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आंसू बहाने वाले कितने लोग कादम्बिनी-नंदन खरीद कर पढ़ते थे?

-मनोज मलियानिल-

साहित्यिक पत्रिका कादम्बिनी और बाल पत्रिका नंदन के बंद होने की जानकारी सामने आने के बाद आज सुबह से सोशल मीडिया पर क्रंदन हो रहा है। क्यों एक प्रतिष्ठित पत्रिका बंद हो गई इस पर हर जगह आंसू और आक्रोश देखने को मिल रहे।

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पर क्या आपने ये सोचा कि जब पत्रिकायें लोग खरीदेंगे नहीं, खरीद कर पढ़ेंगे नहीं फिर कैसे ये जीवित रहेंगी। जो लोग कादम्बिनी और नंदन के बंद होने पर आंसू बहा रहे हैं उनमें से कितने लोग इन पत्रिकाओं को अपने घर मंगवाते थे! अगर इन पत्रिकाओं की ठीक-ठाक बिक्री हो रही होती तो आज इन्हें क्यों बंद किया जाता।

जो मेरे दशकों पुराने मित्र हैं उन्हें पता है कि नौकरी के शुरुआती दिनों में जब कम सैलरी थी तब भी मैं रेगुलर तीन-चार अखबार घर मंगवाता था, क्योंकि मुझे पता था कि अखबार, पत्रिकायें, कलम और किताबों के खरीदने का संबंध इंसान की मानसिकता से है उसके माइंडसेट से है। मुझे हमेशा लगता था कि मैं मैं तीन-चार रुपये की कई सिगरेट दिनभर में पी जाता हूं पर क्या ढ़ाई-तीन रुपये के अखबार मैं घर पर नहीं मंगवा सकता। अखबार खरीदते से समय दो और बातें जेहन में रहती थीं। एक तो ये कि जो अखबार मैं लेता हूं वो अच्छा है और लोकतंत्र की मजबूती के लिए इसका होना जरूरी है, और दूसरी बात ये रहती थी कि अगर हम अखबार खरीद कर पढ़ रहे हैं तो इससे कहीं न कहीं हम अपनी पत्रकार बिरादरी के मित्रों की एक हद तक आर्थिक मदद कर रहे हैं।

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इंटरनेट पर इन दिनों तमाम अखबारों के अनुरोध देखने पढ़ने को मिल रहे हैं। बार-बार ये ये पत्रिकायें और अखबार सब्सक्रिप्शन लेने का आग्रह कर रहे हैं। एक तो न खरीदने की मानसिकात और ऊपर से कोरोनाकाल, ऐसे माहौल में अखबारों और पत्रिकाओं के सामने उनके अस्तित्व का संकट है। 99 और 100 सौ रुपये महीने के हिसाब से अखबार सब्सक्रिप्शन दे रहे हैं लेकिन इसके लिए भी संपादकों और प्रकाशकों को बार-बार आग्रह करना पड़ता है। अगर हम अखबारों का सब्सक्रिप्शन नहीं खरीदेंगे तो फिर प्रकाशन की ये व्यवस्था फिर कैसे चलेगी। इनका हश्र भी कादम्बिनी और नंदन के जैसा होगा।

एक बार रिपोर्टिंग के दौरान राइटिंग इंस्ट्रूमेंट कंपनी लग्जर के मालिक मिस्टर जैन से मुलाकात हुई। जैन साहब ने कहा कि कलम और पुस्तक खरीदने को लेकर हम भारतीयों की एक अजीब मानसिकता है। उन्होंने कहा कि अगर कोई बच्चा किसी अच्छी कलम या पेंसिल खरीदने की जिद कर दे तो उसके माता-पिता उसे ये कहकर मना कर देंगे कि तू अभी छोटा है 50-100 रुपये की महंगी कलम तुम्हारे लिए ठीक नहीं…जबकि कलम एक छात्र की सबसे प्रिय वस्तु है जो सबसे ज्यादा समय तक छात्र के साथ रहती है….दिलचस्प है कि वही माता-पिता रेस्टोरेंट में डिनर के बाद अपने बच्चों की आइसक्रिम पर कुछ सौ रुपये खर्च कर देते हैं।

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हिन्दी और अंग्रेजी की बड़ी-बड़ी पत्रिकायें बंद हो चुकी हैं। कई अखबार बंद हो चुके हैं।कई अखबार और पत्रिकायें बंद होने के कगार पर पहुंच चुकी हैं। अगर हमने अपनी मानसिकता में बदलाव नहीं लाया फिर हमारी नई पीढ़ी मुफ्त के कचरा न्यूज चैनलों को देख कर किस दुनिया का निर्माण करेगी इसका आप अनुमान लगा सकते हैं।

