: इलेक्ट्रानिक न्यूज चैनलों का ‘शोर’ : टेलीविजन रेटिंग प्वांइट(टीआरपी) बढ़ाने की चाहत में निजी इलेक्ट्रानिक न्यूज चैनल अपनी साख खोते जा रहे हैं। समाचार सुनने के लिये जब आम आदमी इन चैंनलों का बटन दबा है तो उसे यह अहसास होने में देरी नहीं लगती कि यह चैनल समाचार प्रेषण की बजाये ध्वनि प्रदूषण यंत्र और विज्ञापन बटोरने का माध्यम बन कर रह गये हैं। इन चैनलों पर समाचार या फिर बहस के नाम पर जो कुछ दिखाया सुनाया जाता है, उससे तो यही लगता है कि यह चैनल न्यूज से अधिक सनसनी फैलाने में विश्वास रखते हैं।
अक्सर यह देखने को मिल जाता है कि जिस समाचार और विषय को लेकर यह चैनल दिनभर गलाकाट प्रतियोगिता करते रहते हैं, उसे प्रिंट मीडिया में अंदर के पन्नों पर एक-दो कॉलम में समेट दिया जाता है।कभी-कभी तो यह भी नहीं होता है। न्यूज चैनलों का उबाऊ प्रसारण देखकर दर्शक तो रिमोट का बटन दबा कर मुक्ति प्राप्त कर लेता है, परंतु कभी-कभी स्थिति हास्यास्पद और शर्मनाक भी हो जाती है।मीडिया के इसी आचरण के कारण सरकार से लेकर नौकरशाह तक और नेताओं से लेकर जनता तक में इलेक्ट्रानिक मीडिया अपनी विश्वसनीयता खोता जा रहा है। दुखद बात यह भी है कि जिन संस्थाओं के कंधों पर मीडिया की मॉनिटरिंग करने की जिम्मेदार है, उसके कर्णधार इन न्यूज चैनलों के कार्यक्रम का हिस्सा बनकर अपना चेहरा चमकाने में लगे रहते हैं।
आज की तारीख में इलेक्ट्रानिक समाचार चैनल विवाद का केन्द्र बन गये हैं।अगर ऐसा न होता तो अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय(एएमयू) के अंदर बड़े पैमाने पर मीडिया का विरोध नहीं होता। एएमयू से जुड़े छात्र-छात्राएं और कालेज स्टाफ गत दिनों यहां के वीसी के बयान को तोड़मरोड़ कर इलेक्ट्रानिक मीडिया में पेश किये जाने से नाराज था, जिसमें कहा गया था कि वीसी ने लाइब्रेरी में छात्राओं की इंट्री पर यह कहते हुए रोक लगा दी है कि इससे लाइब्रेरी में चार गुना छात्र ज्यादा आने लगेंगे। एएमयू छात्रसंघ और विमेंस कॉलेज स्टूडेंट्स यूनियन ने मीडिया में इस खबर को शरारतपूर्ण तरीके से दिखाये जाने से नाराज होकर विरोध मार्च निकाला और धरना दिया।
एक अंग्रेजी समाचार पत्र की प्रतियां भी जलाई गईं। विरोध की खबर किसी चैनल पर नहीं दिखाई गई, जबकि पत्रकारिता के कायदे तो यही कहते हैं कि इसे भी चैनल या समाचार पत्रों में उतना ही स्थान मिलना चाहिए जितना वीसी के बयान को पेश करने के लिये दिया गया था। वीसी का साफ कहना था कि किसी छात्रा पर रोक नहीं लगाई गई है। शोध और मेडिकल से जुड़ी छात्राएं लाइब्रेरी आती भी हैं। 1960 से जो व्यवस्था चल रही है उस पर ही आज भी एएमयू आगे बढ़ रहा है, अगर कुछ गलत हो रहा था तो यह आज की बात नहीं थी, जिसका विरोध वीसी की आड़ लेकर किया जा रहा है। यह घटना अपवाद मात्र है जबकि इस तरह के समाचारों से इलेक्ट्रानिक न्यूज बाजार पटा पड़ा है।
ऐसा लगता है कि निजी न्यूज चैनल के कर्ताधर्ता समाचार पत्र के स्रोत का गंभीरता से पता नहीं लगाते हैं, जिसकी चूक का खामियाजा उन्हें समय-समय पर भुगतना पड़ता है। आज स्थिति यह है कि करीब-करीब सभी न्यूज चैनल किसी न किसी दल या नेता के प्रति निष्ठावान बने हुए हैं और उन्हीं को चमकाने में लगे रहते हैं। पैसा कमाने के चक्कर में इनके लिये सही-गलत का कोई पैमाना नहीं रह गया है। अंधविश्वास फैलाना, बेतुके बयानों को तवज्जों देना, अलगावादी और विवादित नेताओं को हाईलाइट करना,बड़ी हस्तियों के निजी जीवन में तांकझाक करना इनकी फितरत बन गई है। यही वजह है कि कई नेता, नौकरशाह, उद्योगति, फिल्मी हस्तियां, समाजवसेवी मीडिया से बात करना पसंद नहीं करते हैं। उन्हें डर रहता है कि न जाने कब उन्हें विवादों में घसीट लिया जाये। न्यूज चैनलों का शोर जल्दी नहीं थमा तो इनके सितारे गर्दिश में जा सकते हैं।
लेखक अजय कुमार लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार हैं. एक जमाने में माया मैग्जीन के यूपी ब्यूरो चीफ हुआ करते थे. चौथी दुनिया समेत कई अखबारों से जुड़े हुए हैं और नियमित स्तंभ लेखन करते हैं.
