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सुख-दुख

आईसीयू में तो पत्रकारिता पहुंच चुकी है!

बिहार के मुजफ्फरपुर में चमकी बुखार से मरने वाले बच्चों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। चमकी बुखार के सामने स्वास्थ्य सेवाएं बुरी तहर हांफती दिख रही हैं। बच्चों की मौत का कारण जो भी गिनाया जा बताया जा रहा हो, लेकिन बच्चों की मौत से ज्यादा दुखदायी कुछ और हो ही नहीं सकता। व्यवस्था, प्रशासन, सरकार और नेता तो इस देश में पहले ही संवेदनशीलता खो चुके हैं। जनमानस भी उन पर छटांक भर से ज्यादा भरोसा या विश्वास नहीं करता। जनता को किसी से जो भी बची-खुची उम्मीद है, वो न्यायपालिका और पत्रकारिता से है। लेकिन मुजफ्फरपुर में बीत रहे हृदयविदारक घटनाक्रम की कवरेज करते-करते पत्रकारिता ‘आईसीयू’ में घुस गयी है। सच मानिए, टीआरपी के चक्कर में एक या दो पत्रकार आईसीयू में नहीं घुसे हैं, बल्कि आज देश में पत्रकारिता ही ‘आईसीयू’ में जा चुकी है। सुनने में शायद ये बात बुरी लगे या किसी को नागवार गुजरे, लेकिन यही सच्चाई है।

टीआरपी और सबसे आगे रहने की दौड़ और सबसे अलग कुछ दिखाने की होड़ ने आज पत्रकारिता को असल में ‘आईसीयू’ में पहुंचा दिया है।ये कहां कि पत्रकारिता है कि आप लाइव कवरेज और टीआरपी के फेर में आईसीयू में जाकर लाइव प्रसारण करने लगे। डाॅक्टरों को मरते बच्चों की देखभाल की बजाय सवाल-जवाब के फेर में उलझाकर उनका कीमती वक्त जाया करें। वाह जनाब, आपको आपकी ऐसी पत्रकारिता मुबारक हो, जो किसी नौनिहाल की मौत को भी कोई लाइव प्रोगाम बनाकर पेश करे। किसने सिखाई है आपको ऐसी पत्रकारिता? कहां से आपने सीखी है इतनी असंवेदनशीलता? कहां से आपने सीखा है कि सारे नियम-कानूनों धता बताकर आप आईसीयू में माइक कैमरा लेकर घुस जाएं?

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वन नाइट वंडर बनने की चाहत पाले बैठे देश के चंद पत्रकारों ने सारी पत्रकारिता को शर्मसार करने का काम किया है। एक चैनल जब आईसीयू में पहुंच गया है तो फिर दूसरा, फिर तीसरा और इसके बाद गिनती कौन याद रखेगा। आईसीयू न हो गया आपका कनाट प्लेस या फिर इण्डिया गेट हो गया है। जहां आते-जाते लोगों से आप टाइम पास के सवाल पूछे। या तो आपको आईसीयू का मतलब नहीं पता या फिर आपके अंदर से संवेदनशीलता की नसें ही सूख चुकी है। आपको मरते बच्चों के बदहवास अभिभावकों की चीखों, आंसुओं और चीत्कार दिखाकर टीआरपी बढ़ानी है। आपको इमरजेंसी में डाॅक्टरों, नर्सों और अस्पताल प्रशासन को हड़काकर अपनी हेकड़ी दिखानी है। जनाब आप पत्रकार है, दारोगा नहीं है। पत्रकारिता में संवेदनशीलता सबसे जरूरी मर्म है। पर आपको कहां पत्रकारिता के मर्म और धर्म की चिंता है। एक ने आईसीयू में माइक कैमरा ले जाकर गलती की तो आपने गलती सुधारने की बजाय वैसी ही गलती करके क्या साबित किया। आपको अपनी गलती कभी दिखाई देगी ही नहीं। जब मामला टीआरपी और एक दूसरे को पछाड़ने का हो तो मर्यादाओं का तार-तार होना लाजिमी है।

