेंट नहीं आ रहे हैं और अंग्रेज़ी पत्रकारिता आज भी हिंदी पर हावी है, मैं इससे थोड़ी असहमति रखता हूं. अगर ऐसा ही है तो अंग्रेज़ी के अखबारों की सर्कुलेशन लगातार गिर क्यों रही है? हिन्दुस्तान टाइम्स और टेलीग्राफ ने अपने कई संस्करण बंद क्यों कर दिये? हिंदी के अखबार तेज़ी से बढ़ क्यों रहे हैं. दरअसल हिंदी का पाठक और दर्शक भी बेहतर पढ़ना चाहता है, अच्छे संपादक भी हैं, अच्छा लिख भी सकते हैं, लेकिन मालिक जब कॉरपोरेट मैनेजर को संपादक का बॉस बनाकर रखेगा तो संपादक क्या करेगा. जहां तक नौकरी बचाने का सवाल है तो उसका भी परिवार है, सड़क पर आकर परिवार को मुसीबत में क्यों डालेगा.
    एक दूसरा महत्वपूर्ण तथ्य है जिसकी आपने चर्चा नहीं की है. आज मीडिया हाउस पर कुछ गिने-चुने कॉरपोरेट घराने कब्ज़ा करते जा रहे हैं. उदाहरण के लिये relience को देखिये. उसने ibn और e tv को खरीद लिया. अब हिन्दुस्तान टाइम्स और हिन्दुस्तान को खरीदने की तैयारी में है. Relience कॉरपोरेट की तरह इन दोनों मीडिया हाउस को चला रहा है, पत्रकारिता के मूल्य खत्म होते जा रहे हैं. मैंने 2007 में e tv जॉइन किया था. तब रामोजी राव की इस संस्था में पत्रकारिता के मूल्य ज़िंदा थे. बल्कि कई मानक इसने स्थापित किये. 2016 में मैंने जब छोड़ा तो e tv relience की मिल्कियत बन गया था. अगर बड़े कॉरपोरेट घराने इसी तरह अच्छे संस्थानों पर येन केन प्रकारेण कब्ज़ा करते रहे तो कहां से कोई हिम्मत जुटा पायेगा कि मिशन की पत्रकारिता की जाये और कहां से हिंदी के संवेदनशील और बेहतर करने वाले संपादक पैदा होंगे?

  14. nityendra dwivedi

    June 6, 2018 at 3:26 pm

    अच्छी बात लिखी है। संपादक को जानकार होना चाहिए। लेकिन revenue model कहां से बनाना सीखा जाये। ये बात अभी समझ में नहीं आई। मीडिया स्कूलों को इसकी भी ट्रेनिंग की व्यवस्था करनी चाहिए।

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