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सुख-दुख

हिंदी की सेवा मत करिए, प्लीज़

-राजेश प्रियदर्शी (वरिष्ठ पत्रकार)

दुनिया भर में हिंदी अकेली बड़ी भाषा है जिसकी सेवा हो रही है. हिंदी न हुई, मरती हुई गाय है जिसकी सेवा करने के लिए लोग गौशाला में जुट गए हैं.

जो भी हिंदी की सेवा की बात करता है मुझे उस पर संदेह होता है. मैं हिंदी में काम करता हूँ, अधिक से अधिक करना चाहता हूँ, मेरी रोज़ी-रोटी हिंदी से चलती है. सेवा की बात वही कर रहे हैं जिनकी नज़र हिंदी पर नहीं, मेवा पर है.

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जिसने भी कहा वह हिंदी की सेवा कर रहा है, साफ़ समझ लीजिए कि उसे हिंदी ठीक से नहीं आती, अँगरेज़ी तो क़तई नहीं आती और उसका इरादा भी दोनों में से किसी भाषा को सीखने या तमीज़ से लिखने-बोलने का नहीं है.

हिंदी की सेवा सत्यनारायण कथा की तरह है जिसमें सत्यनारायण की कथा के अलावा सब कुछ है, उसका महात्म्य है लेकिन कथा नहीं है. महात्म्य है तथाकथित पंडितों, आलोचकों, विद्वानों, साहित्यकारों का.

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जिनकी वजह से मैंने हिंदी में पहली बार ईमेल लिखा उनका क्या, जिसकी वजह से मैं हिंदी में ब्लॉग लिख रहा हूँ, पढ़ रहा हूँ उनका क्या…जिनकी वजह से हिंदी में टीवी के चैनल और वेबसाइटें चल रही हैं उनका क्या? वे हिंदी की सेवा करने का दावा नहीं करते, उन्हें परवाह भी नहीं है. वे अपना काम कर रहे हैं.

मैं हिंदीवाला हूँ, मैं हिंदी में काम करता हूँ क्योंकि वह मेरी अपनी भाषा है और मुझे खूब अच्छी तरह आती है, मुझे अँगरेज़ी भी ठीक-ठाक आती है लेकिन वह मेरे मन की भाषा नहीं है, वह ज़रूरत की भाषा है इसलिए पर्याप्त ज्ञान के बावजूद उसमें लय नहीं है, लचक नहीं है, धार नहीं है. अँगरेज़ी में अगर मैं वही असर पैदा कर सकता जो हिंदी में कर लेता हूँ तो मैं बेवकूफ़ नहीं हूँ जो हिंदी में लिखता, मैं कोई हिंदी सेवक नहीं हूँ.

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हिंदी मेरे व्यक्तित्व का हिस्सा है, मैं हिंदी में सोचता हूँ इसलिए हिंदी में ही अपने आपको बेहतर व्यक्त कर सकता हूँ.

जिस तरह मैं हिंदी की सेवा नहीं कर रहा हूँ, उसी तरह बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान के लाखों-लाख लोग नहीं कर रहे हैं, उन्हीं के दम से हिंदी में पत्र-पत्रिकाएँ छप और बिक रही हैं, राजभाषा विभाग या विदेश मंत्रालय की कृपा से वे परे हैं इसलिए जीवित और सार्थक हैं वरना उनका भी अहर्ता, उपरोक्त, कदाचित, कदापि, यथोचित, निर्दिष्ट, तथापि, अधोहस्ताक्षरी वाला हाल हो चुका होता.

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हर सरकारी दफ़्तर में मौजूद राजभाषा अधिकारी का काम ही है हिंदी को ऐसा बना देना ताकि अँगरेज़ी में काम करते रहने को जायज़ ठहराया जा सके.

आपने कभी सोचा है कि आपको ब्लॉग लिखने में, हिंदी में पत्र-पत्रिकाएँ पढ़ने में कोई दिक्क़त नहीं होती तो सरकारी काम करने वालों को क्यों समस्या आती है. सिर्फ़ इसलिए कि हिंदी में काम नहीं हो रहा है, उसकी सेवा हो रही है.

