पत्रकारिता के क्षेत्र में चोटी का संस्थान माने जाने वाले भारतीय जनसंचार संस्थान में इन दिनों प्लेसमेंट हो रहे हैं. यूं तो संस्थान अपने विवरणिका में 100 फीसदी प्लेसमेंट का दावा नहीं करता फिर भी कंपनियां आती हैं और विद्यार्थियों को अपने यहां नौकरी देती हैं. यहां कई भाषाओं, मसलन उर्दू,मलयालम, मराठी (संभवतः पिछले साल या इस साल से शुरू हुआ है या होगा), उड़िया अंग्रेजी, हिन्दी की पढ़ाई होती है. इसके साथ विज्ञापन और रेडियो टीवी के विभाग हैं.
हर साल कोई ना कोई नया हंगामा होता है. सो इस बार भी हो रहा है. इसमें गलती विद्यार्थियों की नहीं है. गलती उन लोगों की है जो प्लेसमेंट सेल के हेड होते हैं. मसलन कभी श्रीमती सुरभी दहिया जी तो कभी रिंकू पेगू जी. अपनी भाषाई सभ्यता को बाकी लोगों पर थोपना हो तो ईस्ट इंडिया कंपनी से नहीं IIMC के प्रोफेसरों से सीखना चाहिए.
आप उस कंपनी की परीक्षा में नहीं बैठ सकते (ऐसी पुष्ट-अपुष्ट जानकारी है. विद्यार्थियों और प्रोफेसरों के इनकार करने पर बदल सकती है.) जिस विभाग के आप छात्र नहीं हैं. मसलन विज्ञापन के प्लेसमेंट कंपनी में हिन्दी और रेडियो टीवी विभाग के लोगों को नहीं बैठने दिया गया. छात्रों ने एक पत्र लिखा है.
हिन्दी का इतना बड़ा बाजार होने पर भी अगर विद्यार्थियों को विज्ञापन विभाग की परीक्षाओं में बैठना पड़ रहा है तो यह भी अपने आप में एक चोटी के संस्थान लिए शर्म की बात है, वो भी तब जबकि संस्थान के महानिदेशक श्री केजी सुरेश जी खुद DD समेत कई संस्थानों में काम कर चुके हैं.
खैर, अभी तो बात सिर्फ विज्ञापन विभाग की है. दावा कर रहा हूं जो सच होगा भी कि रेडियो और टीवी की प्लेसमेंट परीक्षाओं में भी ऐसी कारगुजारियां होंगी. IIMC में प्लेसमेंट उसी दिन संपन्न मान लिया जाता है जब विज्ञापन और कुछ एक अन्य विभागों में छात्रों की नियुक्तियां अथवा इंटर्नशिप की व्यवस्था संपन्न हो जाती है.
हिन्दी विभाग के विद्यार्थियों को RTV से जुड़ी क्लासेज में दिक्कतों का सामना करना पड़ता है. इक्विपमेंट नहीं दिलाए जाते. यह सब तब है जबकि IIMC एक स्वायत्त संस्थान हैं. (समझ रहे हैं ना जो बीते दिनों 60 संस्थाओं के साथ किया गया है. फायदा नुकसान यहीं देख लें.)
अंग्रेजी में पीपीटी मुहैया करा देने वाले प्रोफेसर, आपसी लड़ाई (मसलन नेताओं और राजनीतिक दलों से संस्थागत करीबी, HOD और DG के पद के लिए ) में बिजी रहते हैं. लेकिन किसी के पास इतना वक्त नहीं होता कि कोई नौकरियों पर ध्यान दे ले. सबके बहुत संपर्क है. इतना की एक बार में मेरे सरीखे शख्स का गूगल कॉन्टैक्ट भर जाए (अगर ऐसा होता हो तो) लेकिन सब संपर्क नौकरी के नाम पर ना जाने कहां गायब हो जाते हैं.
क्लास में लेक्चर के समय विद्यार्थी अक्सर (मैंने सुना है) प्रोफेसर का इतिहास सुनते रह जाते हैं. फिर प्लेसमेंट के समय खुद इतिहास होकर रह जाते हैं. बेहतर हो कि आने वाली बैच यह सोच कर बिल्कुल ना आए कि उसे यहां से नौकरी मिलेगी. प्रोफेसर लोगों की आपसी खींचतान, EG0 (काम शुरू करे 6 सेकेंड में) और DG की लफ्फाजियों के चलते विद्यार्थियों का जीवन चौपट होता है.
मेरी राय है कि संस्थान इस साल जारी किए जा रहे विवरणिका में यह स्पष्ट कर दे कि हम नौकरी नहीं दे सकते. हम अभी आपसी लड़ाई, खींचतान और EGO में बिजी हैं. जब खुद इन सबसे मुक्त हो जाएंगे तो आपकी चर्चा करेंगे.
विभागों में प्रोफेसर नहीं हैं. जो बाहर से पढ़ाने आते हैं उनका भी मानदेय का बिल देख कर साहबान-मालिकान भड़क जाते हैं. मिड टर्म में एक हिन्दी विभाग के एक शिक्षक का कॉन्ट्रैक्ट खत्म करने वाले हैं ऐसी खबर है. हो सकता है कोई अपना बेरोजगार बैठा हो.
फिलहाल इस प्लेसमेंट में अब तक जो कारगुजारियां हुई हैं उन पर रोक लगाया जाए और फेयर प्लेसमेंट कराया जाए. बाद बाकी मुझे उनकी बड़ी चिंता हो रही है जो ‘हंगामा नहीं नौकरी चाहिए’ का पोस्टर पीठ पर टांगे घूम रहे थे.
सादर
राहुल सांकृत्यायन
युवा और प्रतिभाशाली पत्रकार राहुल सांकृत्यायन की एफबी वॉल से.