आजकल यह बात जगद्गुरु शंकराचार्य स्वरूपानन्द जी के हवाले से बड़ी चर्चा में है और इस संबंध में अनेक प्रकार के विचार सामने आ रहे हैं। इस विषय पर व्यापक चर्चा होनी चाहिए कि वास्तव में धर्म का वास्तविक स्वरूप क्या है और क्या उसको किसी से खतरा संभव है? इसके साथ ही इस पर भी बहस की जा सकती है कि सांई बाबा की भक्ति से किसी भी धर्म को किस तरह हानि संभव है?
मेरे विचार से हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, जैनी, बौद्ध, यहूदी आदि होने का अर्थ है कि आप किस प्रकार की जीवन पद्धति को अपनाते हैं क्योंकि ये सभी धर्म नहीं अपितु संस्कृतियां हैं और संस्कृति है जीवन को जीने की कला। जिसे आंग्ल भाषा में ‘आर्ट ऑफ लिविंग’ कहा जा सकता है। जबकि धर्म सार्वभौमिक है, सबके लिए समान है, वह जाति, भाषा, रंग, लिंग, वर्ण, देश, काल, परिस्थिति आदि किसी भी प्रकार के भेदभाव से सर्वथा अलग और शाश्वत है, अपरिवर्तनीय है। संस्कृति या जीवन शैली पर भौगोलिक, सामाजिक, आर्थिक, ऐतिहासिक आदि अनेक वाह्य कारकों का प्रभाव अनिवार्य रूप से पड़ता है। कहा गया है- ‘धर्मेण धार्यते लोकः’ अर्थात् धर्म ही संसार को धारण किये हुए है। शास्त्रकार ने ‘धर्मेण धार्यते लोकः’ सबके लिए कहा है न कि केवल हिन्दुओं के लिए। अब यदि कोई यहाँ धर्मेण से पहले हिन्दू शब्द लगा देवें तो कितनी गड़बड़ हो जायेगी? यही बात ‘सुखस्य मूलं धर्मः’ अर्थात् सुख का मूल धर्म है, अर्थात् बिना धर्मानुकूल आचरण के सुख की प्राप्ति असंभव है। यह बात सब मनुष्यों पर समान रूप से लागू होती है।
मनु महाराज ने धर्म के दस लक्षण बताये हैं- ‘धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः। धीर्विद्या सत्यमऽक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्।। अर्थात् धैर्य, क्षमा, मन पर नियंत्रण, चोरी (शोषण) न करना, आंतरिक और बाह्य पवित्रता, इंद्रियों पर नियंत्रण, सद्बुद्धि, विद्या, सत्य और अक्रोध। धर्म के इन दस लक्षणों का पालन करने से जहाँ व्यक्ति स्वयं स्वस्थ और सुखी रहेगा, वहीं परिवार तथा समाज में सब सुखी रहेंगे। धर्म के ये लक्षण केवल हिन्दुओं या किसी अन्य मतावलंबी के लिए आरक्षित या किसी के द्वारा कॉपी राइटेड नहीं हैं, बल्कि ये सार्वजनीन हैं, विश्व-मानव की धरोहर हैं। धर्म कर्मकांड या वाह्याडंबर नहीं, बल्कि जीवन-धारा है, व्यक्ति की चेतना का सागर है। धर्म व्यक्ति की मूल चेतना और उसकी अंतरात्मा का प्रकाश है, जीवन-आनन्द है। जिसके लिए श्रीमद्भगद्गीता (2ध्23) में कहा गया है-नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः। न चैनं क्लेद्यन्त्यापो न शोषयति मारुतः।। अर्थात् यह आत्मा न तो किसी शस्त्र द्वारा छेदा (काटा) जा सकता है, न अग्नि इसे जला सकती है, न यह जल द्वारा भिगोया या वायु द्वारा सुखाया ही जा सकता है। ऐसे में किसी धर्म विशेष को खतरा होने की बात अधार्मिक तो कर सकता है, सच्चा धार्मिक नहीं। इस तरह हिन्दू मान्यताओं या परंपराओं को खतरा होने की बात तो कही भी जा सकती है, परन्तु ‘हिन्दू धर्म’ को नहीं। क्या स्वरूपानन्द जी महाराज इससे असहमत हैं?