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हिंदी का भला किसी के किए हो सकता है इससे ज़्यादा दंभ और मूर्खता की बात कोई और नहीं हो सकती. हिंदी का भला भी उसी तरह होगा जिस तरह अँगरेज़ी, स्पैनिश या किसी और बड़ी भाषा का हुआ है. सेवा करके नहीं बल्कि उसे बोलने-लिखने-पढ़ने की वजहें पैदा करके.

किसी महान हिंदी सेवी की समझ में मामूली बात नहीं अँट रही कि हिंदी के बिना भारत में हर कॉर्पोरेट हाउस का काम चल रहा है जो चीन में मैंडरिन के बिना नहीं चलता. भारत में हिंदी के बिना शान से काम चलता है और हिंदी वाले शर्मसार हैं, कल्पना कीजिए कि भारत जैसे बड़े बाज़ार में पैठ बनाने के लिए हिंदी आवश्यक होती तो स्थिति क्या होती.

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भारत में जितनी हिंदी बची है वही बचा हुआ भारत है, बाक़ी इंडिया है. इंडिया में हिंदी के बिना मज़े में काम चलता है बल्कि वहाँ हिंदी डाउनमार्केट है, सिर्फ़ ड्राइवर, चपरासी, सब्ज़ीवाले और नौकरों से बोली जाने वाली भाषा है जो भारत से आते हैं.

महानगरों में वही लोग हिंदी वाले हैं जिनके संस्कार क़स्बाई हैं, जो पैदाइशी या दूसरी पीढ़ी के शहरी हैं उनके लिए हिंदी एक गंवारू, डिफ़िकल्ट या यूज़लेस भाषा है, कम से कम ऐसी भाषा तो नहीं है जिसमें लिखा जाए और पढ़ा जाए, ठीक है, टीवी पर चल सकता है.

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हिंदी का जो भी प्रचार-प्रसार हुआ है वह किसी हिंदी सेवक की कृपा या साधना से नहीं हुआ है, वह हुआ है सिर्फ़ बाज़ार की ताक़त की वजह से. मुंबई का सिनेमा हो या देश का हिंदी टीवी, उसने हिंदी का प्रसार किया. 14 सितंबर को हिंदी का श्राद्ध करने वालों से न पहले कभी हुआ है, न आगे कभी होगा.

सीधी सी बात है जिसे मानने में लोग बहुत देर लगा रहे हैं, जब तक हिंदी जानने, बोलने और लिखने की वजह से लोगों का जीवन बेहतर नहीं होगा तब हिंदी का यही हाल रहेगा. हिंदीवाला समृद्ध होगा तो हिंदी प्रतिष्ठित होगी वरना उसकी दरिद्रता की गुदड़ी पहने उसकी भाषा घूमती रहेगी.

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एक छोटी सी मिसाल लीजिए, हिंदी के टीवी समाचार चैनल चले, पत्रकारों के लिए महीने के लाख रूपए की तनख्वाह आम हो गई, हिंदी का मीडिया मार्केट रातोरात अपमार्केट हो गया. अँगरेज़ी में सोचने वाले, आह-उह के बदले आउच करने वाले फटाफट हिन्दी सीखने लगे कि ‘नो कॉन्फिडेंस मोशन’ को अविश्वास प्रस्ताव कहा जाता है….कू को तख़्तापलट कहते हैं और इमरजेंसी मतलब आपातकाल… वीर संघवी, बरखा दत्त और राजदीप हिंदी बोलने लगे.

जब तक पैसे नहीं थे तब तक हिंदी वर्नाकुलर था, अब मेनस्ट्रीम है. लेकिन यह सिर्फ़ मीडिया में हुआ है, इसे दूसरे क्षेत्रों में जो कर दिखाएगा वही हिंदी की सेवा भी करेगा और मेवा भी खाएगा. बाक़ी सब बकबक है ज़्यादा ध्यान मत दीजिए.

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(यह ठीक 13 साल पहले ब्लॉगस्पॉट पर लिखा गया था जब न्यूयॉर्क में कुछ अक्ल मंद लोग विश्व हिंदी सम्मेलन का आयोजन कर रहे थे).

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