NAVIN KUMAR
November 16, 2014 at 1:17 am
अजयजी हक़ीक़त यह हे की शोध के नाम पर समाचार पत्रो को पढ़कर आधी न्यूज़ तैयार होती है. इनसे बेहतर तथ्यात्मक समाचार तो आज कल डी डी न्यूज़ दिखा रहा है
purushottam asnora
November 15, 2014 at 9:53 am
चैनल के संपादकों को कोयला घोटाले की खबर रोकने के लिए 100 करोड के विज्ञापन मांगने की कीमत जेल जाकर चुकानी पडे तो इससे नीचे कितना गिरेंगे सोचा जा सकता है। किसी नेता विशेष की सभा या कार्यक्रम को लाइव प्रसारित करने की होड चैनलों में है। आप सही कह रहे हैं कि चैनल लगाते ही पता चल जाता कि एंकर बहस में क्या और क्यों कहलाना चाहता है।
मीडिया का प्रिंट हिस्सा भी रंगे सियार से कम नही है। पाठक को अखबार हाथ में आते ही पहले और दूसरे पेज विज्ञापन मिलें तो उसका निराश होना स्वाभाविक है। जब आपका अखबार कम विज्ञापन का हो तो आप उसे 14 पृष्ठ तक सीमित कर दें और 30 पृष्ठों में विज्ञापनों के अतिरिक्त कुछ दिखेगा नहीं। इलक्ट्रांनिक हो या प्रिंट लोकतंत्र के चैथे स्तंभ जैसा व्यवहार तो कहीं है ही नही। आपकी जिम्मेदारी है कि लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए आप प्राण पण से जुटें, और अपने सुख- दुख, हानि-लाभ की चिन्ता किए बिना पाठक के सूचना के अधिकार और उसकी जिज्ञासा को पूरा करें जिसकी जिम्मेदारी आपने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का ढोल अपने गले में डाल कर ली है। आज का मालिक और उसका दुमछल्ला संपादक दोनों ही मीडिया जैसे पवित्र पेशे के योग्य नही हैं। मालिक को अपने उत्पाद बेचने वाला सेल्स मैन चाहिए और सेल्समैन को ऐसे ढोर-डंगर जिन्हें आसानी से हांका जा सके।
जब लोकतंत्र की उन भावनाओं का अता-पता ही न हो और हो भी गांधी जी के बंदरों की तरह आंख, कान और मुंह बंद अपने स्वार्थाें की पूर्ति के लिए हो, मीडिया जैसा सम्मानकारी शब्द प्रयोग की छूट भी उन्हें नही होनी चाहिए।
pankaj
November 15, 2014 at 11:29 am
bilkool sahi likha hai aapne ajaji
ashish dhiman
November 20, 2014 at 4:04 am
सर आपने बहुत ही सुन्दर लेख लिखा है। और यह हकीकत भी है। अब कुछ लोगों के पास अखबार पढ़ने का टाइम ही नही है। और न्यूज चैनलों की तो हकीकत सभी जानते है किस को कैसे दिखाना है और किसको कैसे……….
Avner
November 21, 2014 at 4:14 am
The content in Doordarshan is much better than Private news channels both in News and GEC. DD is getting day by day.