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2 Comments

2 Comments

  1. Suneet Kulshreshtha Alok

    August 29, 2020 at 1:26 am

    सर नमस्कार, कादंबिनी और नंदन जैसे हमारे बचपन की यादों वाली पत्रिकाओं का बंद हो जाना एक दुखद समाचार तो है परंतु इन पत्रिकाओं का बंद होना मुझे जरा भी नहीं अखरा
    क्योंकि मैं समाचार पत्र और पत्रिकाओं के वितरण क्षेत्र से जुड़ा हुआ व्यक्ति हूं मैंने पत्रिकाओं का पिक समय भी देखा है जब वह सिरमौर हुआ करती थी हम भारतीयों के मन मस्तिष्क के लिए और घर के लिए नंदन और कादंबिनी बंद होने का शायद प्रबंध तंत्र को एक बहाना मिल गया कोरोना के चलते अर्थव्यवस्था जो ध्वस्त हो गई है
    यह तो हिंदुस्तान टाइम्स प्रबंधन की बहादुरी है कि उन्होंने इन पत्रिकाओं को कई साल और चला लिया तब जाकर 2020 में बंद किया है
    यह पत्रकार अपने सर्वश्रेष्ठ प्रसार संख्या जब होती थी उस से घटकर पिछले कुछ सालों में सिर्फ 5% से भी कम हो गई थी
    ऐसे में कोई भी प्रबंधन पत्रिकाओं को क्यों चालू रखेगा
    सन 2000 के बाद से भारतीय प्रवेश में मनोरंजन और ज्ञान के क्षेत्र में काफी परिवर्तन आने चालू हो गए थे घर-घर केबल टीवी नेटवर्क पहुंचने लगा था 2010 के बाद से घर-घर मोबाइल क्रांति चालू हो गई थी ऐसे में पत्रिकाओं का अंत समयआ गया
    आप यह सोचिए जितने भी लोग आज इस जगह पर कमेंट कर रहे हैं या उनके परिवार में या उन्होंने पिछले 5 सालों में कितनी पत्रिकाएं खरीदी हैं खुद पढ़ी हैं या अपने बच्चों को लाकर दी है इमानदारी से बताइएगा
    ट्रेन और बस के सफर में आते जाते समय कितने लोगों ने पत्रिकाएं किसी भी प्रकार की खरीदी हैं इमानदारी से जवाब दीजिए
    साहब रेलवे स्टेशन और बस स्टैंड की बुक स्टॉल का किराया भी निकलना मुश्किल हो गया था पहले पूरे के पूरे परिवार रेलवे स्टेशन और बस स्टैंड की बुक स्टॉल से चल जाया करते थे
    रेलवे स्टेशन ऑफर पत्र-पत्रिकाओं की बिक्री का प्रमुख केंद्र एएच व्हीलर्स प्राइवेट लिमिटेड नामक एक संस्था हुआ करती थी वह भी कर्जे के दबाव के कारण बंद हो गई
    देखते जाइए आप सभी लोग एक-एक करके इस देश की 95% पत्रिकाएं बंद हो जाएंगी आने वाले समय में उनका नामोनिशान नहीं मिलेगा
    कल आप लोग आने वाले समय में यह भी कह सकते हैं फलाना बड़ा अखबार बंद हो गया इसे तो हम बचपन से पढ़ते थे काफी बढ़िया था
    जो प्रसार संख्या जनवरी 2020 में थी अखबारों की अब जुलाई-अगस्त में गिरकर सिर्फ 30 से 40% रह गई है अब लोग अखबार तो पढ़ना चाहते नहीं है पत्रिकाएं क्या खाक पड़ेंगे वह दिन दूर नहीं जब धीरे-धीरे करके अनेकों अखबार बंद हो जाएंगे
    अखबार और मैगजीन बेचने के लिए अब दुकानें भी ढूंढने से नहीं मिलती सुबह अखबार बांटने के लिए होकर भी आसानी से नहीं मिलते देखिए और क्या-क्या बंद होता है अब तो हमें आदत सी पड़ गई है जिंदगी के इस पड़ाव पर लगभग 50 साल की उम्र है और आज पत्र-पत्रिकाओं के रोजगार में बहुत ही अनिश्चितता का माहौल देखने को मिल रहा

  2. Rajeev Saxena

    September 1, 2020 at 10:14 pm

    सुनीत जी की बात एक दम सही है किन्‍तु हानी या लाभ से ज्‍यादा जरूरी उपयोगिता का आंकलन भी है। मैं एक अखबार और एक पत्रिका खरीदता हूं आज भी और जब पत्रकारिता में सक्रिय था। अखबार के कार्यालय में ढेरों समाचार पत्र और पत्रिकाये पढने को मिल जाते थे। नौकरी करने से पूर्व और उसके निपटजाने के बाद लाइब्रेरी जाना दिनचर्या में शामिल रहा। टाइम्‍स आफ इंडिया और हिन्‍दुस्‍तान की पत्रिकाये ही नहीं मित्रप्रकाशन लि.इलहाबाद और दिल्‍ली बुक कंपनी की भी पत्रिकाये लाब्रेरी में ही पढी हैं। चूंकि मैं प्रकाशन संबधी सरकारी नीतियों की भी एक समय जानकारी रखता था।इस लिये मेरा मानना है कि पब्‍लिक लाइब्रेरियों को अगर सरकारें धन देती रहती तो अच्‍छी पत्रकाये बन्‍द नहीं होतीं।सरकारी लाइब्ररी अनुदान और पुस्‍तक खरीद योजना से भी अच्‍छे प्रकाशानों को चोट पहुंची है। विज्ञापन से पकाशनों को सपोर्ट की नीति का तो दबंगाई से दुरोपयोग हो रहा है जो हम सब रोज महसूस करते हैं। प्रदेश के विकास, रोजगार और जनकल्‍याण की योजनाओं के न्‍यूज समरूपी विज्ञापन रोज देखते ही हैं।

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