वैसे भी हिन्दुओं को सांई भक्ति से नहीं देश भर में कुकुरमुत्तों की तरह उग आये नकली शंकराचार्यों से है। आज देश में चार की जगह दर्जनों पीठ और शंकराचार्य कैसे पैदा हो गये? साथ ही यह भी बताने का कष्ट करेंगे कि वे ज्योतिर्मठ के साथ-साथ शारदापीठ के भी मठाधीश कैसे बन बैठे? मुझे केवल इतना भर ज्ञात है कि दो-दो पीठों पर आपके दावे का प्रकरण सर्वोच्च न्यायालय तक गया था, वहाँ क्या हुआ और मुकदमे की स्थिति अब क्या है, इसकी जानकारी मुझे नहीं है। साथ ही स्वरूपानन्द जी महाराज क्या यह बताने का कष्ट करेंगे कि जोशीमठ में वे जिस स्थान को ज्योतिर्मठ के प्रथम मठाधीश त्रोटकाचार्य की गुफा प्रचारित करते हैं, उसकी जानकारी उन्हें कहाँ से और कैसे हुई? ऐतिहासिक रूप से यह कब, किसने और कैसे सिद्ध किया कि उस स्थान का कभी कोई सम्बंध त्रोटकाचार्य जी से रहा? इस स्थान पर विशाल धर्मशाला खड़ी करने में क्या आवश्यक नियमों तथा मानकों का प्रयोग किया गया? यदि ऐसा किया गया तो फिर इसे लेकर स्थानीय लोग आपके विरुद्ध आक्रोशित क्यों हुए स्वरूपानन्द जी?
यहाँ मैं स्वयं अपनी आँखों देखी एक घटना का उल्लेख करना प्रासंगिक समझता हूँ। मैं फरवरी 1992 में किसी कार्यवश कोलकाता गया था। तब वहाँ सर्वाधिक प्रसार वाले एक हिन्दी दैनिक के स्वामी व संपादक के आवास पर एक स्वामी जी के साथ जाना हुआ। भोलेभाले, सज्जन-प्रकृति, सहृदय और साधु-सेवी वे महाशय जी हमें अपने घर के एक भीतरी कक्ष में निर्मित पूजास्थल में ले गये। वहाँ उन्होंने बहुत ही सुंदर नक्काशी किया हुआ तांबे का एक पुराना कलश हमें दिखाते हुए बताया- ‘अभी पिछले पखवाड़े एक शंकराचार्य जी (नाम मैं नहीं दे रहा हूँ) यहाँ आकर मेरी कुटिया को पवित्र कर गये और भेंट स्वरूप मुझे यह कलश दे गये हैं। उनका कहना था कि यह वही कलश है जिसमें महाराज भगीरथ स्वर्ग से माँ गंगा को भूतल पर लाये थे। उस पुरातन कलश को वे खास तौर पर मेरे लिए उतनी दूर से चलकर लाये हैं।’ उनके वक्तव्य पर मुझे बड़ा तरस आया कि धर्म के नाम पर कुछ लोग किस प्रकार भोलेभाले साधुजनों को ठग रहे हैं। मैं समझता हूँ कि शंकराचार्य स्वरूपानन्द जी उस धूर्त और पाखंडी शंकराचार्य को जरूर ढूँढ निकालेंगे और साथ ही धर्म के नाम पर हिन्दुओं का शोषण कर रहे इन तमाम नकली शंकराचार्यों पर भी रोक लगवाने की कृपा करेंगे।
श्याम सिंह रावत
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deepak
July 10, 2014 at 7:48 am
Shankracharya bankar aur Hinduo ke naam par dalali karnewale swarupanand ko kis karan se itni badi upadhi de di. Ye koun hota hai batanewala ki koun Hindu hai Ya nahi? Khud pahle Hindutwa ke baare me Jaan le phir dusro ko shiksha de. KanKan me Sabhi jivo me Bhagwan dekhnewala Hindu ko Insan me Bhagwan dikh gaya to log sai baba ki pooja kar rahe hai. Mahange Bhawan aur MohMaya me Bandha hua ye aadmi to Guru kahlane ke layak nahi hai. Hamare Hindu dharam ka Thekedar bana hai. Kuch Mathadhis bhi Bewakoof ki tarah uski baat maan rahe hai. Swarupanand Itna bada sant hai to Ye sab yeso-aaram mil raha usko Chorkar Fakir ki tarah rahkar dikhaye.
navendu
July 27, 2014 at 10:50 am
aaj do number ka paisa kamane wala har aadmi SAI ke bhakti me lag gaya hai. mote mote sone ka har chadhane wale SAI bhakt ne kabhi iska hisab samaj ko diya hai. garebo ka paisa kha kar SAI ke bhakti uchit nahi hai .SAI aastha ke pratik hai.unhe hidu aastha ka pratik banana hindu dharm ke virodh hai.