अगर आप दिखाना चाहते हैं कि देश में स्वास्थ्य सेवाएं बदतर है तो, दिखाइये। खूब दिखाइये। किसने आपको मना किया है। लेकिनन कम से कम किसी मासूम की मौत को तो बख्श दीजिए। ऐसा कहा जा रहा है कि एनसिफलाइटिस के चलते यह मौत हो रही है। श्रीकृष्ण मेडिकल कॉलेज और अस्पताल (एसकेएमसीएच) के आंकड़ों के मुताबिक इस बीमारी से साल 2012 में 120, 2013 में 39, 2014 में 90, 2015 में 11, 2016 में 4, 2017 में 11 और 2018 में 7 बच्चों की जान गयी थी, लेकिन इस साल ये आंकड़े बढ़ रहे हैं। 24 सालों में इन मौतों से बचने के लिए कोई विशेष शोध या उपाय नहीं किये गये हैं। सरकार कहती है कि लोगों को इस बीमारी को लेकर जागरूक होना होगा। कोई इनसे पूछे अगर जागरूकता ही बचाव है तो जागरूकता कौन फैलायेगा?

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आज जो मीडिया सीधे आईसीयू में घुसे जा रहा है। क्या उससे यह नहीं पूछा जाना चाहिए कि पिछले चार-पांच सालों में क्या उसने एक बार भी मुजफ्फरपुर जाकर हालात जानने की कोशिश की। क्या बीमारी के बचाव के बारे में जागरूकता फैलाने को लेकर कोई कवरेज की। नहीं, शायद नहीं। आपको तो हर घटना को भुनाना है। जागरूकरता फैलाना और व्यवस्था करना तो सरकार का काम है। आप बस मौकों की तलाश में घात लगाकर बैठे रहिए, जैसे ही मौका मिले कैमरा माइक लेकर आईसीयू तक में घुस जाइए। चूंकि इस बार मौत का आंकड़ा बड़ा है। इसलिये ये आपके लिए एक मौका और इवेंट है। अपनी टीआरपी बढ़ाने का। जनजागरण करना, जागरूकता फैलाना या बिना किसी मकसद के कवरेज करना आपके बिजनेस का हिस्सा ही नहीं है जनाब।

असल में पत्रकारिता के सिद्वांत, नैतिकता, शुचिता और आदर्श ‘आईसीयू’ में पहुंच चुके हैं। ऐसे में मकसद सिर्फ एक है सबसे आगे, सबसे पहले, सबसे तेज। और जब हर दिन नजर टीआरपी के मीटर पर हो तो फिर आईसीयू तो क्या कब्र में भी घुसना पड़े तो कैमरा और माइक वहां भी पहुंच जाएगा। जब बच्चे मर रहे हों। डाॅक्टर और नर्सें इमरजेंसी डयूटी में हो। आईसीयू की हालत जनरल वार्ड जैसी हो चुकी हो। भाई तब तो मेडिकल स्टाफ को उनको अपना काम करने दीजिए। नहीं आपको तो अपनी पत्रकारिता दिखानी है। आपको अपना ब्रांड चमकाना है।

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मीडिया घरानों और न्यूज चैनलों के मालिकों, संपादकों और रिपोटर्स के पास अपनी कार्यप्रणाली को सही सिद्व करने के दर्जनों तर्क और तथ्य हो सकते हैं लेकिन इन सबके बीच समाज के प्रति उत्तरदायित्व, पत्रकारिता के सिद्वांत और जनहित कहां खड़े होते हैं इसकी फिक्र किसी को नहीं है। माना कि न्यूज चैनल को 24 घंटे प्रसारण के लिए खबरों की जरूरत होती है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि टीवी पत्रकार घटित होने वाले घटनाओं की कवरेज की बजाय टीआरपी और चर्चित होने के आईसीयू में जा घुसें। खबरखोर मीडिया टीआरपी बढ़ाने व सबसे पहले और आगे की दौड़ में पत्रकारिता की शुचिता व सिद्वंातों की छाती पर खड़ा होकर ऐसे कारनामों का अंजाम देता है कि उसकी विश्वसनीयता, संवेदनशीलता संदेह के कठघरे में खड़ी दिखाई देती है। नेताओं और सरकारी व्यवस्था के प्रति जैसे जनता का मोहभंग हो चुका है। आज कमोबेश उसी हालात में पत्रकारिता भी पहुंच चुकी है। ऐसा माहौल मत बनाइये कि देश की जनता का विश्वास लोकतंत्र के चैथे खंभे से ही उठ जाए।

लेखक आशीष वशिष्ठ लखनऊ के स्वतंत्र पत्रकार हैं.

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